श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”
(आज से प्रत्येक रविवार हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद” जी द्वारा रचित ग्राम्य परिवेश पर आधारित एक धारावाहिक उपन्यासिका “पगली माई – दमयंती ”।
इस सन्दर्भ में प्रस्तुत है लेखकीय निवेदन श्री सूबेदार पाण्डेय जी के ही शब्दों में -“पगली माई कहानी है, भारत वर्ष के ग्रामीण अंचल में पैदा हुई एक ऐसी कन्या की, जिसने अपने जीवन में पग-पग पर परिस्थितिजन्य दुख और पीड़ा झेली है। किन्तु, उसने कभी भी हार नहीं मानी। हर बार परिस्थितियों से संघर्ष करती रही और अपने अंत समय में उसने क्या किया यह तो आप पढ़ कर ही जान पाएंगे। पगली माई नामक रचना के माध्यम से लेखक ने समाज के उन बहू बेटियों की पीड़ा का चित्रांकन करने का प्रयास किया है, जिन्होंने अपने जीवन में नशाखोरी का अभिशाप भोगा है। आतंकी हिंसा की पीड़ा सही है, जो आज भी हमारे इसी समाज का हिस्सा है, जिनकी संख्या असंख्य है। वे दुख और पीड़ा झेलते हुए जीवनयापन तो करती हैं, किन्तु, समाज के सामने अपनी व्यथा नहीं प्रकट कर पाती। यह कहानी निश्चित ही आपके संवेदनशील हृदय में करूणा जगायेगी और एक बार फिर मुंशी प्रेम चंद के कथा काल का दर्शन करायेगी।”)
☆ धारावाहिक उपन्यासिका – पगली माई – दमयंती – भाग 8 – अंत्येष्टि ☆
(अब तक आपने पढ़ा —- किस प्रकार जहरीली शराब के सेवन से हाथ पांव पीटते लोग मर रहे थे। उसमें से एक अभागा पगली का पति भी था। अब आगे पढ़े—–)
उस दिन कुछ लोग उसके पति को सहारा दे पगली के दरवाजे पर लाये और घर से बाहर पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर लिटा कर चलते बने, घर के एक कोने में पड़ा उदास गौतम मौत की पीड़ा झेलते हाथ पांव पीटते अपने जन्मदाता को विवश हो सूनी सूनी आंखों से ताक रहा था। कुछ भी करना उसके बस में नही था। वहीं पर पैरों के पास बैठी पगली अपने दुर्भाग्य पर अरण्य रुदन को विवश थी। कोई भी तो नही था उसे ढाढ़स बंधाने वाला। उसकी नशे की मस्ती अब मौत की पीड़ा में बदलती जा रही थी।
उस सर्द जाड़े की रात में जब सारा गाँव रजाइयों में दुबका नींद के आगोश में लिपटा पड़ा था। तब कोहरे की काली चादर में लिपटी रात के उस नीरव वातावरण में माँ बेटे रोये जा रहे थे कि- सहसा पास पड़े उस बेजान जिस्म में थोड़ी सी हलचल हुई, नशे में बंद आंखे थोड़ी सी खुली, जिसमें पश्चाताप के आंसू झिलमिलाते नजर आये, हाथ क्षमा मांगने की मुद्रा में जुड़े, एक हिचकी आई फिर सब कुछ खामोश।
अब माँ बेटों के करूण क्रंदन से रात्रि की नीरवता भंग हो गई। साथ ही गाँव के बाहर सिवान में सृगाल समूहों का झुण्ड हुंआ हुंआ का शोर तथा कुत्तों का रूदन वातावरण को और डरावना बना रहे थे।
अब पगली के समक्ष पति के अन्त्येष्टि की समस्या एक यक्ष प्रश्न बन मुंह बाये खडी़ थी। जब कि उसके घर में खाने के लिए अन्न के दाने नही तो वह कफन के पैसे कहाँ से लाती। यह तो भला हो उन गांव वालों का जो उसके बुरे वक्त में काम आए और अंतिम संस्कार में खुलकर मदद की तथा अपना पड़ोसी धर्म निभाया।
उस दिन उस गाँव के लोगों ने नशे से तबाह होते परिवार की पीड़ा को निकट से महसूस किया था तथा गाँव में किसी का चूल्हा उस दिन नहीं जला था। विधवा महिलाओं ने अपने वैधव्य का हवाला देकर उसे चुप कराया था। श्मशान में चिता पर लेटे पिता को मुखाग्नि का अग्नि दान दे गौतम ने अपने पुत्र होने का फर्ज निभाया था। वही श्मशान में कुछ दूर खड़ी पगली लहलह करती जलती चिता पर अपने जीवन के देवता के धू धू कर जलते शरीर को एकटक भाव शून्य चेहरे एवम् अश्रुपूरित नेत्रों से देखती जा रही थी।
ऐसा लगा जैसे उसे काठ मार गया हो, तभी सहसा गौतम माँ के सीने से लग फूट फूट कर रो पड़ा था। उन माँ बेटों को रोता देख गाँव वासियों को लगा जैसे उनकी दुख पीड़ा देख महाश्मशान देवता भी रो पड़े हों।
– अगले अंक में7पढ़ें – पगली माई – दमयंती – भाग -9 – संघर्ष
© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”
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