डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है पुस्तक चर्चा के अंतर्गत लघुकथा रचना प्रक्रिया पर आधारित अर्धवार्षिक पत्रिका  पर विमर्शएक व्यक्ति एक उक्ति – लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ पर मेरी प्रतिक्रिया”.)

 

☆ पुस्तक चर्चा  – एक व्यक्ति एक उक्ति – लघुकथा कलश जुलाई-दिसम्बर 2019 ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ पर मेरी प्रतिक्रिया ☆ 

लघुकथा कलश ‘रचना प्रक्रिया महाविशेषांक’ जुलाई-दिसम्बर 2019 में सम्पादकीय से लेकर सभी रचना प्रक्रियाओं में लघुकथाकारों के लिए बहुत कुछ गुनने योग्य है। इस अंक के प्रत्येक रचनाकार की एकाधिक रचनाओं की रचना प्रक्रियाएं  इसमें मौजूद हैं। हर एक रचनाकार की जितनी भी रचनाओं की रचना प्रक्रिया लिखी गई हैं उन सभी में से मेरे अनुसार किसी एक विशेष बात को चुन कर प्रस्तुत लेख में देने का प्रयास किया है। हालांकि प्रत्येक की रचना प्रक्रियाओं में से एक-दो पंक्तियों को चुनना कु्छ इसी प्रकार है जैसे श्रीजी भगवान को 56 भोग लगे हों और उनमें से किसी एक व्यंजन को चुन कर निकालना हो। वैसे, केवल यही सत्य नहीं, एक सत्य यह भी है कि कुछ (जिनकी संख्या बहुत कम है) रचना प्रक्रियाओं में से एक अच्छी पंक्ति खोजना कुछ मुश्किल था, लेकिन अधिकतर रचना प्रक्रियाएं न केवल रोचक वरन अन्य कई गुणों से ओतप्रोत हैं। इस लेख के शीर्षक के अनुसार, एक उक्ति का अर्थ कोई एक विशेष बात है, जो कुछ स्थानों पर एक या अधिक पंक्तियों में कही गई है। कु्छ सुधिजनों ने अपनी बात इतनी ठोस कही है कि उन्हें एक वाक्य में बता पाना मेरे लिए संभव नहीं था। प्रवाह बनाने हेतु मैंने मेरे अनुसार कुछ वाक्यों को मिलाया भी है तो कुछ को बीच में से हटाया भी है, कुछ शब्दों को बदला भी है। ‘एक व्यक्ति एक उक्ति’ निम्नानुसार हैं:

संपादकीयः दिल दिआँ गल्लाँ / योगराज प्रभाकर

वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।

जसबीर चावला

बस में हों, ट्रेन में हों, एक-न-एक किताब ज़रूर साथ रहती। लघुकथा और कवि्ता भी  दोनों साथ ही रहती हैं। रचना प्रक्रिया में दोनों जुड़वा हैं।

प्रताप सिंह सोढी

कई दिनों तक स्थितियों को सिलसिलेवार जोड़ कर चिन्तन-मनन करता रहा।

रूप देवगुण

लघुकथा में एक ही घटना होनी चहिये। इसमें विचारों के मंथन पर मैंने जोर दिया।

हरभजन खेमकरणी

रचना का कोई न कोई उद्देश्य एवं महत्व अवश्य ही होना चहिये। लेखक को रचनाकर्म हेतु कच्चा माल समाज से ही प्राप्त होता है।

अंजलि गुप्ता सिफ़र

लघुकथा अपने विषय की कुछ ठोस जानकारियाँ माँगती थी। एक सहकर्मी से कुछ प्रश्न पूछे और कुछ गूगल बाबा की मदद ली।

अंजू निगम

लघुकथा में थोडे में बहुत कुछ कह देने की बाध्यता होती है और अन्तिम पंक्ति पर इसका दारोमदार टिका होता है।

अनघा जोगलेकर

लघुकथा छ्ठे ड्राफ्ट के बाद उत्तम लगी।

अनिता रश्मि

चार मुख्य मील के पत्थर – 1. कथानक चयन, 2. प्रथम रूपरेखा, 3. परिवर्तन, 4. शीर्षक।

अनूपा हरबोला

संस्मरण को कथा रूप दिया।

अन्नपूर्णा बाजपेई

एक कुरीति के मुद्दे को उठाया, जो कुरीति आम बात थी।

अमरेन्द्र सुमन

नक्सली गतिविधियां पूरे भारतवर्ष के लिये बहुत बड़ी समस्या बन चुकी है और गहरे पैठ भी कर रही हैं। लघुकथा लिखने के क्रम में घटना का जिक्र, पात्रों का चुनाव, घटनास्थल, आम आदमी में भय के विरुद्ध प्रतिकार का साहस, समानांतर सरकार चलाने वालों की निजी ज़िन्दगी और अन्तिम हश्र दिखलाना बहुत कठिन कार्य था।

अरुण धर्मावत

प्रथम ड्राफ्ट से ऐसा प्रतीत हुआ कि लघुकथा की बजाय कहानी बन गई है, उपदेशात्मक भी प्रतीत हुई। इस रचना को लघुकथा में ढालने के लिये श्रम किया।

अशोक भाटिया

द्वंद से गुजर कर ही कोई रचना सूत्र हाथ लगता है, जो कभी गुनने-बुनने की प्रक्रिया में ही ढलने लगता है तो कभी बीज रूप में ही महीनों दबा रहता है। क्रियाओं को पहले मन में फिर कागज़ पर एक क्रम दिया। रचना के मन में बनने की प्रक्रिया से लेकर उसे कागज़ तक उतारने का संघर्ष बड़ा रोचक होता है। जैसी रचना मन में होती है, वैसी बाह्य रूप में नहीं हो सकती। इस प्रक्रिया के दौरान बड़ी सजगता से रचना के उत्स के पी्छे की उर्जस्विता को बचाये रखना होता है।

अशोक वर्मा

अपनी लघुकथा में तीस वर्षों का कालख़ण्ड एक साथ कहने का प्रयास किया है। (इस लघुकथा का शिल्प पढ़ने और गुनने योग्य है।)

आभा खरे

पुराने विषय को नए रूप में शब्दबद्ध करने का प्रयास किया है। इस हेतु पात्र गढ़ने, उनके नामकरण और कथानक पर कार्य किया।

आभा सिंह

मन की अबूझ गहराईयों को ध्यान में रखते हुए इस रचना का शीर्षक तय किया।

आर.बी.भंड़ारकर

छोटे-छोटे अनुभव, स्मृतियां, भाव, विचार, सोच, दृष्टिकोण, लेखन के आधार बनते हैं।

आशा शर्मा

मुझे अपनी भावनाओं के ज्वार से बाहर निकलने का एकमात्र यही तरीका आता है – लेखन। मैं विज्ञान की छात्रा भी रही हूँ, तो जहां आवश्यक तथा उक्तिसंगत हो, सूर्य-पृथ्वी आदि की उपमाएं देती हूँ।

आशीष दलाल

बार-बार पढ़ने पर भी रचना उपदेशात्मक सी लग रही थी, दिन भर मन और दिमाग में द्वंद चलता रहा और रात में इन्हीं विचारों के साथ नींद आ गई। सवेरे जब आँख खुली तो एक नए विचार के साथ दिमाग तैयार था और मन भी उसके साथ ही था।

ऊषा भदौरिया

तीन-चार दिनों बाद रचना को दोबारा पढ़ने पर उन भावों को उतना कनेक्ट नहीं कर पाई, जिन भावों से सोचकर उसे लिखा था, उसमें एडिटिंग की ज़रूरत थी।

एकदेव अधिकारी

लघुकथा के प्राण उसमें प्रयुक्त कठिन, समझ से बाहर शब्दों में नहीं, बल्कि कथ्य की प्रभावकारिता में होते हैं।

ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश

लेखकीय नज़रिये से सोचा तो कथानक पूरा बदल दिया, वाक्य छोटे किये, कसावट लाया और फिर विस्तार दिया।

कनक हरलालका

मुझे ‘प्रतिदान’ शीर्षक सार्थक लगा क्योंकि प्रेम के प्रतिदान में आत्मसम्मान सही रखा जा सकता है और मोक्ष या ज्ञान नहीं केवल ‘प्रेम’ ही दिया जा सकता है।

कमल कपूर

मन-मस्तिष्क के कच्चे आवे की सोंधी-मीठी धीमी आंच पर कई दिनों तक पककर ही लघुकथा सुंदर और सुगढ आकार लेती है… किसी कलात्मक माटी-कलश की तरह। चाहे बूंद भर ही क्यों न हो, हर लघुकथा के तलछट में एक सच छुपा होता है।

कमल चोपड़ा

कटु सत्यों को लघुकथा में समेटने के प्रयत्न के लिए काफी सोचने के बाद मुझे इसे सहज शिल्प-शैली में लिखना उचित लगा।

कमलेश भारतीय

घटना समाचार पत्र में पढ़कर मन ही मन रोया। बरस-पे-बरस बीतते गये, यह घटना मन में दबी रही और आखिरकार एक दिन लघुकथा ने जन्म लिया।

कल्पना भट्ट

घटनाक्रम को अपने ही घर के घटनाक्रम से लेती गई और यह भी ध्यान रखा कि कथातत्व यथार्थ पर कायम रहे, भटके नहीं।

कुँवर प्रेमिल

रचनाकार अपनी रचना से इतना मोहग्रस्त है कि किसी और की रचना को पढ्ना ही नहीं चाहता, यह आदत उसे कूप-मन्डूक बना रही है।

कुमार संभव जोशी

आठ बिन्दु महत्वपूर्ण हैं – कथानक, भूमिका, शिल्प व शैली, चरमबिन्दु, शीर्षक, कालखण्ड, मन्थन और सन्देश।

कुसुम पारीक

कथा को दो-तीन बार पाठकीय दृष्टिकोण से पढ़ा और जब संतुष्टि आई तब शीर्षक पर विचार प्रारम्भ किया।

कुसुम शर्मा नीमच

चुंकि लघुकथा ग्रामीण परिवेश की है, अतः पात्रों का नामकरण भौगोलिक स्थिति, गांव के प्रचलित नामों और गंवईं चरित्र के अनुसार किया।

कृष्णा वर्मा

कथानक सूझते ही मन उस क्षण विशेष की खोज में लग गया जो लघुकथा को प्रारम्भिक रूप दे सके। लघुकथा का उद्देश्य उसका आरम्भ, मध्य, अंत, कथ्य की पराकाष्ठा तथा शीर्षक को सोचकर उसकी रूपरेखा बनाई।

कृष्णालता यादव

साहित्य में रुचि रखने वाले (पाठक स्वरूप) अपने जीवनसाथी से रचना पर विचार-विमर्श किया और उनकी राय के अनुसार रचना में संशोधन किया।

खेमकरण सोमन

जब तक अगम्भीरता की स्थिति बनी रही, तब पचासों ऐसी रचनाएं लिख डालीं जो विधा को नुकसान पहुंचाती। मैं सोचने को बाध्य तब हुआ, जब घटना-वस्तु अति महत्वपूर्ण प्रतीत हुई। घटना-वस्तु को कथानक में बदलने के साथ-साथ, शीर्षक पर विचार, पात्रों के अनुसार भाषा शैली और कथानक के अनुसार पात्रों का नामकरण आदि भी किया।

 चित्त रंजन गोप

जहां आशय स्पष्ट नहीं हो रहा था, वहां कुछ शब्द जोड़े और जहां अतिरिक्त शब्द दिखाई दिए, उन्हें हटा दिया। बांग्ला की बजाय हिंदी का प्रयोग किया। वर्तनी की अशुद्धियों को सुधारने हेतु शब्दकोश की मदद ली।

 जगदीश राय कुलरियाँ

लघुकथा मेरे लिए मेरे विचारों को व्यक्त करने का सशक्त माध्यम है। घटनाएं एवं वाक्य कई सालों तक मस्तिष्क में घूमे, तब जाकर इस रचना का आधार बना।

ज्ञानप्रकाश पियूष

इस लघुकथा के प्रारूप में भी पूर्ण होने के बाद तक किसी भी परिवर्तन की आवश्यकता महसूस नहीं हुई। भाव, भाषा, शिल्प, सन्देश और उद्देश्य की दृष्टि से भी जिन्हें पढ़वाई उन सभी को उपयुक्त लगी।

तारिक़ असलम तसनीम

(कई) गाँवों में एक परंपरा है कि शाम को विवाहित स्त्रियां साज-श्रृंगार करती हैं, ताकि घर पर आते ही उनके पति मुस्कुरा उठें। लेकिन शहरी जीवन में यह संभव नहीं। तब कोई-कोई विवाहित पुरुष स्वयं के लिए स्पेस अन्य स्त्रियों में ढूंढने का प्रयास कर सकता है। गाँवों और शहरों के पात्र मेरे यथार्थ अनुभव का भाग हैं और इसी विषय पर रचना की है।

धर्मपाल साहिल

तीखा व्यंग्य लघुकथा की धार को तेज़ करता है। ऐसा अंत बनाने की प्रक्रिया कई दिन चली।

ध्रुव कुमार

वरिष्ठ लघुकथाकार सतीश राज पुष्करणा जी ने सुझाया कि फालतू शब्दों और वाक्यों को किस तरह हटाया जाता है और शीर्षक लघुकथा के कथानक के अनुरूप रखा।

नयना (आरती) कानिटकर

दूरदर्शन पर संविधान प्रक्रिया की चर्चा को देखते हुए मन में बात आई कि इस विषय पर लिखा जा सकता है।आत्मकथ्यात्मक, विवरणात्मक और संवादात्मक शैली में लिखने के बाद इसका अन्तिम रूप मिश्रित शैली में लिखा।

नीना छिब्बर

इस बात का विशेष ध्यान रखा कि भाव सम्प्रेषण, वाक्य-विन्यास और लघुकथा का मूल भाव लुप्त न हो जाए।

नीरज शर्मा सुधांशु

यह ध्यान रखा कि प्रयुक्त प्रतीक के गुणधर्म रचना के कथ्य पर सटीक बै्ठते हों और रचना नए मूल्य स्थापित करने में सक्षम हो।

नेहा शर्मा

रचना की कथा-वस्तु मेरे दिमाग में व्यर्थ जलती स्ट्रीट लाईट्स को देखकर आई।

पंकज शर्मा

यह रचना सत्य घटना पर आधारित है और हू-ब-हू उसी प्रकार लिखी गई है या बयान की गई है।

पदम गोधा

कथा में कथा-तत्व, कालखण्ड दोष और व्यापक सन्देश पर ध्यान देने का प्रयास किया है।

पवित्रा अग्रवाल

जाति का नाम न देकर मैंने जाति सूचक नाम ‘मिस्टर वाल्मिकि’ का प्रयोग किया।

पुरुषोत्तम दुबे

लघुकथा को जनतान्त्रिक परिवेश के माध्यम से उभारा गया है। वातावरण को जीवंत बनाने हेतु विरोधी नारों के हो-हल्लों को व्यक्त करने हेतु आक्रोश भरे शब्दों का चयन किया है।

पुष्पा जमुआर

हू-ब-हू स्थिति-परिस्थिति को आधार बना कर किया गया लघुकथा लेखन सिर्फ सच को उजागर करता सा या समाचार सरीखा प्रतीत होता है। अतः मैंने अपनी भावनात्मकता में कल्पनात्मक प्रस्तुति दी है।

पूजा अग्निहोत्री

मुख्य बिन्दु :- सहेली से कथानक सूझना, पहली रूपरेखा तैयार, वरिष्ठ लघुकथाकार से वार्ता कर परिवर्तन, शीर्षक के लिये सुधिजनों का अनुमोदन।

पूनम डोगरा

इसे लिखने में बहुत कम वक्त लगा, लगभग एक सिटिंग में ही लिख ड़ाली, शायद इसलिये भी क्योंकि यह कई दशकों से मेरे भीतर पक रही थी।

(यहां मैं संपादकीय वाली पंक्ति दोहराना चाहूँगा – “वस्तुतः रचना प्रक्रिया अभिव्यंजना से अभिव्यक्ति तक का एक लम्बा सफर है।”)

पूरन मुद्गल

लघुकथा में मैंने एक तथ्य, जिसे मैं मानता हूँ (आ्त्मा शरीर के साथ ही समाप्त हो जाती है) को अभिव्यक्त किया है।

प्रतिभा मिश्रा

सोशल मीडिया पर एक चित्र पर लेखन आयोजन के समय एक पुरानी घटना की याद ताज़ा हो गई। तब इस लघुकथा ने आकार लिया।

प्रबोध कुमार गोविल

वर्षों बाद मेरे जेहन में वो लघुकथा का एक पात्र बन गईं और मैंने अपनी लघुकथा ‘माँ’ उसी को जेहन में रखकर लिखी। अपनी उम्र से एकाएक बडे हो जाने के उसके अनुभव को मैंने ‘घर-घर’ के बालसुलभ खेल में उसके स्वतः ही माँ की भूमिका चुन लेने के रूप में दर्शाया।

प्रेरणा गुप्ता

लघुकथा मेरी तरफ से लिख लेने के बाद भी कु्छ अभाव सा प्रतीत हो रहा था। एक मित्र के एक पंक्ति के सुझाव मात्र से यह पूर्ण हो गई।

बलराम अग्रवाल

मेरी अधिकतर लघुकथाओं की तरह इसका कथानक भी किसी घटना-विशेष से प्रेरित नहीं है। इस रचना की मुख्य पात्र जाति-समुदाय से प्राप्त संस्कारों को पीछे ठेलकर मानवीय ‘अपनापन’ अपनाने को वरियता देती है। लघुकथाकार का अनिवार्यतः मन की परतों से तथा शब्दों व बिम्बों के स्फोट से परिचित रहना आवश्यक है। इस रचना के एक विशेष संवाद का विश्लेषण फ्रायड के एक सिद्धान्त के आधार पर किया जा सकता है, जो यह लघुकथा लिखते समय मेरे मस्तिष्क में रहा था।

बालकृष्ण गुप्ता गुरुजी

यह कथानक चयन करने का एकमात्र उद्देश्य समाज में जागरुकता लाने का प्रयास करना है।

भगवती प्रसाद द्विवेदी

इस लघुकथा में आत्मकथात्मक शैली में स्मृतिजीवी, आत्मजीवी व्यक्ति के द्वन्द को दर्शाने का प्रयास किया है।

भगीरथ परिहार

रचना और रचना-प्रक्रिया दोनों ही लेखक के मन-मस्तिष्क में घटती है। यह रचना भी घटना होने के बाद कई महीनों तक अवचेतन मन में मंथन चलने के बाद कागज़ पर अंकित की। बाद में शीर्षक इस तरह का रखा जो कथ्य पर आधारित हो लेकिन उससे कथ्य प्रकट न हो।

भारती कुमारी

मुझे शीर्षक और पात्रों के नामों का चयन सबसे अधिक परेशान करता है। इस रचना में पात्रों को नाम नहीं दिया है। चूँकि रचना चित्र आधारित लेखन प्रतियोगिता के लिए लिखी थी इसलिए शीर्षक चित्र पर आधारित रखा।

भारती वर्मा बौड़ाई

इस रचना को लिखते समय दो घटनाएं आपस में गड्डमड्ड हो रहीं थीं। अतः इस पर कार्य करते समय तीसरे प्रारूप में यह रचना लघुकथा के रूप में आई।

मंजीत कौर मीत

रचना सृजन के समय. व्यवस्थित वाक्य, उचित शब्दों का प्रयोग, प्रभावी संवाद और उद्देश्य पूर्ति को ध्यान में रखना आवश्यक है।

मंजू गुप्ता

आज की पीढ़ी हस्तकला का कार्य करना पसंद नहीं करती, रचना की मुख्य पात्र भी इसी का प्रतिनिधित्व कर रही है।

मधुदीप गुप्ता

जब हम किसी घटना से उत्पन्न विचार को अपने दिमाग में पकने देते हैं और उसके लिए उपयुक्त कथ्य की प्रतीक्षा करते हैं, तभी सही रचना का जन्म होता है। इस रचना की मूल घटना ने मुझे बहुत व्यथित कर दिया था और मैं कई दिन बैचेन रहा। यह सब मेरे अवचेतन में चला गया और एक दिन स्वतः ही एक कथानक के रूप में मेरे मस्तिष्क में आ खड़ा हुआ। घटना पर तुरंत लिख देना पत्रकारिता की श्रेणी में आता है और वह सृजनात्मक लेखन नहीं होता।

मनन कुमार सिंह

अभिव्यक्ति पात्रों के माध्यम से होती है। बहुत सारे विकल्प खुले थे। अंत में प्रतीक के तौर पर लकीरों का प्रयोग किया और पात्र के तौर पर एक लेखक और एक टूटते तारे को।

मनु मनस्वी

मेरी कोशिश यह रहती है कि लघुकथा एक हाइकू की तरह हो। संक्षिप्ततम और पूर्ण।

महिमा भटनागर

मुझे विषय, पात्र और उद्देश्य मिल गया था लेकिन जो रचना बनी वह एक कहानी थी। उसमें से लेखकीय प्रवेश हटाते हुए उसे क्षण-विशेष की घटना बनाते हुए संवादों में पिरोया जिससे उस रचना ने लघुकथा का रूप लिया।

महेंद्र कुमार

प्रमुख कठिनाई यह थी कि पाठकों को कैसे कम से कम शब्दों में पाइथोगोरस के दर्शन से परिचय करवाया जाए। अतः कुछ पंक्तियाँ पाइथोगोरस और उनके शिष्य के संवाद पर खर्च कीं।

माधव नागदा

पंद्रह वर्षों तक यह थीम अंतर्मन के किस कोने अंतरे में दुबकी हुई थी, पता नहीं, और किस स्फुरण के कारण यह एक मुकम्मल लघुकथा के रूप में कागज़ पर अवतीर्ण हो गई? लेकिन इसका शीर्षक अवचेतन की बजाय इसी के कथ्य से प्राप्त हुआ। सबसे निचले पायदान का आदमी अपने नालायक बेटे को अपने महीने भर की कमाई देकर मस्ती से जा रहा है। भला उससे ‘रईस आदमी’ कौन हो सकता है?

मालती बसंत

पहले ड्राफ्ट के बाद समय अंतराल देना आवश्यक होता है ताकि सही लघुकथा का सृजन हो सके।

मिन्नी मिश्रा

इस लघुकथा के लिए मैंने कई शीर्षक सोचे, लेकिन पाठक सीधे कथा के मर्म तक पहुँच सकें, ऐसा शीर्षक चयनित किया।

मिर्ज़ा हाफिज़ बेग

लघुकथा का कैनवास इतना सीमित होता है कि अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति बहुत मुश्किल हो जाती है, लेकिन क्या इस एक शर्त को पूरा करने के लिए लघुकथा से उसका सौंदर्य छीन लेना, उसके लालित्य की परवाह नहीं करना लघुकथा के साथ अन्याय नहीं है?

मुकेश शर्मा

लघुकथाओं के घिसे-पिटे विषयों से मैं निराश हो चुका था। एक मित्र के अनुभवों को सुनते समय ऐसा प्रतीत हुआ कि प्रेम-कविता जैसी लघुकथा लिखूं।

मुरलीधर वैष्णव

इस लघुकथा में चित्रित तंत्र की भ्रष्टता को व्यंग्यात्मक शैली में लिखा। कथानक एवं विषय के अनुरूप ही पात्रों और संवादों का चयन किया।

मृणाल आशुतोष

चूँकि यह कथानक लम्बे से मन में जगह बनाये हुए था, इसलिए काफी समय समय तक इसे बेहतर करने के लिए विचार किया। किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा तो एक लघुकथाकार मित्र की सहायता ली।

मेघा राठी

चूँकि यह कथा किन्नर समुदाय की है अतः संवाद लिखते समय उनके हाव-भाव और आदतों के जिक्र के साथ उनकी भाषा में लिंखना बहुत आवश्यक था।

योगराज प्रभाकर

1985 में एक नज़्म लिखी थी – ‘सुन रे डरपोक सूरज’, 1989 में अचानक इस नज़्म को लघुकथा में ढालने का विचार आया। मैंने झटपट ही संवाद शैली में यह लघुकथा लिख ड़ाली। मेरा मानना है कि जो सुनाई न जा सके वह कहानी नहीं और जो गाई न जा सके वह कविता नहीं। बोलते वक्त इस लघुकथा में वह बात नहीं आ पा रही थी, जो पढ़ते वक्त आ रही थी। तब संक्षिप्त किन्तु आवश्यक विवरण देते हुए इस लघुकथा को दोबारा लिखा।

योगेन्द्रनाथ शुक्ल

“सरकार ने आदिवासियों पर करोडों रुपये खर्च किए लेकिन उनके पास दसवां हिस्सा भी नहीं पहुंच सका। फूल, पत्ती आदि खाने को मजबूर लूट न करें तो क्या करें?” यह सुनने के बाद मन द्रवित हो गया और जब तक इसे लघुकथा में नहीं ढ़ाला चैन नहीं मिला।

रजनीश दीक्षित

मुझे एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना करनी थी जिसमें रोजमर्रा में कहे जाने वाले शब्द चटनी के सॉस से होते हुए आज के कैचप तक की बात समाहित हो जाए। यह विचार कई माह तक मन ही में घूमता रहा।

रतन राठौड़

लघुकथा सी्धे रूप में न कहकर मित्रों के आपसी वार्तालाप से उपजी है। लेखकीय दृष्टि से मैंने बहुत अंतर्द्वंद झेला है कि नायक आत्महत्या करे अथवा दुनिया से वैराग्य ले।

रवि प्रभाकर

भालचन्द्र गोस्वामी के अनुसार शीर्षक कहानी भर से प्राप्त होने वा्ली घटना को एक-दो शब्दों में गुंफित कर कहानी की रूपरेखा उपस्थित कर देता है। कुछ शीर्षक बदलने और मन्थन के पश्चात इस रचना का शीर्षक ‘कुकनुस’ रखा, जो प्राचीन यूनानी ग्रन्थों में एक मिथक अमरपक्षी है। यह मरने के बाद अपनी ही राख से पुनः जीवन प्राप्त कर लेता है। इसका रोना शुभ माना जाता है और इसके आंसू से नासूर तक ठीक हो जाते हैं। ‘प्यार’ सरीखी पवित्र भावना भी अमर है और इसमें भी किसी के ज़ख़्म ठीक करने की अद्भुत शक्ति होती है।

राजकमल सक्सेना

जब लिखने की बारी आई तो शुरुआत समस्या बन गई। अन्ततः मेरे और मेरी पुत्री के बीच हुआ वार्तालाप ही इसका आरम्भ बना।

राजेन्द्र मोहन बंधु त्रिवेदी

एक बार एक व्यक्ति झूठ बोलकर कि उसे जयपुर में पैर लगवाना है, मुझसे रुपये ऐंठ कर ले गया। तब यह विचार आया कि ऐसे धन्धेबाजों पर लिखना ज़रूरी है ताकि कोई अन्य इनके चक्कर में न पड़े।

 राजेन्द्र वामन काटदरे

पहला जो खाका बना, वही कायम रहा व रीराइट करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। एक कथाबीज रचना का रूप लेकर फला-फूला।

राधेश्याम भारतीय

लघुकथा एक सच्ची घटना पर आधारित है। सतनाम सिंह नाम का व्यक्ति किसी कारणवश उसे दिए जा रहे सम्मान को लेने नहीं आया। लेकिन दो महिनों बाद वही भाग-भाग कर रेलवे स्टेशन पर रुकी ट्रेन के यात्रियों की बोतलों में पानी भर कर सेवा कर रहा था।

रामकुमार आत्रेय

इस लघुकथा में ‘इक्कीस जूते’ खाने वाला ईमानदार व्यक्ति मैं ही हूँ। देश में परिवर्तन तो बहुत आया है लेकिन भ्रष्टाचार को लेकर स्थिति आज भी कमोबेश पहले की भांति बनी हुई है।

रामकुमार घोटड़

इस विषय पर लघुकथा लिखने का मन बनाया लेकिन किस भाषा व कैसी शैली में लिखूं, यह निश्चित नहीं कर पाया। अन्ततः संवाद शैली में उस कथानक पर आधारित लघुकथा लिखी।

रामनिवास मानव

मैं अपने चिड़चिड़े स्वभाव के कारण छोटी-छोटी बातों पर ही अपनी पत्नी से नाराज़ हो जाता था। लेकिन मेरी पत्नी हमेशा सकारात्मक ही रहती और सकारात्मक ही कहती। इसी मिजाज़ ने मुझे यह लघुकथा लिखने को प्रेरित किया।

राममूरत राही

इसका शीर्षक मुझे कथानक के साथ ही सूझ गया था, जो मुझे बाद में भी सटीक लगा, तो वही रख दिया।

रामेश्वर काम्बोज

यह सम्भव है कि लघुकथा में आधारभूत घटना का कोई छोटा सा अंश ही परिमार्जित होकर आए। यह अंश उसमें उद्भुत होने पर भी उससे एकदम अलग नज़र आ सकता है। जैसे प्रस्तर खण्ड से बनी मूर्ति, उस बैडोल पत्थर की सूरत से कहीं मेल नहीं खाती।

रूपल उपाध्याय

अखबार में छपे एक आलेख को पढ़ने के बाद सबसे पहले मैंने इस रचना की एक पृष्ठभूमि तैयार की। कथा रोचक रहे इसलिए दो पात्र रखे, जिनकी लापरवाही से वे अपनी इकलौती संतान खो देते हैं। चूँकि उनकी वेदना दर्शायी, इसलिये लघुकथा का शीर्षक ‘वेदना’ ही रखा।

रेणु चन्द्रा माथुर

चाचा ससुर के बेटे-बहू ने एक कन्या को गोद लिया और उसका उत्सव मनाया। लघुकथा ने वहीं जन्म ले लिया। हालांकि लघुकथा इससे आगे नहीं बढ पा रही थी। पडौस में एक बेटी के जन्म पर उसका नाम ‘खुशी’ रखा तो लघुकथा भी इसी नाम के साथ पूरी हुई।

लता अग्रवाल

आज लघुकथा ने अपना पाठक तैयार किया है, उसका कारण है इसका आम जन-जीवन से जुड़ा होना। चाहे वह अतीत हो या भविष्य की सम्भावना। हालांकि लघुकथा पाठकों के दिल में तभी उतरेगी जब उसमें कुछ नया होगा।

लवलेश दत्त

मेरे मन पर प्रत्येक घटित घटना का प्रभाव होता है और अवचेतन मन के अनुसार वह घटना रचना के रूप में आकार ले सकती है। सही मायनों में लालची लोगों पर अदृश्य व्यंग्य करती इस लघुकथा को तैयार होने में दो-ढ़ाई साल का समय लग गया।

लाजपतराय गर्ग

कई बार तो पूरी की पूरी रचना का खाका मन ही में तैयार हो जाता है। यहां तक कि पात्रों के संवादों तक की रूपरेखा बन जाती है। किसी भी बदलाव की ज़रूरत नहीं होती। कभी ऐसा भी होता है कि प्रथम पाठक या श्रोता के अनुसार (छोटा या बड़ा) बदलाव करना पड़े।

वन्दना गुप्ता

रचना के कच्चे ड्राफ्ट में मैंने फिज़िक्स के नियम नहीं जोड़े थे, जब कुम्हार के घूमते चाक का प्रतीक लिखा तो अभिकेन्द्री और अपकेन्द्री बल का सन्तुलन दिखाने की भी सूझी।

विभा रश्मि

अपने वास्तविक जीवन के अनुभवों में कल्पना का मिश्रण कर मैं लघुकथाएं लिखती हूँ, लेकिन जहां तक हो सकता है, पात्रानुकूल भाषा में संवाद, वातावरण बुनने की कोशिश भी करती हूँ। यह लघुकथा भी एक यथार्थ घटनाक्रम की देन है, जो बीस बरसों के बाद लिखी गई।

 विभारानी श्रीवास्तव

लघुकथा-सृजन में मैंने इस बात का सदैव ध्यान रखा है कि वह सत्य-कथा, अखबारी समाचार, रिपोर्ट या संस्मरण आदि बन कर न रह जाए। सृजन के साथ-साथ इसके शास्त्रीय पक्ष पर भी गंभीरता से ध्यान देती हूँ। क्षिप्रता बरकरार रखने के लिए इस लघुकथा को कई-कई बार लिखा।

वीरेन्द्र भारद्वाज

पूरी रचना कल्पना से लिखी गई है। घटना तो समय, स्थिति और वातावरण है। रचना को खूब मथा, गर्भस्थ किया, उसका शिल्प (पात्र, संवाद, देशकाल, भाषा सभी) पहले ही तय किया।

वीरेन्द्र वीर मेहता

करीब एक वर्ष के बाद अपने घर ही के एक धर्मिक अनुष्ठान के दौरान पत्नी के कु्छ शब्दों ने उस घटना की याद को ताज़ा कर दिया और दोनों (पुरानी और नई) बातों ने मिलकर एक नवीन कथ्य को जन्म दिया।

शराफ़त अली खान

ऐसी ही और भी कई घटनाएं घटी, लेकिन हर घटना पर मैंने नहीं लिखा। वैसे भी हर विभागीय घटना सार्वजनिक नहीं की जा सकती।

शावर भक्त भवानी

इस लघुकथा में निहित समस्या और प्रश्न न जाने कितनी माताओं और बच्चों का है। लेकिन आधुनिक भारत में भी बच्चे इस विषय पर खुलकर चर्चा करने से घबराते हैं, जबकि इस विषय को शिक्षा प्रणाली में  शामिल कर जागरुकता लाने की आवश्यकता है।

शील कौशिक

मैंने इसे दो-तीन बार अलग-अलग शैलियों में लिखा और काट-छांट की। यथार्थ की भूमि पर आधारित इस रचना का उद्देश्य समाज को आइना दिखाना है।

शेख़ शहज़ाद उस्मानी

कथ्य यही था कि मुस्लिम दोस्त ने हिन्दू दोस्त का अन्तिम संस्कार हिन्दू रीति से किया। इसमें चाय की गुमटी पर विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा टीका-टिप्पणी करवाने की कल्पना भी की। तात्कालिक बुद्धि के अनुसार संवाद जुड़ते चले गए। रचना के अंत में अनपढ़ चाय वाले का संवाद सूझा, जो रचना की बेहतरी हेतु उपयुक्त प्रतीत हुआ।

श्यामसुंदर अग्रवाल

किसी घटना ने नहीं बल्कि एक विचार मात्र ने मुझसे इस लघुकथा का कथानक तैयार करवाया। लघुकथा में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए कि रचना का कथ्य उसके अंत से पहले उजागर नहीं हो।

श्यामसुन्दर दीप्ति

इस घटना को लघुकथा में ढालने के कई वर्षों पश्चात यह स्पष्ट हुआ कि हर घटना पर लघुकथा बना देना उचित नहीं होता। घटना का चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है।

संतोष सुपेकर

कई बार रचना में एक वाक्य, एक शब्द को लेकर ही काफी उलझन रहती है। लेखक सही दिशा तय नहीं कर पाता। इस लघुकथा को लिखते समय मैं इतना खो गया कि वाक्य-विन्यास पर ही ध्यान नहीं दे सका। इस लघुकथा के पीछे मेरी ऐसी ही कई उलझनें छिपी हैं।

संदीप आनंद

मेरे दिमाग में यह आया कि लेखन के लिए क्यों न उन घटनाओं को आधार बनाऊं, जो मेरे जीवन में सकारात्मक बदलाव लाईं।

सतीश राठी

यह सारा घटनाक्रम बहुत ही भावुक और प्रेरणास्पद है। इस सृजन से मुझे ही नहीं बल्कि कई वरिष्ठ लघुकथाकारों को भी सन्तु्ष्टि प्राप्त हुई है।

सतीशराज पुष्करणा

मैं कहीं भी रहूँ, प्रातः लघुकथा लिखने के बाद ही अपना कोई काम प्रारम्भ करता था। लेकिन यह लघुकथा सवेरे पूरी नहीं हो पा रही थी। उधर दुकान पर जाने का वक्त हो चुका था। बेटे के आग्रह पर मैं दुकान पर गया तो लेकिन लघुकथा को लेकर परेशान था। अनेक-अनेक ड्राफ्ट मेरे मन-मस्तिष्क में आते और बिखर जाते। खैर, लंच का समय आते-आते लघुकथा ने दिमाग में ऐसा आकार लिया, जिससे मुझे सन्तु्ष्टि हुई और घर जाकर लंच करने से पूर्व इसे लिपिबद्ध किया।

सत्या कीर्ति शर्मा

महीनों पहले की यह यह घटना मैं नहीं भूली, इसे मैं संस्मरण की रूप में लिखना चाहती थी, किन्तु 2017 में यह लघुकथा में ढली। प्ररम्भ में यह आत्मकथ्यात्मक शैली में थी, जिसे बाद में बदला।

सविता इंद्र गुप्ता

सन्तोष न मिला क्योंकि लघुकथा में आकारगत लघुता भंग होती दिखाई दी। लघुकथा का मूल स्वर भी धूमिल होता लगा, उद्देश्य भी तीव्रता से प्रेषित नहीं हो पा रहा था। कुल मिलाकर यह ड्राफ्ट सन्कुचित सा और केवल अपना अनुभव ही प्रतीत हो रहा था। इसे मैंने निर्दयता से डिलीट कर दिया।

सविता उपाध्याय

लघुकथा में दो पात्र हैं, एक महिला शिक्षित तो दूसरी अशिक्षित है। ऐसी परिस्थिति में महिला – महिला ही से प्रताडित होती है। इस बुराई को हटाने हेतु यह सृजन किया गया।

सिद्धेश्वर

पहले ड्राफ्ट में रचना में स्वयं को पात्र के रूप में प्रस्तुत किया था, बाद में यह विचार आया कि एक गरीब मछुआरे को ‘मैं’ की जगह रखा जाए तो रचना सर्वव्यापी और प्रभावकारी बन जायेगी।

सीमा जैन

नियम व संवेदना दो अलग-अलग पहलू हैं पर बुरी तरह मिल गये हैं। यही सोच कर इस रचना के कथानक और पात्र का सृजन हुआ। एक धर्म – मानवता को केन्द्र में रखकर घास पर पैर रखते हुए भी संवेदना का आना, चींटी तक की जान बचाने की निगाह-नीयत तो होनी ही चहिए।

सीमा भाटिया

धारा 497 समाप्त होने के बाद सोशल मीडिया पर फैले भ्रामक विचारों को पढ़ने के बाद इस लघुकथा का विचार उत्पन्न हुआ। शादीशुदा महिला के उसकी रजामंदी से हुए सम्बन्ध पर बने विभिन्न चुटकुलों वगैरह ने मन को आहत किया और इस रचना के सृजन हेतु प्रेरित किया।

सुकेश साहनी

लघुकथा के समापन बिन्दु पर ही रचना अपने कलेवर के मूल स्वर को कैरी करती हुई पूर्णता को प्राप्त होती है। लघुकथा रचना करते समय लेखक को आकारगत लघुता और समापन बिन्दु को ध्यान में रखते हुए ही ताने-बाने बुनने होते हैं। कभी एक ही संवाद पात्र से कहलवा देने भर से ही उद्देश्य पूर्ण हो जाता है। तब यही एक संवाद समापन बिन्दु और आकारगत लघुता तक रचना को ले आता है। लेकिन इसके लिए गूढ विचार की ज़रूरत है। तत्काल प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी गई रचना किसी मुकम्मल कृति का आनन्द नहीं देती। उनमें डेप्थ नहीं होती।

सुदर्शन रत्नाकर

यह विचारना, दिशा देना, मन की भट्टी में तपाना, सजाना ही रचना-प्रक्रिया है।

सुभाष नीरव

जो रचनाएं लौटती हैं, उसका कारण है कि मैं उन पर पर्याप्त श्रम नहीं करता। मेरी रचना प्रक्रिया में जबरदस्त परिवर्तन मेरे कुछ अच्छे मित्रों के कारण आया। अब जब मुझे कोई विचार, कोई घटना, कोई  भाव, कोई सन्देश, कोई दृश्य हॉण्ट करता है तो मैं उसे तुरन्त कागज़ पर उतारने की बजाय उसे अपने जेहन में सुरक्षित कर लेना बेहतर समझता हूँ और कुछ दिन उसे वहीं पड़ा रहने देता हूँ। अच्छी रचनाएं लेखक के धैर्य की परीक्षा भी लेती हैं और लेखक की रचना-प्रक्रिया को और अधिक मज़बूती प्रदान करती हैं, जिनसे लेकर वे निकली होती हैं।

सुभाष सलूजा

कथा देखकर कुछ मित्रों ने कहा कि यह अव्यवहारिक है, जबकि यह मेरे द्वारा प्रत्यक्ष देखा गया सत्य था।

सुभाषचन्द्र लखेड़ा

नेता का नाम बहुत सोचकर रखा, ताकि जाने-अनजाने ऐसा नाम न हो जो उस वक्त के किसी जाने-माने बड़े नेता का नाम हो। कवि के नाम में भी यही सावधानी बरती।

सुरिन्दर केले

लघुकथा में वैश्वीकरण के नाम पर हो रहे भ्रष्टाचार को बताया है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था कैसे केवल कुछ औद्योगिक घरानों को अमीर बना रही है और बाकियों के लिए नुकसानदेह है।

सूर्यकांत नागर

रचना प्रक्रिया नितांत निजी मामला है, इसे किसी नियमावली में नहीं बांधा जा सकता। रचना के मूल में कोई न कोई अनुभव होता है। कथाकार चिड़िया की चोंच की तरह परिवेश से अपने काम की चीज़ उठाकर अपने अंदर जज़्ब कर लेता है। यह रचना का पहला जन्म है। यह अनुभव लम्बे समय तक पकता रहता है, जब पूरी तरह पक जाता है तो एक आलार्म सा बजता है। यह रचना का दूसरा जन्म है। जब यह अनुभूति कागज़ पर उतरती है तो यह रचना का तीसरा जन्म है। जल्दबाजी रचनात्मकता की राह की बड़ी बाधा है और धैर्य महत्वपूर्ण निधि।

सोमा सुर

हम अपने ही बनाए नियमों में उलझे हैं। पीरियड्स की बात करना आज भी बदतमीज़ी माना जाता है। पंचलाईन में नायिका का यही दुख दिखलाया।

स्नेह गोस्वामी

कथा में बहुत कु्छ बिखरा हुआ था, न तो सिमट पा रहा था न ही कुछ जुड़। जितनी महिलाएं उस समय दिमाग में थीं, उन सभी के एंगल से पढ़ा। इसे सोचते हुए ही सोने चली गई। सवेरे फिर पढ़ा और हर पैराग्राफ से पहले टाईम ड़ाल दिया। यकीन मानिए, जो सुकून मिला वह अद्भुत था।

हरप्रीत राणा

मुझे डबलरोटी और अंडे लाने का निर्देश इस नसीहत के साथ मिला कि ये केवल हिन्दू की दुकान से खरीदूं, मुस्लिम की नहीं। मैंने विरोध किया और कहा कि भाई मरदाना जी भी तो मुस्लिम थे। मौसी ने उत्तर दिया लेकिन वे नानक साहब के साथ रहते हुए पवित्र हो गए थे। मैं फिर भी जानबूझकर मुस्लिम की दुकान से सामान खरीदकर लाया क्योंकि मैंने पवित्र गुरबाणी के उस मूलमन्त्र अनुसरण किया – ‘अव्वल अल्लाह नूर उपाया, कुदरत दे सब बंदे’। यह घटना मेरी इस लघुकथा का आधार बनी।

हूँदराज बलवाणी

एक दिन इस कथा को पकड़ कर बैठ गया। तरह-तरह के परिवर्तन किए, फिर भी संतोष नहीं हुआ। सोचते-सोचते सज्जन बुजुर्ग को नेतानुमा आदमी बना दिया, जिसका काम होता है वक्त-बेवक्त लोगों के बीच जाकर भाषण देना। ऐसे लोग खुद ही समस्या पैदा करते हैं और खुद ही निवारण का दिखावा। बाद में जो उन्हें वाह-वाही मिलती है उससे उन्हें संतुष्टि मिलती है। यह दर्शाने पर मेरी यह लघुकथा, बोधकथा बनने से बच गई।

खेमराज पोखरेल

यह रचना किसी पत्रिका में भेजने से पूर्व एक मित्र को भाषा-सम्पादन हेतु भेजी। समुचित सम्पादन के पश्चात ही लघुकथा को प्रकाशन हेतु भेजा।

टीकाराम रेगमी

सबसे पहले मैंने घटना की पृष्ठभूमि से सम्बद्ध घटनाओं को क्रमबद्ध किया। पहले और अन्तिम भाग को प्रभावशाली करने का प्रयास किया। इसमें शब्द बहुत सारे थे, इसलिये कई बार इसकी एडिटिंग की।

नारायणप्रसाद निरौला

लघुकथा का विषय सूझने के बाद, पहले अपने द्वारा बनाये गये पात्र की हकीकत की रूपरेखा तैयार की और मस्तिष्क में ही ड्राफ्ट बना डाला। इससे लाभ यह होता है कि प्रायः एक ही बैठक में लघुकथा पूरी हो जाती है।

 राजन सिलवाल

लिखते समय इस बात का ख्याल ज़रूर रहता है कि कैसे लघुकथा को रोचक और जीवंत बनाना है। ज्यादातर संवाद का प्रयोग करना पसंद करता हूँ।

राजू छेत्री अपूरो

जीजा-साली के पवित्र रिश्ते पर एक लघुकथा लिखने के लिए कई दिनों तक सोचा और एक दिन उपयुक्त समय देखकर लिखा और उसे सोशल मीडिया के एक समूह में पोस्ट कर दिया। मेरे एक मित्र ने इसका अनुवाद किया और शीर्षक बदल दिया। मुझे भी नया शीर्षक उत्तम लगा और मूल लघुकथा का शीर्षक भी वही रख दिया।

रामकुमार पंडित छेत्री

अक्सर लोग उंगली उसी की ओर उठाते हैं जिसका पिछ्ला रिकॉर्ड दुष्ट प्रवृत्ति का होता है। लेकिन क्या कभी उल्टा भी हो सकता है? भगवान कृष्ण की पूजा करते समय कृष्ण और कंस के प्रतीकों के माध्यम से यह बात कही।

रामहरि पौडयाल

कुछ दिन लघुकथा को मेरे लैपटॉप में रखे रहने देने के बाद उसे एक पत्रिका में प्रकाशन हेतु भेजा, जहां आवश्यक सम्पादन भी हुआ।

लक्ष्मण अर्याल

मैं सोचता था कि धर्म और भगवान की परम्परागत परिभाषाओं को बदलने की ज़रूरत है। बुद्ध इन्सान थे, अहिंसा के पुजारी गांधी भी एक दिन भगवान कहला सकते हैं। मानवता-धर्म और विवेक-इन्सानों के देवत्व पर इस लघुकथा का सृजन किया। अन्य लघुकथाओं की तरह ही इस लघुकथा ने भी अपने जीवन के दो साल मेरी डायरी में ही गुजार दिए।

उपरोक्त मेरे अनुसार पत्रिका में शामिल प्रत्येक रचनाकार की रचना प्रक्रियाओं में निहित कोई एक महत्वपूर्ण बिंदु है। मैं यह दावा नहीं करता कि इस लेख में बतलाई गईं सभी बातें उस रचनाकार की शामिल रचना प्रक्रियाओं की बेहतरीन बात है। मैंने मेरे अनुसार बेहतरीन के चयन का प्रयास अवश्य किया है, जिसमें कमी हो सकती है। लेकिन यह विश्वास ज़रूर दिला सकता हूँ कि सर्वोत्तम तो नहीं लेकिन ये बातें अच्छी और महत्वपूर्ण अवश्य हैं। इस पत्रिका में मेरी दो रचनाओं और उनकी रचना प्रक्रिया को भी स्थान मिला है। उनके बारे में इस लेख में कुछ नहीं कहा है। उसे आप पर छोड़ा है।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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