हिन्दी साहित्य ☆ श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆ डॉ भावना शुक्ल
श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’
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☆ हिन्दी साहित्य – श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ ☆ व्यक्तित्व एवं कृतित्व ☆
(आज ससम्मान प्रस्तुत है वरिष्ठ हिन्दी साहित्यकार श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर विमर्श डॉ भावना शुक्ल जी की कलम से। मैं डॉ भावना शुक्ल जी का हार्दिक आभारी हूँ ,जो उन्होंने मेरे इस आग्रह को स्वीकार किया। साहित्यिक एवं शैक्षणिक पृष्ठभूमि के साथ अपने बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री कृष्ण कुमार ‘पथिक’ जी हम सबके आदर्श हैं। )
जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, साहित्य साधक स्व। माणिकलाल चौरसिया के पुत्र, कवि स्व.जवाहरलाल ‘तरुण’ के अनुज स्वनाम धन्य श्री कृष्ण कुमार पथिक ने विरासत को सहेजा सँवारा और बढ़ाया है।
5 मई 1937 को जन्मे श्री पथिक जी ने साहित्य विशारद और शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर अध्यापन कार्य किया और सेवा निर्वृत हुए.
श्री पथिक जी ने सन 1960 के आसपास काव्य रचना प्रारंभ की और अपने विशिष्ट कृतित्व के कारण उन्हें मान्यता और प्रतिष्ठा मिलती चली गई स्थानीय पत्रों के अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं और आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई. जिन संकलनों में आपकी रचनाएँ प्रकाशित और संकलित हुई हैं उनमे सर्वश्रेष्ठ विरह गीत (संपादक नीरज जी), हिन्दी के मनमोहक गीत (संपादक विराट), युद्धों का आव्हान (डॉ सुमित्र), मिलन के कवि, चेतना के स्वर, स्वप्न गीत, मधु श्रंगार, मानसरोवर, प्रेम गीत, काव्यांजलि, पहरुए जाग उठे आदि.
भावुकता और बतरस के धनी श्री पथिक जी के संदर्भ में उनके काव्य ग्रंथ में कितना सटीक परिचय दिया गया है-
“काव्य की अराजकता के युग में भी पथिक ने अपने को छंदानुशासित रखा है जो उसकी परंपरा प्रियता और काव्य सामर्थ्य का प्रतीक है। पूजा और प्यार के इस गायक ने राष्ट्रीय भाव भूमि को भी स्पष्ट किया है।
पथिक जी का कुल कृतित्व परिमाण और गुणवत्ता की दृष्टि से विस्मय जनक है। प्रदेश की प्रतिभाओं का निष्पक्ष मूल्यांकन करने वाली दृष्टि पथिक का विस्मरण नहीं कर पाएगी।”
पथिक के गीत—-
वास्तव में श्री पथिक जी के कव्योन्मेष में छंदों के लिए अपरिचित लय ताल और शब्दों के नए संगीत सम्बंधों की गर्माहट मिलती है। जीवंत भाषा के व्यावहारिक स्वरूप को ग्रहण कर काव्य भाषा की ताजगी को संजोने का अविकल लगाओ भी मिलता है। कवि की व्यापक दृष्टि होने से उसमें शिल्प की समृद्धता भी परिलक्षित होती है। पथिक ने अपनी समस्त अनुभूति और प्रेरणा की पूंजी लेकर छंदों की अराजकता और विश्रंखलता के युग में सुलझेपन से सुगठित छंद विधान अपनाकर एक प्रौढ़ और विचारशील कवि व्यक्तित्व का प्रभावी परिचय दिया है। अभिव्यक्ति की अकुलाहट और नए अर्थ के लिए आंतरिक छटपटाहट ने इनके गीतों को ग्राह्य बना दिया है।
पथिक जी के गीतों में हमें संगमरमर शिल्प सौंदर्य के बीच प्रवाहित नर्मदा को चंचल किंतु संयमित धारा का श्रुतिमधुरनाद नयन मोहक रूप जाल और हृदयस्पर्शी भावोद्रेक भी मिलता है
” चरण चिह्न मिट चले चांद के
डूब चले हैं कलश किरण के
धूल प्रतिष्ठित हुई जहाँ कल
चर्चित थे चर्चे चंदन के.
मधुबन में पतझड़ ठहरा है
फूल खिलाओ हरसिंगार के.”
उपर्युक्त पद में अनुप्रास एक आनंद के साथ भावानुकूल भाषा प्रवाह भी है। बोधगम्यता है शब्दों में नगीनो-सा कसाव है।
पथिक जी ने काव्य और कथाओं को टकसाली सौंदर्य देने वाली मुहावरा बंदी का प्रयोग भी किया है।
” यात्रा जीवन की लंबी है
पांव थके पग दो पग चल के
उमरें अपावन, पावन कैसे
बोलो बिन गंगाजल के
भौतिक भ्रम पग-पग गहरा है
द्वार दिखाओ हरिद्वार के
अंधकार बेहद गहरा है
दीप जलाओ मीत प्यार के.”
सौंदर्य के प्रति अनुराग, तद्जन्य मानसिक तनाव और रूप आकर्षण के प्रति लगाव, पथिक जी की अभिव्यक्ति को सहज और विशिष्ट बनाते हैं।
“आह की अदालत में हारा यह मन
कुर्क किया अपनों ने अपना ही धन
काजल की कथा लिखी
हुई बड़ी भूल
प्रीति की पराजय पर
हंस पड़े बबूल
कदमों की कांवर को
कांधों पर लाद
यात्रा तय कर लेंगे
तुमको कर याद
तुमने जो दर्द दिया
मन को कुबूल
प्रीति की पराजय पर
हंस पड़े बबूल, ”
यहाँ “आह की अदालत” और “कसमों की कांवर” जैसे नए प्रतीक कवि की सूझबूझ के परिचायक है।
कवि नए अर्थों का अन्वेषी है। अछूती कल्पना की भाव भूमि को सफलता से मोड़ता चलता है ताकि कविता का पौधा पुष्टता ग्रहण करें। पीड़ा को धंधा मिले। प्यार में पूजा भाव की प्रतिष्ठा कर कवि अपनी उदात्त भावना का परिचय देता है।
” रास रंग राहों में,
नीलमी निगाहों में
गौर वर्ण हाथों पर
मेहंदी की छांहों में
हमने भाषा प्रणाम तेरा है।”
आज के यांत्रिक युग में जबकि व्यक्ति अपने सम्बंध विसर्जित करता जा रहा है गीतकार सम्बंधों की गंगा को शीश झुका रहा है।
“मन में फर्क ज़रा भी आए
ऐसी कोई बात न करना
अपनी रजत मयी पूनम पर
कभी अंधेरी रात न करना
परिचय से सम्बंध बड़े हैं
सम्बंधों को शीश झुकाना”
एक ओर तो कभी सम्बंधों को स्थिर रखने पर बल दे रहा है, दूसरी ओर वह यथार्थ परक दृष्टि भी रखता है…
“ठीक वहीं पर मन फटता है
वर्षों के सम्बंध टूटते
पीछे ने निबंध छूटते
आपस के झगड़े में तेरे
अपने ही आनंद लूटते
मान प्रतिष्ठा का घटता है
सौदा जिधर ग़लत पटता है।”
परिचय और प्रीति ही तो जीवन की शक्ति है। यदि यह दोनों को कुहासे से घिर जाएँ तब कभी यही कहेगा…
“हमने तो परिचय पाले पर तुमने भुला दिए
तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए
याद याद न रही
भ्रम में ऐसे भटक गए
रंग चुनरिया के कांटो
में जाकर अटक गए
बदले कौन जन्म के तुमने मुझसे भांजा लिए
तुम ही कहो भला ऐसे में कैसे प्रीत जिए.”
कवि पथिक की आंखों में सपने हैं किंतु यथार्थ से जुड़े हैं। कवि ने जीवन को संपूर्णता के साथ स्वीकार किया है।
“जीवन जो भी जिया उसे स्वीकार किया
बिखरे बिंब दरकते दर्पण
और अधूरे नेह समर्पण
तुमने जो दे दिया उसे स्वीकार किया
चंदन द्वारे वंदन वारे
सारी खुशियाँ नाम तुम्हारे
मुझे मिला मर्सिया, उसे स्वीकार किया
पाषाणों का स्वर अपनाया
तुमने मेरे द्वार बनाया
जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर
खंडित एक सांतिया, उसे स्वीकार किया
जीवन के संपूर्ण पृष्ठ पर
तुमने सारे रंग भर दिए
छोड़ दिया हाशिया, उसे स्वीकार किया।”
जीवन को नया मोड़ देने की आकांक्षा रखने वाला कवि, गहराई से चिंतन करता है और निष्कर्ष देता है…
“ज्योति यह कब तक जलेगी यह न सोचें
तिमिर भरते चलें हम
*
जब तलक यह उजाला है
दूरियों को पार करने
उम्र की क्षणिका अनिश्चित
बात हम दो चार कर ले
यात्रा कब तक चलेगी यह न सोचें
पाव भर धरते चलें हम …
पंडित श्रीबाल पांडे जी के शब्दों में “पथिक जी के गीत उन पहाड़ी स्रोतों के समान प्रवाहित होते हैं जिनके पत्थरों के दिल भी पसीजे रहते हैं। उनके गीत बंजारों की मस्ती और अंगारों की तड़पन लिए रहते हैं।”
विगत दिवस जबलपुर में पथिक जी के गीत संग्रह “पीर दरके दर्पणों की” का विमोचन हुआ। अतः यह स्पष्ट है की इनकी लेखनी आज भी गतिमान है हम इनके दीर्घायु होने की कामना करते हैं।
© डॉ.भावना शुक्ल
सहसंपादक…प्राची
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