हिन्दी साहित्य ☆ संस्मरण ☆ पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए  प्रसिद्ध।  मैं डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर’ जी का हृदय से आभारी हूँ जो उन्होंने मेरे आग्रह पर एक संस्मरण  ही नहीं  अपितु एक साहित्यिक एवं ऐतिहासिक दस्तावेज  ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों को साझा करने का अवसर दिया है।  इस सन्दर्भ में अनायास ही  स्मृति पटल पर अंकित  ई-अभिव्यक्ति पर  दिए गए  प्रख्यात साहित्यकार नामवर सिंह जी नहीं रहे शीर्षक से उनके निधन के दुखद समाचार की याद दिला दी। प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी  का एक पुण्य संस्मरण – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद । ) 

☆पुण्य स्मरण – स्व. प्रो नामवरसिंह – आलोचना के दिनमान से अनौपचारिक संवाद

स्व. प्रो नामवरसिंह
जन्म: 28 जुलाई 1926 (बनारस के जीयनपुर गाँव में)  निधन: 19 फरवरी 2019 (नई दिल्ली)

“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा”प्रो नामवरसिंह 

मेरे मन में बार-बार यही प्रश्न कौंधता रहा कि हर आने-जाने वाले से हमेशा साहित्य पर चर्चा कर कराके वे ऊबते न होंगे क्या? लोग उन्हें इसलिए सताते होंगे कि किसी

२ नवंबर १८ को आलोचना के दिनमान प्रोफेसर नामवरसिंह के सानिध्य की ऊष्मा के साथ-साथ उन्हें करीब से देखने-सुनने का सुअवसर प्राप्त हुआ था। वे २८ जुलाई को ९३ वर्ष के हो चुके थे। सांध्य वेला के दिनमान होते हुए भी दीप्त और प्रदीप्त थे। उनमें पर्याप्त ऊर्जा और ऊष्मा अब भी अवशिष्ट थी।

इन दिनों उनसे मिलने का समय लेना दुष्कर मानते हुए लोगों ने उनसे मिलने -जुलने का उपक्रम प्रायः छोड़ ही दिया था। इसके पीछे उनका स्वास्थ्य सबसे बड़ा कारण था या लोगों का स्वार्थ इस पर मौन रहना ही तब भी बेहतर था और आज भी बेहतर ही है ।

उन दिनों वे अकेले ही रहते थे। अवस्था के प्रभाव के कारण स्वास्थ्य की शिथिलता स्वाभाविक थी। लेकिन एकाकीपन भी उन्हें कम दुःख न देता होगा। जितनी देर वहां रहा यही सोचकर बहुत उद्विग्न रहा। रात का एकाकीपन उन्हें डराता भी होगा। उनके राग और वैराग्य के मध्य सम पर रहते हुए एक घंटा बिताया। विलंबित में हुए संवादों से रिसते रस ने ऐसा बांधा था कि जैसे एक घंटे में समूचा युग जी लिया हो।

मेरे जैसे क्या बड़े बड़ों तक के लिए उनसे मिलना एक व्यक्ति से नहीं एक दिशा दर्शक से मिलना होता रहा है. आलोचक से ही नहीं नए लोचन देने वाले से मिलना होता था. उनसे मिला तो सोचा था कि सताऊँगा नहीं लेकिन अंततः सता ही दिया।

लगे हाथ उनसे बाल साहित्य पर भी चर्चा कर डाली। बीसवीं सदी का महाकवि पूछ लिया। बीसवीं सदी के हिंदी के महाकवि पर उन्हें बोलने के लिए विवश किया तो जयशंकर प्रसाद और कामायनी के अनेकश: उल्लेख के बाद भी उन्होंने केवल निराला को ही महाकवि माना।इसके लिये उनका स्पष्ट मानना था कि कोई कवि अपनी रचना के शिल्प विधान से नहीं अपितु जनपक्षधरता से महाकवि बनता है। जायसीऔर तुलसी जैसे कवियों के विषय में कोई खतरा मोल न लेने के कारण मैंने जान-बूझ कर यह प्रश्न दागा था।बाल साहित्य पर उन्होंने कहा कि दुनिया के हर बड़े साहित्यकार ने लिखा है लेकिन छुटभैये उसे अछूता समझते हैं।कुछ बाल साहित्यकारों के एक दो नाम उन्होँने लिये तो कुछ नाम मैंने भी गिनाए। मेरे द्वारा लिए गए बहुत से नामों का विरोध भले उन्होंने नहीं किया लेकिन मुझसे सहमत से नहीं लगे। वे नाम यहाँ और खासकर इस अवसर पर लेना उचित न मानकर छोड़ रहा हूँ। आचार्य दिविक रमेश जी को बाल साहित्य में मिले साहित्य अकादमी को उन्होँने शुभ लक्षण माना। लेकिन गिने-चुने को छोड़कर शेष साहित्यकारों द्वारा की जा रही वर्तमान में बाल साहित्य की उपेक्षा को उन्होंने स्वस्थ वृत्ति नहीं माना। उन्हें ईश्वर जैसे विषय पर उन पर छिड़े विवाद पर प्रश्न पर प्रश्न करके विचलित करना या कुछ उगलवाना किसी भी दृष्टि से उन पर मेरे द्वारा किए गए अत्याचार से कम न था। फिर भी उन्होंने असंयत हुए बिना हर प्रश्न का यथासंभव समाधान किया था।

प्रतिष्ठित पत्रिका में स्थान मिल जाएगा। लेकिन इस बात का ध्यान उन्हें शायद ही रहता होगा कि इस अवस्था में अब उन्हें बोलने का कष्ट कम ही दिया जाए तो अच्छा है।

आलोचना के किंबदंती पुरुष बन जाने के बाद हर कोई उनसे कुछ न कुछ कबूलवाना चाहता रहा है। साहित्यकार भी टी वी के पत्रकारों की तरह क्यों सबसे पहले और सबसे नया के चक्कर में पड़ा हुआ रहता है । वह भी क्यों इसी फिराक में रहता है कि किसी तरह चर्चा में आए । शायद इसी लिए कि वह किसी को भी शहीद करके अपना लक्ष्य साध सके। यह अवमूल्यन अखरता ही नहीं बरछे की तरह भीतर धंसता चला जाता है।

मैं सोचता हूँ कि क्या साहित्यकार भी व्यापारी नहीं होता जा रहा है। जो इन जैसे व्यक्तित्वों और अन्य बुजुर्गों को प्रश्न पूछ-पूछ कर तंग करते हैं । इसके साथ यह भी सोचता हूँ कि क्या इन्होंने अपनी जवानी में खुद भी यह व्यापार न किया होगा? क्या भारतीय संस्कृति के भीतर के राग रंग इन्हें न रुचते रहे होंगे जिन्हें हठात न मानकर साम्यवाद की कंठी बाँधी थी. लेकिन इन तर्कों के बल पर उन्हें सताना मुझे बोझिल करता रहा था। पापी बनाता रहा था।

इनके साम्यवादी ताप और प्रताप का सूर्य अब तक पूरी तरह से ढल चुका था। इनके लिए कभी दो कौड़ी के रहे भारतीय जीवन दर्शन के जन्म-मरण और ईश्वर जैसे विषय अब इन्हें ख़ुद बहुत रास आ रहे थे। तभी तो इन्होंने एक घंटे की बातचीत में कई बार दुहराया कि -“न तन होगा न मन होगा । मरेंगे हम किताबों पर, बरक अपना कफ़न होगा.”

इनसे बातचीत के समय मैं इस निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाया कि लोग इन्हें विभिन्न विश्वविद्यालयों में और अन्य जगहों पर भी हिंदी पदों के नियोक्ता जगत का अधिनायक क्यों मानते रहे हैं? इन्होंने पक्षपात किया भी होगा क्या? यदि ऐसा होता तो कोई न कोई गुरुभक्त ऐसा होता जो इनकी इनकी सेवा में तब भी आता-जाता होता जब वे मदद की बेहद ज़रूरत महसूस करते थे। ऐसे बहुत सारे उदाहरण मैं जानता हूँ जहाँ अयोग्य और योग्य के भेद से परे परम हंस सम रहकर उपकार किए गए। उनमें से एकाध लायक भी निकले जो आज भी अपने-अपने गुरुदेवों की सेवा करते -कराते देखे पाये जाते हैं। लेकिन इनके यहाँ ऐसा कुछ भी क्यों नहीं था? शायद उस कोटि का उपकार इनके द्वारा न किया जा सका होगा।

एक घंटे में ही उनके मुख मण्डल की श्यामल आभा निराला की संध्या सुंदरी के कंधे पर हाथ धरे आत्मीयता की सजलता भरे वैचारिक मेघों वाले आसमान से धीरे-धीरे उतरती हुई मेरे मानस पटल पर छविमान होती हुई अंतस तक उतर गई थी। संकोच दूर हुआ तो ऐसी छनी कि जैसे दो अंतरंग लंबे अंतराल पर मिले हों।आलोचना के दिनमान से यह अनौपचारिक संवाद मुझे आज भी ऊष्मित कर रहा है।

मेरे रहते उनका वीरान -सा घर और न कोई फोन न संवाद मुझे डराता रहा था। दो-दो संतानों के बावज़ूद बस एक समय खाना बनाने आने वाली के अलावा किसी अन्य मददगार का न होना न जाने क्यों मुझ जैसे गैर को भी डरा रहा था। पर,उनके अपने इतने निश्चिंत क्यों थे। यह बात मेरी समझ से परे थी। मेरे मन में बार-बार आ रहा था कि अगर बाथरूम में गिर गए तो कौन उठाएगा इन्हें। अस्पताल कौन ले जाएगा। बहुत संभल-संभल के चलते थे पर सीधे नहीं चल पाते थे। गौरैया की तरह फुदक-फुदक के चलना उनकी कला नहीं विवशता थी ।अटैक तो अपने बस में था नहीं। उसके लिये तो इस अवस्था में अकेले रहना खतरों से खेलना था। यह खेल वे अपने अन्तिम दिनों में भी खेल रहे थे।

उस दिन जीवन के सबसे बड़े और अनिवार्य सत्य मृत्यु के सन्निकट देखने के बावज़ूद मैं उन्हें अस्ताचल का सूर्य नहीं मान पा रहा था.

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

सूरत,  गुजरात