हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆ कथा-कहानी ☆ नेत्रार्पण ☆ हेमन्त बावनकर
हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है एक कहानी “नेत्रार्पण” जो वास्तविक घटना पर आधारित है।)
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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 6 ☆
☆ कथा कहानी – नेत्रार्पण ☆
समय बीतते समय ही नहीं लगता। आज अर्पणा दीदी की पहली बरसी है। पंडित जी ने हवन कुंड की अग्नि जैसे ही प्रज्ज्वलित की अंजलि अपनी आँखों को अपनी हथेलियों से छिपाकर ज़ोर से बोली – “बुआ जी। हवन की आग से मेरी आँखें जल रही हैं। और वह दौड़ कर मुझसे लिपट गई।
सबकी आँखें बरबस ही भर आईं। माँजी तो दीदी को ज़ोर से पुकार कर रो पड़ीं। अंजलि ने मेरी ओर सहम कर देखा। उसकी करुणामयी याचना पूर्ण दृष्टि मुझे गहराई तक स्पर्श कर गई। उसके नेत्रों की गहराई में छिपी वेदना ने मेरी आँखों में उमड़ते आंसुओं को रोक दिया। ऐसा लगा कि- यदि मेरी आँखों के आँसू न रुके तो अंजलि अपने आप को और अधिक असहाय समझने लगेगी। और उसकी इस असहज स्थिति की कल्पना मात्र से मुझे असह्य मानसिक वेदना होने लगी।
अंजलि की आँखें पोंछते हुए उसे अपने कमरे में ले जाती हूँ। कमरे में आते ही वह मुझसे लिपट कर रो पड़ती है। मैं भी अपनी आँखों में आए आंसुओं के सैलाब को नहीं रोक सकी।
जब अंजलि कुछ शांत हुई तो उसे पलंग पर बैठा कर दरवाजे के बाहर झाँककर देखा। माँजी, भैया, भाभी और निकट संबंधी पूजा-अर्चन में लगे हुए थे। भैया की दृष्टि जैसे ही मुझपर पड़ी तो उन्होने संकेत से समझाया कि मैं अंजलि का ध्यान रखूँ। मैं चुपचाप दरवाजा बंद कर अंजलि की ओर बढ़ जाती हूँ।
अंजलि की आँखें अधिक रोने के कारण लाल हो गईं थी। उसकी आँखें पोंछकर स्नेहवश उसके कपोलों को अपनी हथेलियों के बीच लेकर कहती हूँ- “अंजलि! देखो, मैं हूँ ना तुम्हारे पास। अब बिलकुल भी मत रोना।“
“बुआ जी, मेरा सिर दुख रहा है।“
“अच्छा तुम लेट जाओ, मैं सिर दबा देती हूँ।“
अंजलि अपनी पलकें बंद कर लेटने की चेष्टा करने लगी। मैंने देखा कि उसका माथा गर्म हो चला था। धीरे-धीरे उसका सिर दबाने लगती हूँ ताकि उसे नींद आ जाए। सिर दबाते-दबाते मेरी दृष्टि अर्पणा दीदी के चित्र की ओर जाती है।
वह आज का ही मनहूस दिन था, जब दीदी को दहेज की आग ने जला कर राख़ कर दिया था। विवाह हुए बमुश्किल छह माह ही तो बीते थे। आज ही के दिन खबर मिली कि अर्पणा दीदी स्टोव से जल गईं हैं और अस्पताल में भर्ती हैं। माँजी तो यह सुनते ही बेहोश हो गईं थी।
उस दिन जब मृत्यु शैया पर दीदी को देखा तो सहसा विश्वास ही नहीं हुआ कि ये मेरी अर्पणा दीदी हैं। हंसमुख, सुंदर और प्यारी सी मेरी दीदी। दहेज की आग ने कितनी निरीहता से दीदी के स्वप्नों की दुनियाँ को जलाकर राख़ कर दिया था। सब कुछ झुलस चुका था। उस दिन मैंने जाना कि जीवन का दूसरा पक्ष कितना कुरूप और भयावह हो सकता है।
अचानक खिड़की के रास्ते से आए तेज हवा के झोंके से मेरी तंद्रा टूटी। मैंने देखा अंजलि सो गई है। किन्तु, पलकों के भीतर उसकी आँखों की पुतलियाँ हिल रही हैं। ठीक ऐसे ही आँखों की पुतलियों की हलचल उस दिन मैंने दीदी की पलकों के भीतर महसूस की थीं। डॉक्टर ने उन्हें नींद का इंजेक्शन दे कर सुला दिया था। किन्तु, उनकी पलकों के भीतर पुतलियों की हलचल ऐसे ही बरकरार थीं। चिकित्सा विज्ञान में इस दौर को रिपीट आई मूवमेंट कहा जाता है। अनुसंधानकर्ताओं का मत है कि- मनुष्य इसी दौर में स्वप्न देखता है। वे निश्चित ही कोई स्वप्न देख रहीं थीं। कोई दिवा स्वप्न? न जाने कौन सा स्वप्न देखा होगा उन्होने?
मैं उठकर मेज के पास रखी दीदी की कुर्सी पर बैठ जाती हूँ। डायरी और पेन उठाकर मेज पर रखी दीदी की तस्वीर में उनकी आँखों की गहराई की थाह पाने की अथक चेष्टा करती हूँ। दीदी ने अपने जीवन का अंतिम एवं अभूतपूर्व निर्णय लेने के पूर्व जो मानसिक यंत्रणा झेली होगी, उस यंत्रणा की पुनरावृत्ति की कल्पना अपने मस्तिष्क में करने की चेष्टा करती हूँ तो अनायास ही और संभवतः दीदी की ओर से ही सही ये पंक्तियाँ मेरे हृदय की गहराई से डायरी के पन्नों पर उतरने लगती हैं।
सुनो!
ये नेत्र
मात्र नेत्र नहीं
अपितु,
जीवन-यज्ञ-वेदी में
तपे हुये कुन्दन हैं।
मैंने देखा है,
नहीं-नहीं
मेरे इन नेत्रों ने देखा है
एक आग का दरिया
माँ के आंचल की शीतलता
और
यौवन का दाह।
विवाह-मण्डप
यज्ञ-वेदी
और सात फेरे।
नर्म सेज के गर्म फूल
और ……. और
अग्नि के विभिन्न स्वरुप।
कंचन काया
जिस पर कभी गर्व था
मुझे
आज झुलस चुकी है
दहेज की आग में।
कहां हैं ’वे’?
कहां हैं?
जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान
हाथ थामा था
फिर
दहेज की अग्नि दी
और …. अब
अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।
बस,
एक गम है।
सांस आस से कम है।
जा रही हूँ
अजन्में बच्चे के साथ।
पता नहीं
जन्मता तो कैसा होता?
हँसता ….. खेलता
खिलखिलाता या रोता?
किन्तु, मां!
तुम क्यों रोती हो?
और भैया तुम भी?
दहेज जुटाते
कर्ज में डूब गये हो,
कितने टूट गये हो?
काश!
…. आज पिताजी होते
तो तुम्हारी जगह
तुम्हारे साथ रोते!
मेरी विदा के आंसू तो
अब तक थमे नहीं
और
डोली फिर सज रही है।
नहीं …. नहीं।
माँ !
बस अब और नहीं।
अब
ये नेत्र किसी को दे दो।
दानस्वरुप नहीं।
दान तो वह करता है,
जिसके पास कुछ होता है।
अतः
यह नेत्रदान नहीं
नेत्रार्पण हैं
सफर जारी रखने के लिये।
और अंत में वह तारीख 2 दिसम्बर 1987 भी डायरी में लिख देती हूँ ताकि सनद रहे और वक्त बेवक्त हमें और आने वाली पीढ़ी को वह घड़ी याद दिलाती रहे।
और फिर सफर जारी रखने के लिए दीदी कि अंतिम इच्छानुसार एक अनाथ एवं अंधी बच्ची को नेत्रार्पित कर दिये गए। वह प्रतिभाशाली अनाथ बच्ची और कोई नहीं अंजलि ही है जिसे भैया-भाभी ने गोद ले लिया।
किन्तु, जो नेत्र जीवन-यज्ञ-वेदी में तपकर कुन्दन हो गए हैं, वे आज धार्मिक अनुष्ठान की अग्नि से क्योंकर पिघलने लगे? नहीं ….. नहीं। संभवतः यह मेरा भ्रम ही है।
निश्चित ही दीदी की आत्मा हमें अपनी उपस्थिति का एहसास दिला रही होंगी। दीदी के नेत्र और नेत्रार्पण की परिकल्पना अतुलनीय एवं अकल्पनीय है। किन्तु, दीदी की परिकल्पना कितनी अनुकरणीय है इसके लिए आप कभी अकेले में गंभीरता से अपने हृदय की गहराई में अंजलि की खुशियों को तलाशने का प्रयत्न करिए। आज अंजलि, दीदी के नेत्रों से उन उँगलियों को भी देख सकती है जिससे वह कभी ब्रेल लिपि पढ़ कर सृष्टि की कल्पना किया करती थी। आप उन उँगलियों की भाषा नहीं पढ़ सकते, तो कोई बात नहीं। किन्तु, क्या आप अर्पित नेत्रों का मर्म और उसकी भाषा भी नहीं पढ़ सकते?
© हेमन्त बावनकर