श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है बातों बातों में ही एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “बात का बतंगड़”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 5 ☆
☆ बात का बतंगड़ ☆
निष्ठावान होते हुए भी चमनलाल जी अक्सर उदास रहते कि उनकी पूछ – परख कम होती है । जो भी काम करते उन्हें घाटा होता है तो वहीं उनके परम मित्र शिकायती लाल जी भी यही रोना रोते कि उनको परिश्रम का फल नहीं मिल रहा है । चौपाल पर बैठे धरमू लाल जी और लोगों के आने की राह देख रहे थे तभी उनका पोता सोनू आया , उसने पूछा – “बाबा चैली कहाँ रखी है ?”
उन्होंने कहा – “क्या करोगे ?”
“बाबा दादी को सुलगानी है कह रहीं थीं, पूस निकल जाए तो बुढ़ऊ और एक बरस जी जाय।”
ठेठ बघेली में उन्होंने कहा- “कहि देय लुआठी जलाय लेंय, कल लाय के देव चैली ।”
धरमू लाल जी मन में बुदबुदाते हुए बोले – “कउनउ चेली त मिलबय नहीं करय या बुढ़िया और आगी लगावत ही।”
तभी किशोर चन्द्र जी आ गए, उन्होंने मिली – जुली बोली में कहा- “अपना सुनन बकरी और शेर के किस्सा – अभी तक तो शेर और बकरी एक घाट में पानी पी लें उतना ही सुना था अब शेर को बकरी खा गयी चारो ओर हल्ला हो रहा है ।”
“अब का करी किशोरी कलयुग है कौन किसको खा ले पता ही नहीं चलता । जिसकी लाठी उसकी भैस । पहले तो बड़ी मछली छोटी को खाती थी अब तो बड़े- छोटे का लिहाज बचा ही नहीं । पहले मर्यादा पुरुषोत्तम राम के गुणगान होते थे अब तो राम शब्द राजनीति का अखाड़ा बन गया है । कहते हैं राम का नाम लेकर नल नील ने त्रेता युग में सागर बाँध दिया और हम कि उन्हें टेंट में बैठाये हुये मंदिर निर्माण की प्रतीक्षा में हैं।”
“अरे छोड़ो धरमू इन सब से आम आदमी को क्या लेना देना उसे तो दो जून की रोटी मिले बस इतना ही बहुत था कुछ बरस पहले तक । पर अब तो स्मार्ट फोन भी चाहिए आखिर इक्कसवीं सदी के गरीब का भी तो कोई रुतबा होना चाहिए।”
किशोरी लाल जी मुस्कुराते हुए बोले “जियो ने तो जिया दिया, अब दाल रोटी का और जुगाड़ हो जाय तो आराम से बैठो और रोटी तोड़ो । पाँच बरस में एक बार अच्छी सरकार बना दो और चैन की बंशी बजाओ।”
“अरे बंशी नहीं दिखायी दिया सुना है बालीबुड में सपने पूरे करने गया है।” तभी और लोग भी चर्चा में सम्मलित होने के लिए एकत्र हो गए ।
आज तो चौपाल अपने पूरे रंग में थी पास में अलाव जला लिया गया । गाँव के सबसे बुजुर्ग कक्का जी अपनी अनुभवों की गठरी से एक रोचक किस्सा सुनाने लगे कि कैसे मैट्रिक में उन्होंने अपने गाँव का और प्रदेश का नाम रोशन किया, ये किस्सा जब तब न जाने कितनी बार सुना चुके थे पर लोग भी हर बार ऐसे सुनते जैसे पहली बार हो ।
किस्सा वही लालटेन में पढ़ने से शुरू होता और खेत – खलियान में काम करते हुए गुड़ की डली और मटर की फली पर पूरा होता । बात इतनी लंबी खिचती कि जब तक काकी की याद में आँसू न बह जाए तब तक कक्का जी बोलते रहते फिर धीरे से अपने गमछे से आँसू पोछते हुए लाठी टेकते हुए चल देते राम ही राखे कहते हुए ।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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