श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’
( श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है एक प्रेरणास्पद लघुकथा “आग के मोल”।)
☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 9 ☆
☆ आग के मोल ☆
“आभा, अपने बच्चों पर ध्यान दिया करो! न तो बचपन में दिया और न ही अब दे रही हो!” सास ने गुस्से में कहा।
“माँ जी, क्या राजुल सिर्फ मेरा बेटा है! आपका भी तो पोता है ना! बाबूजी का भी और आर्यन का तो बेटा है ना! फिर सभी मुझसे क्यों आशा करते हैं? सभी को उसका ध्यान रखना चाहिए!”
आभा सुबह उठकर सभी का नाश्ता और लंच तक का ध्यान रखती और घर के जितने भी काम सभी निपटाती। इसी आपा- धापी मे कब दोपहर हुई कब शाम, उसे पता ही नहीं चलता था।
अभी सासू माँ ने अर्णव का मासिक मूल्यांकन देखा तो उन्होंने आभा से यह शिकायत कर दी और आभा ने गुस्से में जबाब भी दे दिया पर अब पछता रही थी। माँ जी को उसने कभी पलटकर जबाब नहीं दिया था। उसने मन ही मन कुछ निर्णय लिया और अर्णव को बुलाकर पास में बैठाकर बोली,” बेटे, मैं आपको आज से समय मिलते ही पढ़ाया करुँगी।”
अर्णव ने हाँ में सिर हिलाया और दौड़कर खेलने भाग गया।
आभा सभी काम से फुरसत हो अर्णव को आवाज देने लगी तभी सासू माँ बोली, “आभा, जरा एक बाल्टी पानी धूप में रख दो। ठंडक छूट जायेगी तो नहा लेती हूँ।” बुजुर्ग होने के कारण वे हर काम आराम से करती थी।
अभी आभा ने बेटे को बुलाया और तुरन्त माँ जी की फरमाइश शुरु हो गई।
आभा को क्रोध आ गया पर कोई फायदा नहीं। यही दिनचर्या चलती रही आभा को समय ही नहीं मिल पाता बेटे को पढ़ाने के लिये।
पतिदेव चाहते तो पढ़ा सकते थे पर सारी जिम्मेदारी आभा पर लाद दी गई थी। एक तरफ पढ़ाई की चिंता दूसरी तरफ बेटे का भविष्य, आभा को ये सभी आग के मोल लग रहा था।
बढ़ती उमर का बेटा घर की सारी जिम्मेदारी आभा को आग का मोल ही लग रही थी। सेवा में कमी तो बड़े नाराज और काम की अधिकता से बेटे से बेपरवाह का खिताब । ये सब आग के मोल के समान ही हो गये थे।
मगर आभा कब तक बेपरवाह रह सकती थी। एक दिन सुबह माँ जी जब रसोई में गई तो एक अपरिचित महिला रसोई में आभा का हाथ बंटाती दिखी। कुछ देर बाद घर के अन्य कार्यों में भी वह मदद करती नजर आई तो माँ जी से रहा नहीं गया, “ये कौन है?”
“माँ जी, ये ललिता है। आज से मैंने इसे घर के कामों में अपनी मदद के लिए रख लिया है ताकि मैं बेटे पर ध्यान देने के लिए समय निकाल सकूँ।”
“क्या! लेकिन इतने पैसे…!”
“चिंता न करें माँजी, मैंने पूरा बजट बनाकर ही इसे रखा है। कुछ बेकार के खर्च कम करके हम अपना बजट यथावत रख सकते हैं। माँ जी, आग के मोल चुकाने से बेहतर मुझे यही रास्ता लगा।” कहती हुई आभा बेटे को पढ़ाने के लिए मुस्कुराती हुई कमरे में चली गई।
© श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि ‘
अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश