हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆ हास परिहास ☆ – श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एकअतिसुन्दर व्यंग्य रचना “हास परिहास”। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 2 ☆
☆ हास परिहास ☆
मोबाइल को चार्ज पर लगा चैटिंग का आनन्द उठा ही रही थी तभी अचानक से बैटरी लो का संकेत हुआ और जब तक मैं कुछ समझती मोबाइल एक मीठी सी आवाज़ के साथ ऑफ हो गया । अब तो एक बेचारगी की स्थिति हो गयी , तभी ध्यान आया कि अपने पड़ोसी से मुलाक़ात की जाए जो फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते अरे भई पत्रकार जो ठहरे कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ज्यादातर तो टी. व्ही. के सामने ही देखा जाता है उनको ।
फोन पर वे किसी को बड़े प्यार से समझा रहे थे, यह सर्वोत्तम है किन्तु अधिक व्यक्ति होने से एवं समय कम होने से ही बिना नाम के देने पड़े, भविष्य में नाम वाले प्रतीक चिन्ह देंगे।
तभी फोन के दूसरी ओर से किसी ने कहा हमें इतनी खुशी न दें कि हम बर्दाश्त ही न कर सकें , चेहरा तो फिर पीलिया से ग्रसित दिखने लगा पत्रकार महोदय का, मैंने धीरे से टोकते हुए कहा कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?
उन्होंने हाथ के इशारे से मौन रहने का संदेश दिया सो मैंने चुप रहने में ही भलाई समझी ।
फोन पर वार्तालाप को विराम देते हुए उन्होंने कहा आप दो चार कविता सुना ही दीजिए कुछ समस्याओं का हल भी मिल जाएगा । फेसबुक में पढ़ा कि आपको कोई सम्मान मिला है, कोई अधिकारी बन गयीं हैं आप ।
बुझे मन से मैंने कहा हाँ जब तक कोई शिरा न खींच दे , मणि तो आप सब हैं मैँ तो एक शिरा हूँ दूसरे शिरे पर लोग पदों को छीनने के लिए लालायित बैठे हैं ।
मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा “ऐसे ही लोगों के लिए क्या खूब कहा गया है –
जब भगवान दे खाने को
जाए कौन कमाने को
मैंने कहा भगवान से खजूर और ताड़ी याद आ गयी…..
अब खजूर पे मत चढ़ा देना मुझको । वो मिसेज शर्मा भी तो काव्य पाठ करतीं हैं एक कार्यक्रम में देखा था, वहाँ तो बिल्ला लगाएँ थीं, मुझे देखा तो मुस्कुराकर अभिवादन किया मेरा, वहाँ पर काव्य पाठ वीर रस से शृंगार रस तक पहुँच गया, श्रोता भी गजब के थे, तालियों की गड़गड़ाहट से पूरा पंडाल गूंज उठा, एक कवि की कल्पना तो देखिए उसने कहा ताड़ के नीचे खड़ा कर देंगे, ताड़ी का मजा मिलेगा ।
उन्होंने बात को बदलते हुए कहा आपकी बड़ी दीदी को संरक्षिका होना चाहिए काव्य सम्मेलन का । हम कब तक पुरानी यंग लेड़ी की वापसी का इन्तज़ार करेंगे, बहुत ही सुस्त व भयंकर कामचोर हैं अभी तक डॉकूमेंट भी नहीं भेजा चलिए कोई बात नहीं, व्यंग्य लिखने हेतु टॉपिक ढूंढ रहे थे मिल गया पत्रकार महोदय ने कुटिल मुस्कान बिखेरते हुए कहा । आप भी मेरे अखबार में जुड़ जाइए खूब काव्य रचनाएँ प्रकाशित होंगी ।
अपने दो चार व्यंग्य दे दीजिए, काव्यपाठ के बीच- बीच में हास परिहास के काम आएंगे जब श्रोताओं का मन भटका तो उनको रोकने के लिए सुना दिया करेंगे , लोग भी कमाल के होते हैं कविता से तो ऊब जाते हैं पर हास्य मिश्रित चुटकुले को सर आँखो पर लेते हैं अब कौन पूँछे कि अमा कविता सुनने को आए थे आप या यूं ही गम ग़लत करने को तशरीफ का टोकरा लेकर हाज़िर हो गए ।
पत्रकार महोदय ने फिर बात बदलते हुए कहा किसी और को ढूंढ लीजिये वरना मेरा तो …… मंत्र है ही ।
बने रहो पगला
काम करेगा अगला ।
अनुभवी लोगों का सूत्र है ये , अरे कुछ देर पहले ताड़ी की बात निकली थी आप कैसे जानती हैं ?
क्या आपके यहाँ निकाली जाती है ?
संभव तो नहीं है पर कहावतों के बिना कोई बात प्रभावी होती ही नहीं सो बीच – बीच में फिट कर देती हूँ मंद- मंद मुस्कुराते हुए कहा ।
चलो कुछ तो टाइम पास हुआ अब चलती हूँ मोबाइल भी चार्ज हो गया होगा ।
बहन जी तो अभी तक क्या सत्संग हो रहा था ।
अरे वो ताड़ी की बात याद आई हमारे इलाके में
बरसात में खूब बिकती है।
पढ़ती तो हमेशा थी आपका लिखा व्यंग्य पेपर में पर अब देख रही हूँ बात- चीत में भी आप बख़ूबी कटाक्ष करते हैं ।
व्यंग्य माला निकल जायेगी, कहिए तो अपनी संस्था में बात करूँ मैंने कहा । शुभकामना पत्र पर , अलंकारिक भाषा में आप लिख लेना मेरी तरफ़ से , सिग्नेचर मैं कर दूंगी मुस्कुराते हुए मैंने कहा । चलते- चलते चंद पंक्तियाँ सुना ही देती हूँ , वो कहते हैं न जहाँ भी मौका मिले काव्यज्ञान देने से नहीं चूकना चाहिए…….
गीतिका जो कवि रचे , संगीत सँग मधुहास हो ।
नेह रंग में रंग सभी, करते चलें परिहास हो ।।
भावनाओं को समेटे, मान अरु सम्मान नित ।
वक्त चाहें कुछ रहे, छाया नवल उत्साह हो ।।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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