हिन्दी साहित्य ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 4 ☆ बूढ़ा फकीर ☆ हेमन्त बावनकर

हेमन्त बावनकर

(माँ सरस्वती तथा आदरणीय गुरुजनों के आशीर्वाद से “साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति” लिखने का साहस/प्रयास कर रहा हूँ। अब स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। इस आशा के साथ ……

मेरा परिचय आप निम्न दो लिंक्स पर क्लिक कर प्राप्त कर सकते हैं।

परिचय – हेमन्त बावनकर

Amazon Author Central  – Hemant Bawankar 

अब आप प्रत्येक मंगलवार को मेरी रचनाएँ पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है मेरी एक रचना “बूढ़ा फकीर”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति #4 

☆ बूढ़ा फकीर  ☆

बूढ़ा फकीर

बूढ़ा फकीर ही होता है।

जो फकीर

फकीर नहीं होता

वो फकीर हो ही नहीं सकता।

 

उसकी न कोई जात होती है

न उसका कोई मजहब ही होता है

और

यदि उसके पास कुछ होता है

तो वो उसका ईमान ही होता है।

 

मस्तमौला है वो

फक्कड़ है वो

कुछ मिला तो भी खुश

कुछ ना मिला तो भी खुश।

 

एक दिन देर शाम

बूढ़े फकीर ने

अपनी पोटली से दो रोटियाँ निकाली

एक रोटी दे दी

दौड़ कर आए कुत्ते को

और

दूसरी रोटी खा ली।

कटोरे का थोड़ा पानी खुद पी लिया

और

थोड़ा पिला दिया

दौड़ कर आए कुत्ते को।

 

एक इंसान दूर खड़ा देख रहा था

तमाशा

बड़े अचरज से

नजदीक आ कर पूछा

“बाबा …..?”

 

बूढ़े फकीर ने टोकते हुए कहा –

“जानता हूँ क्या पूछना चाहते हो?

ऊपर वाले ने

पेट सबको दिया है

और रोटी पानी पर

हक भी सब को दिया है।“

 

इंसान

देखता रह गया

और

बूढ़ा फकीर

सो गया

पोटली का सिरहाना बनाकर

बिना छत वाले आसमान के नीचे

जिसका रंग

आसमानी नीले से सुर्ख स्याह हो चला था ।

 

© हेमन्त बावनकर, पुणे 

20 दिसम्बर 2016