डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा “पर्दा”। यह लघुकथा हमें जीवन के उस कटु सत्य से रूबरू कराती है जिसे हम देख कर भी अनजान बन जाते हैं । जब आँखों पर मोह का पर्दा पड़ता है तो सब कुछ जायज ही लगता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर सामाजिक जीवन के कटु सत्य को उजागर करने की अहम् भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 22 ☆
☆ लघुकथा – पर्दा ☆
“पापा! आज भाई ने फिर फोन पर अपशब्द बोले.”
“एक कान से सुनो, दूसरे से निकाल दो.”
“आप दोनों के लिए भी अनाप-शनाप बोलता है.”
मुस्कुराकर – “अपने भाईसाहब की बातों को प्रवचन की तरह सुनो, जो नहीं चाहिए, छोड दो.”
“हमसे सहन नहीं होता है अब, फोन नहीं उठाउँगी उसका, बात करनी ही नहीं है उससे.”
“ऐसा नहीं कहते, एक ही भाई है तुम्हारा”
“और मेरा क्या?”
“भाई के मान – सम्मान का ध्यान रखो”
“मेरा मान – सम्मान ??”
“मेरी छोडिए, आप दोनों से इतने अपमानजनक ढंग से बोलता है, यह गलत नहीं है क्या?”
“बेटा है हमारा, हमसे नहीं बोलेगा तो किससे ——-”
“बेटी! तुम अपना कर्तव्य करती रहो बस”
पिता की आँखों पर मोह का पर्दा था.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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