(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का विचारणीय समसामयिक व्यंग्य “ जिसकी चिंता है, वह जनता कहाँ है !”। यह वास्तव में लोकतंत्र के ठगे हुए ‘मतदाता ‘के पर्यायवाची ‘जनता ‘ पर व्यंग्य है। सुना है कोई दल बदल नाम का कानून भी होता है ! श्री विवेक रंजन जी को इस सार्थक एवं विचारणीय व्यंग्य के लिए बधाई। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 39 ☆
☆ जिसकी चिंता है, वह जनता कहां है ! ☆
विधायक दर दर भटक रहे हैं, इस प्रदेश से उस प्रदेश पांच सितारा रिसार्ट में, घर परिवार से दूर मारे मारे फिर रहे हैं. सब कुछ बस जनता की चिंता में है. मान मनौअल चल रहा है. कोई भी मानने को तैयार ही नही है, न राज्यपाल, न विधानसभा के अध्यक्ष, न मुख्यमंत्री, न ही विपक्ष. सब अड़े हुये हैं. सबको बस जनता की चिंता है. मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंच रहा है. विशेष वायुयानों से मंत्री संत्री एड्वोकेटस भागमभाग में लगे हुये हैं. पत्रकार अलग परेशान हैं एक साथ कई कई जगहों से लाईव कवरेज करना पड़ता है जनता के लिये. कोई भी सहिष्णुता का वह पाठ सुनने को तैयार ही नही है, जिसकी बदौलत महात्मा गांधी ने सुभाष चंद्र बोस को थोड़ी आंख क्या दिखाई वे पंडित नेहरू के पक्ष में जीत कर भी अध्यक्षता छोड़ चुप लगा कर बैठ गये थे. या सरदार पटेल ने सबके उनके पक्ष में होते हुये भी महात्मा गांधी की बात मानकर प्रधान मंत्री पद से अपनी उम्मीदवारी ही वापस ले ली थी. हमारे माननीय तो जिन्हा और नेहरू की तरह अड़े खड़े हैं. किसी को भी मानता न देख, जनता के जनता के द्वारा जनता के लिए सरकार के मूलाधार वोटर रामभरोसे ने सोचा क्यों न उस जनता को ही मना लिया जाये जिसकी चिंता में सारी आफत आई हुई है.
जनता की खोज में सबसे पहले रामभरोसे सीधे राजधानी जा पहुंचा. उसने अपनी समस्या टी वी चैनल “जनता की आवाज” के एक खोजी संवाददाता को बताई. रामभरोसे ने पूछा, भाई साहब मैं हमेशा आपका चैनल देखता रहता हूं मुझे बतलायें जनता कहां है ? उसने रामभरोसे को ऊपर से नीचे तक घूरा,उसकी अनुभवी नजरो ने उसमें टी आर पी तलाश की, जब उसे ज्यादा टीआरपी नजर नही आई तो वह मुंह बिचका कर चलता बना. जनता मिल ही नहीं रही थी. ढ़ूंढ़ते भटकते हलाकान होते रामभरोसे को भूख लग आई थी, उसकी नजर सामने होटल पर पड़ी, देखा ऊपर बोर्ड लगा था “जनता होटल”. खुशी से वह गदगद हो गया, उसने सोचा चलो वहीं भोजन करेंगे और जनता से मिलकर उसे मना लेंगे. जनता जरूर एडजस्ट कर लेगी और माननीयो का मान रह जायेगा, खतरे में पड़ा संविधान भी बच जावेगा. रामभरोसे होटल के भीतर लपका, बाहर ही भट्टी थी, जिस पर पूरी पारदर्शिता से तंदूरी रोटी पकाई जा रही थी,सब्जी फ्राई हो रही थी, और दाल में तड़का लगाया जा रहा था. बाजू में जनता होटल का पहलवाननुमा मालिक अपने कैश बाक्स को संभाले जमा हुआ था. टेबल पर आसीन होते ही कंधे पर गमछा डाले छोटू पानी के गिलास लिये प्रगट हुआ. रामभरोसे ने तंदूरी रोटी और दाल फ्राई का आर्डर दिया.पेट पूजा कर बिल देते हुये, होटल के मालिक से अपनी व्यथा बतलाई और पूछा भाई साहब जनता है कहां, जिसकी चिंता में सरकार ही अस्थिर हो गई है. पहलवान ने दो सौ के नोट से भोजन का बिल काटा और बचे हुये बीस रुपये लौटाते हुये रामभरोसे को अजीबोगरीब तरीके से देखा, फिर पूछा मतलब ? अपनी बात दोहराते हुये उसने जनता को मनाने के लिये फिर से जनता का पता पूछा. पहलवान हंसा. तभी एक अखबार का पत्रकार वहां आ पहुंचा, जनता होटल के मालिक ने अपनी जान छुड़ाते हुये रामभरोसे को उस पत्रकार के हवाले किया और कहा कि ये “हर खबर जनता की ” दैनिक समाचार पत्र के संपादक हैं, आप इनसे जनता का पता पूछ लीजिये. रामभरोसे ने भगवान को धन्यवाद दिया कि अब जब हर खबर जनता की के संपादक ही मिल गये हैं तब तो निश्चित ही जनता मिल ही जावेगी. किंतु संपादक जी ने गोल मोल बातें की, चाय पी और ” शेष अगले अंक में ” की तरह उठकर चलते बने.
रामभरोसे जनता के न मिलने से परेशान हो गया. उसे एक टेंट में चल रहे प्रवचन सुनाई दिये, गुरू जी भजन करवा रहे थे और लोग भक्ति भाव से झूम रहे थे. रामभरोसे को लगा गुरू जी बहुत ज्ञानी हैं वे अवश्य ही जनता को जानते होंगे. अतः वह वहां जा पहुंचा. कीर्तन खत्म हुआ, गुरूजी अपनी भगवा कार में रवाना होने को ही थे कि रामभरोसे सामने आ पहुंचा, और उसने गुरू जी को अपनी समस्या बताई, गुरूजी ने कार में बैठते हुये जबाब दिया “बेटा तू ही तो जनता है”. गुरूजी तो निकल लिये पर रामभरोसे सोच में पड़ा हुआ है, यदि मैं जनता हूं तो मुझे तो संविधान से कोई शिकायत नही है, अरे मैं तो वह चौपाई गुनगुनाता ही रहता हूं ” कोई नृप होय हमें का हानि, चेरी छोड़ न होईहें रानी “, कर्ज माफी हो न हो, कौन थानेदार हो, कौन कलेक्टर हो, मुआवजा मिले न मिले, मैं तो सब कुछ एडजस्ट कर ही रहा हूं फिर मेरे नाम पर यह फसाद क्यों ? रामभरोसे ने एक फिल्म देखी थी जिसमें हीरो का डबल रोल था एक गरीब, सहनशील तो दूसरा मक्कार, धोखेबाज, फरेबी.रामभरोसे को कुछ कुछ समझ आ रहा है कि जरूर यह कोई और ही जनता है जिसके लिए सारे डबल रोल का खेल चल रहा है.
विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .
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