डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “ भूख ”।  यह लघुकथा हमें  आज की वास्तविकता से रूबरू कराती है।  एक नई ब्रेकिंग न्यूज़ आती है और पिछली ब्रेकिंग न्यूज़ को खा जाती है। एक सकारात्मक सन्देश देती है।  आखिर कैमरामेन और रिपोर्टर की भी तो अपनी नौकरी है और अपनी भूख है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इस  कथानक को सहजता से रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 26 ☆

☆ लघुकथा – भूख

रमिया बच्ची को दूध पिलाकर सुला ही रही थी कि महेश घबराया हुआ आया – अरे रमिया ! सुनी का, मोदी जी कहे हैं देश में सब बंदी है कल से, लॉकडाउन कहे हैं.

एकर का मतलब ? कइसी बंदी ? समझे नाही हम – रमिया भोलेपन से बोली

महेश की आवाज में थरथराहट थी  अरे पगली! सब काम बंद, कउनो करोना नाम की महामारी आई है विदेस से. अइसी  खतरनाक है कि पता नाहीं चलत है, छुए से होय जात है, ई बीमारी की दवा भी नाहीं है. विदेस में रोज हज्जारों लोग मरत हैं ई बीमारी से.सब कहत रहे एक दूसरे से दूर रहो, हाथ ना लगाओ किसी को, मुहाँ पर पट्टी बाँधे घूमत हैं लोग. घबरावत काहे हो, नाही छुअब हम कौनो को, एही खोली में रहब – रमिया बिटिया को सुलाते हुए धीरे से बोली.

मालिक भी कह दिए हैं कल से काम पर मत आओ, साईट पर काम बंद,  जहाँ जाए का होय जाओ – महेश रोनी सी आवाज में अपने को संभालता हुआ बोला.

ई का  कह रहे हो ? अरे राम, काम बंद तो पगार भी ना मिली ?  का करिहें, कइसे रहियें यहाँ बिना खाना-  पानी ? खोली का किराया ? अकेले होते तो दूसरी बात, नन्हीं सी जान है हमरे साथ. रमिया रुआँसी हो गई.

गांव चली हम लोग ?  वहाँ गुजर हो जाई – उदास स्वर में रमिया ने कहा.

नाहीं जा सकत रमिया, टरेन, बस सब बंद होय गई, कऊनो साधन नाही है गांव जाय का

रमिया की आँखें छलछला आईं, कमजोर शरीर था पैर काँपने लगे, घबराकर सिर पकडकर वहीं बैठ गई, अब का करिहैं गुडिया के बापू ?

और उसके बाद निकल पडे दोनों नन्हीं सी गुडिया को कलेजे से लगाए.  रोज कमानेवाले मजदूरों के पास बचता ही क्या है ? बेचारों के पास थोडे बहुत जो रुपए – पैसे थे लेकर चल दिए. गांव तो क्या पहुँचते ? रास्ते में ही पुलिस ने रोक दिया.

रमिया बच्ची को गोद में लिए बिलख-बिलखकर रो रही है – एक टेम का भी खाना नहीं मिल रहा, कईसे दूध पिलाई बिटिया को ? गाँव पहुँच जाते तो भूखे तो ना मरते साहब ? रुपया- पईसा जो था सब खत्म होय गवा. अब का खाई और बिटिया को का पिलाई ? महेश लाचार बैठा पथराई आँखों से रमिया को रोते देख सोच रहा था- कोरोना का पता नहीं,  भूख से ना मर जायें उसकी रमिया और बिटिया.

रिपोर्टर रमिया  से बार बार पूछ रहा था – एक  समय भी खाना नहीं मिला  आपको ? कितने महीने की बच्ची है ? कहाँ जाना है ?  कैमरा रमिया और जमीन पर लेटी बच्ची को फोकस कर  रहा था.  रिपोर्टर को अपने न्यूज चैनल पर दिन भर दिखाने के लिए एक दर्दनाक कहानी मिल गई थी.

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

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श्रृंगार तिवारी

आज की हक़ीक़त को उजागर किया है आपने।