डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी महानगरीय जीवनशैली पर विमर्श करती लघुकथा जिज्जी। आज भी हम जीवन में ऐसे संबंधों को निभाते हैं जिसकी अपेक्षा अपने रिश्तेदारों से भी नहीं कर सकते हैं। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 38 ☆
☆ लघुकथा – जिज्जी ☆
किसी ने बडी जोर से दरवाजे भडभडाया, ऐसा लगा जैसे कोई दरवाजा तोड ही देगा , अरे ! जिज्जी होंगी, सामने घर में रहती हैं, बुजुर्ग हैं, हमारे सुख – दुख की साथी. जब से शादी होकर आई हूँ इस मोहल्ले में माँ की तरह मेरी देखभाल करती रही हैं, सीढी नहीं चढ पातीं इसलिए नीचे खडे होकर अपनी छडी से ही दरवाजा खटखटाती हैं – सरोज बोली. यह सुनकर मैं मुस्कुराई कि तभी आवाज आई – तुम्हारी दोस्त है तो हम नहीं मिल सकते क्या ? हमसे मिले बिना चली जाएगी ? नहीं जिज्जी, हम उसे लेकर आपके पास आते हैं . लाना जरूर, यह कहकर जिज्जी छडी टेकती हुई अपने घर की ओर चल दीं. पतली गली के एक ओर सरोज और दूसरी ओर उनका घर था. दरवाजे पर खडे होकर भी आवाज दो तो सुनाई पड जाए. गली इतनी सँकरी कि दोपहिया वाहन ही उसमें चल सकते थे. गलती से अगर गली में गाय – भैंस आ जाए फिर तो उसके पीछे – पीछे गली के अंत तक जाएं या खतरा मोल लेकर उसके बगल से भी आप जा सकते हैं.
सरोज बोली – जिज्जी से मिलने तो जाना ही पडेगा, नहीं तो बहुत बुरा मानेंगी. हमें देखते ही वह खुश हो गईं,बोली – आओ बैठो, सरोज भी बैठने ही वाली थी कि बोली- अरे तुम बैठ जाओगी तो चाय, नाश्ता कौन लाएगा ? जाओ रसोई में, हाँ जिज्जी कहकर वह चाय बनाने चली गई. जिज्जी बडे स्नेह से बात करे जा रही थीं और मैं उन्हें देख रही थी. उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, सफेद साडी और सूनी मांग उनके वैधव्य के सूचक थे. सूती साडी के पल्ले से आधा सिर ढंका था जिसमें से सफेद घुंघराले बाल दिख रहे थे. गांधीनुमा चश्मे में से बडी – बडी आँखें झाँक रही थीं.हाथों में चाँदी के कडे पहने थीं. झुर्रियों ने चेहेरे को और ममतामय बना दिया था. बातों ही बातों में जिज्जी ने बता दिया कि बेटियां अपने घर की हो गईं और बेटे अपनी बहुओं के. सरोज तब तक चाय, नाशता ले आई,उसकी ओर देखकर बोलीं- हमें अब किसी की जरूरत भी नहीं है, डिप्टी साहब ( उनके पति ) की पेंशन मिलती है और ये है ना हमारी सरोज, एक आवाज पर दौडकर आती है. बिटिया हमारे लिए तो आस- पडोस ही सब कुछ है, ये लोग ना होते तो कब के मर खप गए होते.
जिज्जी, बस भी करिए अब, बीमारी -हारी में आप ही तो रहीं हैं हमारे साथ, मेरे बच्चे इनकी गोद में बडे हुए हैं, जगत अम्माँ हैं ये —- सरोज और जिज्जी एक दूसरे की कुछ भी ना होकर बहुत कुछ थीं. कहने को ये दोनों पडोसी ही थीं, जिज्जी का स्नेहपूर्ण अधिकार और सरोज का सेवा भाव मेरे लिए अनूठा था. महानगर की फ्लैट संस्कृति में रहनेवाली मैं हतप्रभ थी जहाँ डोर बैल बजाने पर ही दरवाजा खुलता है नहीं तो सामने के दरवाजे पर लगी नेमप्लेट मुँह चिढाती रहती है . दरवाजा खुलने और बंद होने में घर के जो लोग दिख जाएं बस वही परिचय, बाकी कुछ नहीं, सब एक दूसरे से अनजान, अपरिचित. फ्लैट से निकले अपनी गाडियों में बैठे और चल दिए, लौटने पर दरवाजा खुला और फिर अगली सुबह तक के लिए बंद.
मन ही मन बहुत कुछ समेटकर जब मैं चलने को हुई, जिज्जी छडी टेकती हुई उठीं – हमारा बटुआ लाओ सरोज, बिटिया पहली बार हमारे घर आई है, जिज्जी टीका करने के लिए बटुए में नोट ढूंढने लगीं.
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005
e-mail – [email protected] मोबाईल – 09370288414.
अच्छी रचना
श्याम जी , धन्यवाद
अतिसुंदर एवं सार्थक लघुकथा बधाई।
हेमंत जी, हार्दिक धन्यवाद