हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆ कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा
डॉ. ऋचा शर्मा
(हम डॉ. ऋचा शर्मा जी के ह्रदय से आभारी हैं जिन्होंने हमारे सम्माननीय पाठकों के लिए “साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद” प्रारम्भ करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया. डॉ ऋचा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में मिली है. किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी ऐसी ही एक भावुक एवं अनुकरणीय लघुकथा “कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 3 ☆
☆ लघुकथा – कुलदीपक नहीं हूँ पर बेटी हूँ तेरी ………. ☆
उल्टी गंगा मत बहाया कर गुड्डो ! मायके से लड़कियों को गहना – कपड़ा मिलना चाहिए। लड़कियों को देते रहने से मायके का मान बना रहता है और ससुराल में लड़की की इज्जत भी बनी रहती है। हम तो तुझे कुछ दे नहीं पाते और तेरे घर में पड़े मुफत की रोटी तोड़ रहे हैं। दामाद जी क्या सोचेंगे भला।
कुछ नहीं सोचेंगे दामाद जी। तुम इस बात की चिंता मत किया करो। और फिर तुम मेरे पास आई हो, मेरा मन भी करता है ना अपनी अम्मा के लिए कुछ करने का। तुमने मुझे अपने पैरों पर खड़ा किया, समर्थ बनाया और ये क्या लड़की–लड़का लगा रखा है ? आज के ज़माने में ये सब कोई नहीं सोचता। लड़की है तो क्या माता–पिता के लिए कुछ करे ही नहीं ?
ये तेरी सोच है बेटी ! जमाने की नहीं। समाज में लड़की–लड़के में अंतर कभी मिट ही नहीं सकता। दो महीने से लड़की–दामाद के घर का खाना खा रही हूँ। लेने–देने के नाम पर ठन–ठन गोपाल। तू मेरे सिर पर बोझ लाद रही है ये कपड़े, मिठाई देकर।
गुड्डो कितना चाहती थी कि अम्मा भी सास–ससुर की तरह ठसके से रहे उसके पास, जो चाहिए वो मंगाए, जो कुछ ठीक ना लगे वह मुझे बताए। लेकिन कहाँ, वह तो मानों झिझक और संकोच से अपने में ही सिकुड़ती चली जा रही है। इलाज के लिए वह गुड्डो के पास चली तो आई लेकिन ‘ये लड़की का घर है। लड़की के माँ–बाप लड़की के ससुराल जाकर नहीं रहते’ – यह बात उसके मन से हटती ही नहीं थी। खाने–पीने से लेकर उसकी हर बात में हिचकिचाहट दिखाई देती। हाथ में रुपए–पैसे का ना होना भी उसे दयनीय बना देता था।
गुड्डो समझ रही थी कि अम्मा किसी उलझन में है। तभी झुकी हुई पीठ को सीधी करने की कोशिश करते हुए कमर पर हाथ रखकर अम्मा बोली – “ऐसा कर गुड्डो तू ये रुपए रख बच्चों के लिए मिठाई मंगवा ले, यह कहकर वह ब्लाउज में बड़ी हिफाजत से रखा बटुआ निकालने लगीं।“
बटुआ निकालकर अम्मा उसे खोलकर देखे इससे पहले ही गुड्डो ने उसका हाथ पकड़ लिया – “रहने दो अम्मा ! मैं तुम्हारे पास आऊंगी तब दे देना।”
“तब ले लेगी तू ?”
“हाँ।”
“मना मत करना यह कहकर कि बस ग्यारह रुपए से टीका कर दो।”
“नहीं करूंगी बाबा ! अभी रखो अपना बटुआ संभालकर।”
अम्मा अपना बटुआ जतन से संभालकर रख लेती इस बात से अनजान कि बटुए में रुपए हैं भी या नहीं। बढ़ती उम्र के कारण वह अक्सर बहुत – सी बातें भूल जाती थी। गुड्डो को मालूम था कि बटुए में सिर्फ दो सौ रुपए पडे हैं। बटुआ खोलने के बाद दो सौ रुपए देखकर उसके चहरे पर जो बेचारगी का भाव आएगा गुड्डो उसे देखना नहीं चाहती थी इसलिए वह हर बार कुछ बहाना बनाकर ऐसी स्थिति टाल देती। माँ का मन बहलाने के लिए वह बोली – “अम्मा ! तुम्हें कलकत्ता की ताँतवाली साड़ी बहुत पसंद है, ना चलो दिलवा दूँ।”
“हाँ चल, पर साड़ी के पैसे मैं ही दूंगी।”
“हाँ – हाँ, तुम्हीं देना, चलो तो।”
ताँत की रंग – बिरंगी साड़ियों को देखकर अम्मा खिल उठी। अपने लिए उसने हल्के हरे रंग की साड़ी पसंद की। मुझसे बोली – “गुड्डो ये पीली साड़ी तू ले ले। बहुत जंचेगी तुझ पर। सूती साड़ी की बात ही कुछ और है। मैं तेरे लिए कुछ नहीं लाई, यह साडी तू मेरी तरफ से ले लेना। आज मना मत करना। लड़की को कुछ दो ना, उससे लेते रहो, ऐसा पाप ना चढाओ बेटी मेरे सिर।” ये कहते – कहते अम्मा ने बटुआ निकाल लिया। बटुए में सौ – सौ के सिर्फ दो नोट देखकर उसका चेहरे का रंग उतर गया। दबी आवाज में बोली – “गुड्डो बिल कितना हुआ ? ” गुड्डो झिझकते हुए बोली – इक्कीस सौ रुपए अम्मा।”
“अच्छा” – उसने एक बार हाथ के दो नोटों की ओर देखा, उसके चेहरे पर दयनीयता झलकने लगी। घबराए से स्वर में बोली – “तू – तू — ये दो सौ तो रख ले बाकी मैं तुझे बाद में दे दूंगी।”
“ठीक है अम्मा, मैंने दिया, तुमने दिया, एक ही बात है।” गुड्डो अपने घर में माँ को जिस स्थिति से बचाना चाह रही थी अब वह मुँह पसारे खडी थी। अम्मा हँस रही थी पर उदासी उसके चेहरे पर साफ झलक रही थी। अपनी उदासी को छुपाने का उसका यह बहुत पुराना तरीका था।
घर पहुँचते ही अम्मा ने साड़ी के बैग एक तरफ डाले और जल्दी से रसोई में जाकर सिंक में पड़े कप – प्लेट धोने लगी। वह अपने – आप से बोले जा रही थी – “गुड्डो दो महीने से तेरे घर में पड़ी खटिया तोड़ रही हूँ। तेरे किसी काम की नहीं। तुझे जो – जो काम करवाने हों मुझे बता। गरम मसाला, हल्दी, लाल मिर्च सब मंगवा ले। मैं कूट, छानकर रख दूंगी। साल भर काम देंगे। बाजार की हल्दी तो कभी ना लेना। पता नहीं दुकानदार कैसा रंग मिलाते हैं उसमें। घर की हल्दी हो तो बच्चों को रात में दूध में डालकर दो, सर्दी में बहुत आराम देती है। तू भी पियाकर हड़डियों के लिए अच्छी होती है। खूब आराम कर लिया मैंने। तबियत भी ठीक हो गई है। सब काम कर सकती हूँ मैं अब।”
झुकी पीठ लिए अम्मा जल्दी – जल्दी काम निपटाना चाह रही थी। गुड्डो दूर खड़ी अम्मा के मन में उपजे अपराध – बोध को महसूस कर रही थी। वह उसे समझाना चाहती थी कि अम्मा ! तुम अपनी बेटी के घर में हो, तुमने यहाँ आकर कुछ गलत नहीं किया। तुम मुझे साड़ी नहीं दिला सकी तो कोई बात नहीं। बचपन में कितनी बार तुमने मुझे अच्छे कपड़े दिलवाए और अपने लिए कुछ नहीं लिया। कितनी बार मेरी जरूरतें पूरी करके ही तुम खुश हो जाती थीं। मैं बेटा नहीं हूँ, कुलदीपक नहीं हूँ तुम्हारे परिवार का ? पर बेटी तो हूँ तुम्हारी। मेरे पास उतने ही अधिकार से रहो, जितना तुम्हारे अगर बेटा होता तो तुम उसके पास रहतीं। किस अपराध बोध से इतना झुक रही हो अम्मा ?
गुड्डो की आँखों से झर – झर आँसू बह रहे थे। वह कुछ कह ना सकी।
© डॉ. ऋचा शर्मा,
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