हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆ लघुकथा – ग्रहण ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा
डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है. किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक सामयिक, सार्थक एवं मानसिक रूप से विकृत पुरुष वर्ग के एक तबके को स्त्री शक्ति से सतर्क कराती सशक्त लघुकथा “ग्रहण ”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 11 ☆
☆ लघुकथा – ग्रहण ☆
बहू! दोपहर १२ बजे से सूर्यग्रहण लग रहा है। आज ऑफिस में ही कुछ खा लेना। ग्रहण में कुछ खाते नहीं है।
अम्माजी, मैं ये सब नहीं मानती, ऑफिस से आकर ही खाना खाऊँगी।
सासू माँ को उसका उत्तर पसंद नहीं आया। सास-ससुर दोनों उसकी निंदा में उलझ गए। ये आजकल की बहुएँ थोड़ा पढ़-लिख क्या गई अपने सामने किसी को कुछ समझती नहीं। बहू की निंदा से जो सिलसिला शुरू हुआ वह परिवार के कई सदस्यों को टटोलता हुआ बहुत देर तक चलता रहा—– भगवान ! सुजाता जैसी लड़की किसी को न दे, ब्राह्मण की लड़की कायस्थों में चली गई, नाक कटा दी हमारी। अरे, अपने महेश को देखो। रिश्तेदारों से माँग-माँगकर लड़की की शादी निपटा ली। जाते समय मिठाई का एक टुकड़ा भी नहीं दिया। छोटा भाई है तो क्या? माना एक लड़की और है शादी के लिए, बेटा भी अभी पढ़ ही रहा है- तो क्या? हमारी तो बेकदरी हुई शादी में। घराती क्या खाना नहीं खाते, शादी ब्याह में?
और अपनी दया बहन जी। पति का शुगर बढ़ा हुआ है- तो क्या आफत आ गई? आलू नहीं खायेंगे, भिंडी बनाओ। अपना बैठी रहेंगी हमें काम पर लगा देंगी…… पर निंदा चलती रही। दोपहर १२ बजे से ग्रहण था। उसके पहले ही भरपेट नाश्ता करके दोनों बैठे थे। चार बजे के बाद ही कुछ खाना था। दोनों को कोई काम था नहीं और भरपेट निंदा में बहुत बल था- ‘पर निंदा परं सुखम्।‘
दूरदर्शन पर सूर्यग्रहण पर निरंतर चर्चा चल रही थी। ग्रहण से जुडे मिथकों की वास्तविकता बतायी जा रही थी। अंधविश्वासों का ग्रहण से कोई संबंध नहीं है। गंगा स्नान से पाप धुल जाते तो दुनिया में पापी रह ही नहीं जाते ?
टी.वी. देखते देखते सास-ससुर की चर्चा फिर शुरू हो गयी| हम दोनों ने क्या पाप किए हैं जो बिना खाए-पिए बैठे ग्रहण हटने का इंतजार कर रहे हैं। आशा ! हम दोनों ने तो कभी किसी की बुराई भी नहीं की। कबीर का दोहा मुझे याद आ रहा था-
‘निंदक नियरे राखिये —
कबीर के निंदक को मैं तलाश रही थी। ग्रहण मुझे वहाँ स्पष्ट दिख रहा था।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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