हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 15 ☆ लघुकथा – अनुष्ठान ☆ – डॉ. ऋचा शर्मा

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप  ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी  एक  लघुकथा  “ अनुष्ठान ”।  हम  कितने भी कर्मकांड कर लें किन्तु, यदि मानसिकता नहीं बदली तो फिर कर्मकांड तो कर्मकांड ही रहेंगे न ? डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 15 ☆

☆ लघुकथा – अनुष्ठान ☆ 

असल में पूरी पंडिताइन हैं वो। भई, गजब की पूजा- पाठ। कोई व्रत- त्यौहार नहीं छोड़तीं, करवाचौथ, हरितालिका सारे व्रत निर्जल रहती हैं। आज के समय में भी प्याज- लहसुन से परहेज है। अन्नपूर्णा देवी का व्रत करती है, इस बार उद्यापन करना था। धूमधाम से तैयारी चल रही थी।

इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन कराना था। दान-दक्षिणा अपनी श्रद्धा तथा सामर्थ्य के अनुसार। पूजा की सामग्री में इक्यावन मिट्टी के दीपक लाने थे। कुम्हारवाड़ा घर से बहुत दूर था। पास के ही बाजार में एक बूढी स्त्री दीपक लिए बैठी दिख गई। पच्चीस रुपये में इक्यावन दीपक खरीद लिए। पंडिताइन ने पचास का नोट निकाल कर बूढी स्त्री को दिया और दीपक थैले में रखने लगीं। ‘पंडित जी ने बोला है कि दीपकों में खोट नहीं होना चाहिए, किसी दीपक की नोंक जरा भी झड़ी न हो।’

देखभाल कर बड़ी सावधानी से दीपक रखने के बाद पंडिताइन ने पच्चीस रुपए वापस लेने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया। बूढी माई ने धुंधली आँखों से पचास के नोट को सौ का समझ, ७५ रुपए पंडिताइन के हाथ में वापस रख दिए। पंडिताइन की आँखें चमक उठीं। वे बडी तेजी से लगभग दौड़ती हुई सी वहाँ से चल दीं। अपनी गलती से अनजान बूढी माई शेष दीपकों को संभाल रही थी।

अन्नपूर्णा देवी के अनुष्ठान की तैयारी अभी बाकी थी। पंडिताइन पूजा की सामग्री के लिए दूसरी दुकान की ओर चल दीं।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

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