हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 17 ☆ लघुकथा – बदलाव ☆ डॉ. ऋचा शर्मा
डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा “ बदलाव ”। समाज में व्याप्त नकारात्मक संस्कारों को भी सकारात्मक स्वरुप दिया जा सकता है। डॉ ऋचा जी की रचनाएँ अक्सर यह अहम् भूमिकाएं निभाती हैं । डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 17 ☆
☆ लघुकथा – बदलाव ☆
माँ सुबह ६ बजे उठती है। झाड़ू लगाती है, नाश्ता बनाती है, स्नान कर तुलसी में जल चढ़ाती है। हाथ जोड़कर सूर्य भगवान की परिक्रमा करती है। मन ही मन कुछ कहती है। निश्चित ही पूरे परिवार के लिए मंगलकामना करती है। पति-पुत्र को अपने व्रत और पूजा-पाठ के बल पर दीर्घायु करती है। बेटा देसी घी का लड्डू भले ही हो, बेटी भी उसके दिल का टुकड़ा है। दोपहर का खाना बनाती है। बर्तन माँजकर रसोई साफ करती है। कपड़े धोती है। शाम की चाय, रात का खाना, पति की प्रतीक्षा और फिर थकी बेसुध माँ लेटी है। बेटा तो सुनता नहीं, बेटी से पैर दबवाना चाहती है वह। दिन भर काम करते-करते पैर टूटने लगते है। माँ कहती है- बेटी ! मेरे पैरों पर खड़ी हो जा, टूट रहे हैं।
बेटी अनमने भाव से एक पैर दबाकर टी.वी. देखने भाग जाना चाहती है कि माँ उनींदे स्वर में बोलती है – बेटी ! अब दूसरे पैर पर भी खड़ी हो जा, नहीं तो वह रूठ जाएगा। बेटी पैरों को हाथ लगाने ही वाली थी कि ‘अरे ना- ना’, माँ बोल पड़ती है – ‘पैरों को हाथ मत लगाना, बस पैरों पर खड़ी हो जा। बेटियाँ माँ के पैर नहीं छूतीं।’ नर्म –नर्म पैरों के दबाव से माँ के पैरों का दर्द उतरने लगता है या दिन भर की थकान उसे सुला देती है, पता नहीं…….. ?
अनायास बेटी का ध्यान माँ के पैर की उँगलियों में निश्चेष्ट पड़े बिछुवों की ओर जाता है। काले पड़े चाँदी के बिछुवों की कसावट से उंगलियां काली और कुछ पतली पड़ गयी हैं। बेटी एक बार माँ के शांत चेहरे की ओर देखती है और बरबस उसका हाथ बिछुवेवाली उँगलियों को सहलाने लगता है। बड़े भोलेपन से वह माँ से पूछ बैठती है – माँ तुम बिछुवे क्यों पहनती हो ?
नींद में भी माँ खीज उठती है – अरे ! तूने मेरे पैरों को हाथ क्यों लगाया ? कितनी बार मना किया है ना ! और कुछ भी पूछती है तू ? पहना दिए इसलिए पहनती हूँ बिछुवे, और क्या बताऊँ……
बेटी सकपका जाती है, माँ पैरों को सिकोडकर सो जाती है।
दृश्य कुछ वही है आज मैं माँ हूँ। याद ही नहीं आता कि कब, कैसे अपनी माँ के रूप में ढ़लती चली गयी। कभी लगता है – ये मैं नहीं हूँ, माँ का ही प्रतिरूप हूँ। आज मेरी बेटी ने भी मेरे दुखते पैरों को दबाया, बिछुवे वाली उँगलियों को सहलाया, बिछुवों की कसावट थोडी कम कर दी, उंगलियों ने मानों राहत की साँस ली।
मैंने पैर नहीं सिकोडे। बेटी मुस्कुरा दी।
अरे ! यह क्या, बेटी के साथ-साथ मैं भी तो मुस्कुराने लगी थी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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