श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। आज प्रस्तुत है उनके । द्वारा संकलित बाल साहित्यकारों की यादगार होली के संस्मरण । ये संस्मरण हम दो भागों में प्रकाशित कर रहे हैं। हम सभी बाल साहित्यकारों का ह्रदय से अभिनंदन करते हैं । )
श्री ओमप्रकाश जी के ही शब्दों में –
“होली वही है. होली का भाईचारा वही है. होली खेलने के तरीके बदल गए है. पहले दुश्मन को गले लगाते थे. उसे दोस्त बनाते थे. उस के लिए एक नया अंदाज था. आज वह अंदाज बदल गया है. होली दुश्मनी निकालने का तरीका रह गई है.
क्या आप जानना चाहते हैं कि आप के पसंदीदा रचनाकार बचपन में कैसे होली खेलते थे? आइए उन्हीं से उन्हीं की लेखनी से पढ़ते हैं, वै कैसे होली खेलते थे.”
प्रस्तुति- ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
☆ अपने बाल साहित्यकारों की यादगार होली – भाग 1☆
सुश्री अंजली खेर
अंजली खेर लेखिका हैं. वे बताती है. बात उस वक्त की है जब वे सातवी कक्षा में पढ़ती थी. उस साल हम सभी एक ही कोलोनी के बच्चों ने एक योजना बनाई. सुबह से ही सभी एक मकान की छत पर इकट्टा हो गए . छत से बाहर पानी जाने वाले सभी रास्ते को बंद कर दिया और सभी टंकियों के पानी को छोड़ दिया. सभी पानी छत पर इकट्टा कर लिया. फिर एकदूसरे पर छपा छप पानी फेक कर होली मनाई. उसी पानी में कबड्डी भी खेली . जम के लोटलोट कर नहाए.
जब सभी के घर में पानी नहीं आया. इस से सभी को हमारी बदमाशी का पता चल गया. हम सब को अपनेअपने मातापिता ने खूब डांट पिलाई.
आज भी जब दोस्तों से बात होती हैं तो उस होली को याद कर सभी खिलखिला कर हंस पड़ते हैं.
श्री देवदत्त शर्मा
देवदत्त शर्मा के बचपन की यादगार होली. आप धार्मिक रचनाओं की रचियता है. आप कहते हैं कि वैसी होली कहाँ है जैसी हम खेलते थे. घर के आंगन में एक बड़े कड़ाह में पानी व गहरा गुलाबी रंग भर दिया जाता था . उस के चारों ओर घर की कुल वधुएं हाथ में कपडे़ का मोटा कोड़ा लेकर खड़ी हो जाती थी.पुरुष वर्ग कड़ाह से अपनी डोलची में रंग भरा पानी ले कर महिलाओं पर जोर से फेंकते थे.
कोशिश यह रहती थी पुरुष कड़ाह तक नहीं पहुंचे. अगर कोई पहुंचता है तो औरतें गीले कौड़े से मारती थी. कुछ औरतें मिल कर उसे भरे हुए कड़ाह में डाल देती थी. मोहल्ले के दर्शकों को मजा आता था .
हम छोटे बच्चे थे. अत: कड़ाह के पास नहीं जाते थे. मेरे काकाजी ने बांस की एक पिचकारी बना कर मुझे दी मैं अलग बाल्टी में रंग घोल कर पिचकारी भर कर दर्शकों को भिगोता था. यह मेरी पहली होली थी. तब मैं 5-7 वर्ष का था . गांव में इस प्रथा को फाग खेलना कहते थे. अब यह प्रथा नगण्य है.
© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
बहुत ही उम्दा प्रस्तुति । हार्दिक आभार आदरणीय संपादक महोदय।