आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (19) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिताः ।।19।।

 

साम्य भाव में रम गया जिनका मन संसार

जन्म मरण से मुक्त वे,प्रभु उनका आधार।।19।।

 

भावार्थ :  जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही स्थित हैं।।19।।

Even here (in this world) birth (everything) is overcome by those whose minds rest in equality; Brahman is spotless indeed and equal; therefore, they are established in Brahman ।।19।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष – कविता – ☆ दो कवितायें ☆ – श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

 

 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  का  e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है।  आप कविताएँ, गीत, लघुकथाएं लिखती हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही हैं। आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। हम आशा करते हैं कि हम भविष्य में उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर दो कवितायें  निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता )

संक्षिप्त परिचय 

  • कविताओं को कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में स्थान मिला है जैसे अहा! जिंदगी, दुनिया इन दिनों, समहुत, कृति ओर, व्यंजना (काव्य केंद्रित पत्रिका) सर्वोत्तम मासिक, प्रतिमान, काव्यकुण्ड, साहित्य सृजन आदि।
  • आपकी रचनाओं को कई ई-पत्रिकाओं/ई-संस्करणों में भी स्थान मिला है जैसे सुबह सवेरे (भोपाल), युवा प्रवर्तक, स्टोरी मिरर (होली विशेषांक ई पत्रिका), पोषम पा, हिन्दीनामा आदि।
  • राजधानी समाचार भोपाल के ई न्यूज पेपर में ‘विशाखा की कलम से’ खंड में अनेक कविताओं का प्रकाशन
  • कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका ‘पंजाब टुडे’ में भाषांतर के अंतर्गत एक कविता अमरजीत कुंके जी ने पंजाबी में अनुदित
  • आपकी कविता का ‘सर्वोत्तम मासिक’ एवं ‘काव्यकुण्ड’ पत्रिका के लिए वरिष्ठ कवयित्री अलकनंदा साने जी द्वारा मराठी में अनुवाद व आशीष
  • कई कवितायें तीन साझा काव्य संकलनों में प्रकाशित

 

☆ दो कवितायें – निरागस जिज्ञासा तथा एकात्मकता  ☆

1.

निरागस जिज्ञासा

 

मुझे तो तेरे मुकुट पर फूल गोकर्ण का

मोरपंख सा लगता है,

कृष्ण बता, तुझे ये कैसा लगता है?

 

मुझे तो तेरी मुरली की धुन

अब भी सुनाई देती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

ग्वाला बन के फिरता है?

 

तुझे तो मैं कई सदियों से

माखन मिश्री खिलाती हूँ,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

माखनचोरी करता है?

 

मुझे तो अब भी यमुना में

अक्स तेरा दिखता है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

कालियामर्दन करता है?

 

मुझे तो हर एक माँ

यशोदा सी लगती है,

कृष्ण बता अब भी तू क्या

जन्म धरा पर लेता है?

 

2. 

एकात्मता 

तू मुझे प्यार करे या मैं तुझे प्यार करूँ

बात एक है ना, प्यार है ना!

तू मेरे साथ चले या मैं तेरे साथ चलूँ,

बात एक है ना ,साथ है ना!

 

कि दोनों  ही ऊर्जा बड़ी सकारात्मक है,

“प्यार” संग “साथ “हो तो पंथ ही दूजा है

 

वो आत्मा हो जाती है कृष्णपंथी

फिर मुरली हो या पाँचजन्य, बात एक है ना!

 

कि कृष्ण कहाँ सबके साथ था,

सबमे उनकी अनंत ऊर्जा का निवास था

फिर वो राधा हो या मीरा,

देवकी हो या यशोदा,

बात एक ही है ना!

 

© विशाखा मुलमुले  ✍

पुणे, महाराष्ट्र

image_print

Please share your Post !

Shares

सूचना – हिन्दी साहित्य – ☆ परसाई स्मृति अंक ☆ – (विशेषांक की रचनाएँ >>महत्वपूर्ण लिंक्स)

? परसाई स्मृति अंक ?

हम 22 अगस्त 2019 को www.e-abhivyakti.com द्वारा स्व. परसाई जी  के जन्मदिवस पर प्रकाशित विशेषांक की रचनाओं के  महत्वपूर्ण लिंक्स उपलब्ध कर रहे हैं जिन्हें आप भविष्य में पढ़ सकते हैं।

 

परसाई स्मृति अंक में ई-अभिव्यक्ति की प्रस्तुति :-

  1. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ पारदर्शी परसाई ☆ – डॉ.राजकुमार “सुमित्र” ☆>>http://bit.ly/30jWqop
  2. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक ☆ अतिथि संपादक की कलम से ……. परसाई प्रसंग ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/30sNg9a
  3. ई-अभिव्यक्ति: संवाद- 38 – हेमन्त बावनकर ☆>>http://bit.ly/30priE3
  4. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ इस तरह गुजरा जन्मदिन ☆ – स्व. हरिशंकर परसाई ☆>> – http://bit.ly/2Zty5Q1
  5. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई जी – अमिट स्मृति ☆ – आचार्य भागवत दुबे ☆>> – http://bit.ly/2ZiwNHn
  6. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई जी – एक आम आदमी और खास लेखक ☆ – श्री हिमांशु राय ☆>> – http://bit.ly/30qG39u
  7. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई का मूल्यांकन क्यों नहीं? ☆ – श्री एम.एम. चन्द्रा ☆>> – http://bit.ly/2ZmdrRy
  8. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ स्वतंत्र विचार ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/30yGhM9
  9. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई के रूपराम ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/2ZkaIbh
  10. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ ☆>> –  http://bit.ly/30jE7zH
  11. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ सच्चे मानव परसाई जी ☆ – डॉ महेश दत्त मिश्र ☆>> – http://bit.ly/2ZigCcT
  12. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ व्यंग्यकार स्व. श्रीबाल पांडे ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/30rJvku
  13. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ परसाई को जानने के ख़तरे ☆ – डॉ कुन्दन सिंह परिहार ☆>> – http://bit.ly/2ZirWGe
  14. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ वर्तमान परिदृश्य में परसाई की प्रासंगिकता ☆ – सुश्री अलका अग्रवाल सिग्तिया ☆>> http://bit.ly/2Ze7I0f
  15. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ युग पुरुष परसाई ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/30kAqK2
  16. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई का गाँव ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆>> – http://bit.ly/2ZirFDc
  17. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ कबीर के ध्वज वाहक हरिशंकर परसाई ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆>>http://bit.ly/30pl5rD
  18. हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – नाटक ☆ सदाचार का तावीज ☆ – श्री वसंत काशीकर ☆ –>>http://bit.ly/30pmgYa

 

 

 

? ? ? ? ?

image_print

Please share your Post !

Shares

Weekly column ☆ Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 5 – Ambika’s infuriation ☆ Ms. Neelam Saxena Chandra

Ms Neelam Saxena Chandra

 

(Ms. Neelam Saxena Chandra ji is a well-known author. She has been honoured with many international/national/ regional level awards. We are extremely thankful to Ms. Neelam ji for permitting us to share her excellent poems with our readers. We will be sharing her poems on every Thursday Ms. Neelam Saxena Chandra ji is Executive Director (Systems) Mahametro, Pune. Her beloved genre is poetry. Today we present her poem “Ambika’s infuriation”. This poem is from her book “Tales of Eon)

 

☆ Weekly column  Poetic World of Ms. Neelam Saxena Chandra # 5

 

☆ Ambika’s infuriation ☆

(When asked by Satyavati to bear a child with her son, Sage Vyas)

 

What am I taken to be, great Bhishma!

Taken away from my father by force
O Bhishma I was forced to wed
Not you, the one who brought me here
But Vichitravirya, as you then said.

Disturbed and humiliated was I
But I made no protest, nor dissent
Accepted what fate decreed and so,
Were seven best years of my youth spent!

Have you now heard this, mighty Bhishma,
What mother Satyavati asks of me?
She wishes me to consort with Sage Vyas

Bhishma! What now, I ask of thee?

Sage Vyas is here now, mighty Bhishma
And his awful odour fills the room
O! So terrible and dark his visage is
How do I take his seed in my womb?

The clan may prosper or come to end
No! I just can’t bear a son by him…
Oh! No one listens to me…and so…
My eyes shall remain closed to him…

What am I? I ask you Bhishma!
What did I do for this disgrace…
I have no choice, I give in Bhishma,
It is my end, I hide my face!

 

© Ms. Neelam Saxena Chandra

(All rights reserved. No part of this document may be reproduced or transmitted in any form or by any means, or stored in any retrieval system of any nature without prior written permission of the author.)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – दृष्टिभ्रम या सत्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

??  दृष्टिभ्रम या सत्य  ??

 

हिरण मोहित था पानी में अपनी छवि निहारने में। ‘मैं’ का मोह इतना बढ़ा कि आसपास का भान ही नहीं रहा। सुधबुध खो बैठा हिरण।
अकस्मात दबे पाँव एक लम्बी छलांग और हिरण की गरदन, शेर के जबड़ों में थी। पानी से परछाई अदृश्य हो गई।
जाने क्या हुआ है मुझे कि हिरण की जगह मनुष्य और शेर की जगह काल के जबड़े दिखते हैं।
ऊहापोह में हूँ, मुझे दृष्टिभ्रम हुआ है या सत्य दिखने लगा है?
हमारी आँखें सत्यदर्शी हों। 

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

 

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 11 ☆ मिले दल मेरा तुम्हारा ☆ – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य”  में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे।  आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “मिले दल मेरा तुम्हारा ”)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 11 ☆ 

 

 ☆ मिले दल मेरा तुम्हारा ☆

 

मुझे कोई यह बताये कि जब हमारे नेता “घोड़े”  नहीं हैं, तो फिर उनकी हार्स ट्रेडिंग कैसे होती है ? जनता तो चुनावो में नेताओ को गधा मानकर  “कोई नृप होय हमें का हानि चेरी छोड़ न हुई हैं रानी” वाले मनोभाव के साथ या फिर स्वयं को बड़ा बुद्धिजीवी और नेताओ से ज्यादा श्रेष्ठ मानते हुये,मारे ढ़केले बड़े उपेक्षा भाव से अपना वोट देती आई है।ये और बात है कि चुने जाते ही, लालबत्ती और खाकी वर्दी के चलते वही नेता हमारा भाग्यविधाता बन जाता है और हम जनगण ही रह जाते हैं। यद्यपि जन प्रतिनिधि को मिलने वाली मासिक निधि इतनी कम होती है कि लगभग हर सरकार को ध्वनिमत से अपने वेतन भत्ते बढ़वाने के बिल पास करने पड़ते हैं, पर जाने कैसे नेता जी चुने जाते  ही  बहुत अमीर बन जाते हैं।पैसे और पावर  ही शायद वह कारण हैं कि चुनावो की घोषणा के साथ ही जीत के हर संभव समीकरण पर नेता जी लोग और उनकी पार्टियां  गहन मंथन करती दिखती है।चुपके चुपके “दिल मिले न मिले,जो मिले दल मेरा तुम्हारा तो सरकार बने हमारी ” के सौदे, समझौते होने लगते हैं, चुनाव परिणामो के बाद ये ही रिश्ते हार्स ट्रेडिंग में तब्दील हो सकने की संभावनाओ से भरपूर होते हैं।

“मेरे सजना जी से आज मैने ब्रेकअप कर लिया” वाले सेलीब्रेशन के शोख अंदाज के साथ नेता जी धुर्र विरोधी पार्टी में एंट्री ले लेने की ऐसी क्षमता रखते हैं कि बेचारा रंगबदलू गिरगिटान भी शर्मा जाये।पुरानी पार्टी आर्काईव से नेताजी के पुराने भाषण जिनमें उन्होने उनकी नई पार्टी को भरपूर भला बुरा कहा होता है, तलाश कर वायरल करने में लगी रहती है।सारी शर्मो हया त्यागकर आमआदमी की भलाई के लिये उसूलो पर कुर्बान नेता नई पार्टी में अपनी कुर्सी के पायो में कीलें ठोंककर उन्हे मजबूत करने में जुटा रहता है।ऐसे आयाराम गयाराम खुद को सही साबित करने के लिये खुदा का सहारा लेने या “राम” को भी निशाने पर लेने से नही चूकते । जनता का सच्चा हितैषी बनने के लिये ये दिल बदल आपरेशन करते हैं और उसके लिये जनता का खून बहाने के लिये दंगे फसाद करवाने से भी नही चूकते।बाप बेटे, भाई भाई, माँ बेटे, लड़ पड़ते हैं जनता की सेवा के लिये हर रिश्ता दांव पर लगा दिया जाता है।पहले नेता का दिल बदलता है, बदलता क्या है, जिस पार्टी की जीत की संभावना ज्यादा दिखती है उस पर दिल आ जाता है।फिर उस पार्टी में जुगाड़ फिट किया जाता है।प्रापर मुद्दा ढ़ूढ़कर सही समय पर नेता अपने अनुयायियो की ताकत के साथ दल बदल कर डालता है।  वोटर का  दिल बदलने के लिये बाटल से लेकर साड़ी, कम्बल, नोट बांटने के फंडे अब पुराने हो चले हैं।जमाना हाईटेक है, अब मोबाईल, लेपटाप, स्कूटी, साईकिल बांटी जाती है।पर जीतता वो है जो सपने बांट सकने में सफल होता है।सपने अमीर बनाने के, सपने घर बसाने के, सपने भ्रष्टाचार मिटाने के।सपने दिखाने पर अभी तक चुनाव आयोग का भी कोई प्रतिबंध नही है।तो आइये सच्चे झूठे सपने दिखाईये, लुभाईये और जीत जाईये।फिर सपने सच न कर पाने की कोई न कोई विवशता तो ब्यूरोक्रेसी ढ़ूंढ़ ही देगी।और तब भी यदि आपको अगले चुनावो में दरकिनार होने का जरा भी डर लगे तो निसंकोच दिल बदल लीजीयेगा, दल बदल कर लीजीयेगा।आखिर जनता को सपने देखने के लिये एक अदद नेता तो चाहिये ही, वह अपना दिल फिर बदल लेगी आपकी कुर्बानियो और उसूलो की तारीफ करेगी और फिर से चुन लेगी आपको अपनी सेवा करने के लिये।ब्रेक अप के झटके के बाद फिर से नये प्रेमी के साथ नया सुखी संसार बस ही जायेगा।दिल बदल बनाम दलबदल,  लोकतंत्र चलता रहेगा।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव 

ए-1, एमपीईबी कालोनी, शिलाकुंज, रामपुर, जबलपुर, मो. ७०००३७५७९८

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆ हाउसवाइफ ☆ – श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं ”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं।  आज प्रस्तुत है उनकी लघुकथा  “हाउसवाइफ ”। )

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी की लघुकथाएं – #13 ☆

 

☆ हाउस वाइफ ☆

 

वह भरे-पूरे परिवार में रहती थी जहा उसे काम के आगे कोई फुर्सत नहीं मिलाती थी. मगर फिर भी वह उस मुकाम तक पहुच गई जिस की कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है.

उस ने कई दिग्गजों को हरा कर “मास्टर शेफ” का अवार्ड जीता था. यह उस की जीवन का सब से बड़ा बम्पर प्राइज था.

“आप  अपनी जीत का श्रेय किसे देना चाहती है ?” एक पत्रकार ने उस से पूछा

“मैं एक  हाउस वाईफ हूँ और मेरी जीत का श्रेय मेरे भरे- पूरे परिवार को जाता है जिस ने नई-नई डिश की मांग कर-कर के मुझे एक बेहत्तर कुक बना दिया. जिस की वजह से मैं ये मुकाम हासिल कर पाई हूँ.”

 

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) मप्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ सुजित साहित्य # 13 – मी……! ☆ – श्री सुजित कदम

श्री सुजित कदम

 

(श्री सुजित कदम जी  की कवितायेँ /आलेख/कथाएँ/लघुकथाएं  अत्यंत मार्मिक एवं भावुक होती हैं। इन सबके कारण हम उन्हें युवा संवेदनशील साहित्यकारों में स्थान देते हैं। उनकी रचनाएँ हमें हमारे सामाजिक परिवेश पर विचार करने हेतु बाध्य करती हैं।  मैं श्री सुजीत जी की अतिसंवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी रचनाओं का कायल हो गया हूँ। पता नहीं क्यों, उनकी प्रत्येक कवितायें कालजयी होती जा रही हैं, शायद यह श्री सुजीत जी की कलम का जादू ही तो है!  निश्चित ही श्री सुजित  जी इस सुंदर रचना के लिए भी बधाई के पात्र हैं। हमें भविष्य में उनकी ऐसी ही हृदयस्पर्शी कविताओं की अपेक्षा है। प्रस्तुत है श्री सुजित जी की अपनी ही शैली में  हृदयस्पर्शी  कविता   “मी….!”। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ – सुजित साहित्य #13 ☆ 

 

☆ मी….! ☆ 

 

एकटाच रे नदीकाठी या वावरतो मी

प्रवाहात त्या माझे मी पण घालवतो मी

 

सोबत नाही तू तरीही जगतो जीवनी

तुझी कमी त्या नदीकिनारी आठवतो मी

 

हात घेऊनी हातात तुझा येईन म्हणतो

रित्याच हाती पुन्हा जीवना जागवतो मी

 

घेऊन येते नदी कोठूनी निर्मळ पाणी

गाळ मनीचा साफ करोनी लकाकतो मी.

 

एकांताची करतो सोबत पुन्हा नव्याने

कसे जगावे शांत प्रवाही सावरतो मी .

 

©सुजित कदम

मो.7276282626

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – पंचम अध्याय (18) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 (ज्ञानयोग का विषय)

 

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।

शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥

 

ब्राम्हण,गौ,हाथी तथा कुत्ता या चाण्डाल

इन सबको समभाव से लखते वे हर काल।।18।।

 

भावार्थ :  वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते हैं।18।।

 

Sages look with an equal eye on a Brahmin endowed with learning and humility, on a cow, on an elephant, and even on a dog and an outcaste. ।18।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – नाटक ☆ सदाचार का तावीज ☆ – श्री वसंत काशीकर

श्री वसंत काशीकर

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ  नाट्यकर्मी  श्री वसंत काशीकर जी  का हृदय से आभार।  आज हम प्रस्तुत कर रहे हैं श्री काशीकर जी द्वारा परसाई जी की  रचना  का नाट्य रूपान्तरण  “सदाचार का  तावीज “।)

 

✍  नाटक – सदाचार का तावीज  ✍

 

सूत्रधार – एक राज्य में बहुत भ्रष्टाचार था, जनता में बहुत ज्यादा विरोध था। लोग हलाकान थे। समझ में नही आ रहा था कि भ्रष्टाचारियों के साथ क्या सलूक किया जाये। बात राजा के पास पहुंची।

(लोग राज दरबार को दृश्य बनाते है)

राजा- (दरबारियों से) प्रजा बहुत हल्ला मचा रही है कि सब जगह भ्रष्टाचार फैला हुआ है। हमें तो आज तक कहीं दिखा। तुम्हें कहीं दिखा हो तो बताओ।

दरबारी- जब हुजूर को नही दिखा तो हमें कैसे दिख सकता है।

राजा- नहीं ऐसा नहीं है। कभी-कभी जो मुझे नही दिखता तुम्हें दिखता होगा। जैसे मुझे कभी बुरे सपने नही दिखते पर तुम्हें दिखते होंगे।

दरबारी- जी, दिखते हैं। पर वह सपनों की बात है।

राजा – फिर भी तुम लोग सारे रज्य में ढूंढकर देखो कि कहीं भ्रष्टाचार तो नहीं हैं। अगर कहीं मिल जाये तो हमारे देखने के लिए नमूना लेते आना। हम भी देखंे कि कैसा होता है।

दरबारी- महाराज वह हमें नही दिखेगा। सुना है वह बहुत बारीक होता है। हमारी आंखें आपकी विरारता देखने की इतनी आदी हो गयी है कि हमें बारीक चीज दिखती ही नही है

हमें भ्रष्टाचार दिखा भी तो उसमें हमें आपकी छबि दिखेगी, क्योकि हमारी आंखों में तो आपकी सूरत बसी है।

दरबारी 2 महाराज अपने राज्य में एक जाति है। जिसे विशेषज्ञ कहते है। इस जाति के पास ऐसा अंजन होता है कि वे उसे आंखों में आंजकर बारीक से बारीक चीज़ भी देख लेते हैं।

दरबारी 3 हां महाराज! हमारा निवेदन है क इन विशेषज्ञों को ही हुजूर भ्रष्टाचार ढूंढने का काम सौंपें।

राजा- ठीक है हमारे सामने ऐसे विशेषज्ञ जाति के आदमी हाजिर किये जाये।

सभी (मुनादी जैसे) – विशेषज्ञ हाजिर हो….

पांच लोग विशेषज्ञ बनकर आते है, उन्हे एक आदमी जानवरों जेसा हांककर लाता है

आदमी- महाराज ये इस राज्य के पांच विशेषज्ञ हैं।

राजा- सुना है, हमारे राज्य में भ्रष्टाचार है, पर वह कहां है, यह पता नही चलता। अगर तिल जाये तो पकड़कर हमारे पास ले आना।

सूत्रधार- विशेषज्ञों ने उसी दिन से पूरे राज्य में छानबीन शुरू कर दी। और दो महीने बाद फिर से दरबार में हाजिर हुए।(दरबार का दृश्य)

राजा- विशेषज्ञों तुम्हारी जांच पूरी हो गई ?

विशेषज्ञ- जी सरकार ।

राजा- क्या तुम्हें भ्रष्टाचार मिला ?

विशेषज्ञ- जी बहुत सारा मिला।

राजा- (हाथ बढाते हुए) – लाओ, मुझे बताओ। देखूं कैसा होता है

विशेषज्ञ 1 हुजूर, वह हाथ की पकड़ में नही आता। वदस्थूल देखा नही जा सकता, अनुभव किया जा सकता है।

राजा– (सोचते हुए टहल रहे है)-विशेषज्ञों तुम लोग कहते हो वह सूक्ष्म है, अगोचर है और सर्वव्यापी है। ये गुण तो ईश्वर के है। तो क्या भ्रष्टाचार ईश्वर हैं ?

विशेषज्ञ (सभी) – हां महाराज, अब भ्रष्टाचार ईश्वर हो गया है।

दरबारी 1- पर वह है कहां ? कैसे अनुभव होता है।

विशेषज्ञ – वह सर्वत्र है। इस भवन में है। महाराज के सिंहासन में है।

राजा- सिंहासन में…- कहकर उछलकर दूर खडे़ हो गये।

विशेषज्ञ- हां सरकार सिंहासन में है। पिछले माह इस सिंहासन पर रंग करने के जिस बिल का भुगतान किया गया है, वह बिल झूठा है। वह वास्तव से दुगने दाम का है। आधा पैसा बीच वाले खा गये । आपके पूरे शासन में भ्रष्टाचार है और वह मुख्यतः घूस के रूप में है।

            (सभी दरबारी एक दूसरे से काना फूंसी करते है,राजा चिंतित है।)

राजा- यह तो बड़भ् चिंता की बात है। हम भ्रष्टाचार बिल्कुल मिटाना चाहते है। विशेषज्ञों क्या तुम बता सकते हो कि वह कैसे मिट सकता है ?

विशेषज्ञ- हां महाराज, हमने उसकी योजना तैयार की है। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए महाराज को वर्तमान व्यवस्था में बहुत से परिवर्तन करने होंगे। भ्रष्टाचार के मौके ही मिटाने होगें। जैसे ठेका है तो ठेकेदार है, ठेकेदार है तो अधिकारियों की घूस हैं। यदि ठेका मिट जाये तो उसकी घूस मिट जायेगी। इसी तरह बहुत सी चीजें है जिन कारणों से आदमी घूस लेता है, उस पर विचार करना होगा।

राजा- अच्छा आप लोग अपनी पूरी योजनाऐं रख जाये। हम और हमारा दरबार उस पर विचार करेंगे

            (दरबार का दृश्य समाप्त, विशेषज्ञ चले गये)

सूत्रधार- राजा और दरबारियों ने भ्रष्टाचार मिटाने की योजना को पढ़ा। उस पर विचार करते दिन बीतने लगे और राजा का स्वास्थ बिगड़ने लगा। एक दिन एक दरबारी ने राजा से कहा…

दरबारी 1- महाराज चिंता के कारण आपका स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। उन विशेषज्ञों ने आपको झंझट में डाल दिया है।

राजा-  हां मुझे रात को नींद नही आती।

दरबारी 2- ऐसी रिपोर्ट को आग के हवाले कर देना चाहिऐ जिसके कारण महाराज की रातों की नींद में खलल पड़ा है।

राजा-  पर करें क्या ? तुम लोगो ने भी तों भ्रष्टाचार मिटाने की योजना का अध्ययन किया है। तुम लोगो का मत है क्या ? उसे काम में लाना चाहिए।

दरबारी 3- महाराज यह योजना क्या है, एक मुसीबत है। उसके अनुसार कितने उलटफेर करने पडेंगे। कितनी परेशानी होगी। सारी व्यवस्था उलट-पुलट हो जायेगी।

दरबारी 4- जो चला आ रहा है, उसे बदलने से नई-नई कठिनाईयां पैदा हो सकती है।

दरबारी 1- हमें तो कुछ ऐसी तरकीब चाहिए जिससे बिना कुछ उलटफेर किये भष्टाचार मिट जाये।

राजा- मैं भी यह चाहता हूं पर हो कैसे ? हमारे प्रपितामाह को तो जादू आता था, हमें तो वह भी नही आता। तुम लोग ही कोई उपाय खोजो।

            (दरबार का सीन विलोप)

सूत्रधार- सभी दरबारी अलग-अलग दिशाओं में चल पडे़ पूरे राज्य का सरकारी दौरा किया। बिना भ्रष्टाचार में लिप्त हुए पूरा राज्य घूमा। स्थितियों का जायजा लिया। और उपाय खोजते रहे। आखिर उपाय मिल गया। उन्होने एक दिन दरबार में राजा के सामने एक साधु को पेश किया।

            (दरबार का दृश्य)

दरबारी 1- महाराज ‘‘एक कन्दरा में तपस्या करते हुए हमने इन महान साधक को देखा, ये चमत्कारी है। इन्होनें एक सदाचार का ताबीज बनाया है। वह मंत्रों से सिद्ध है, इसे पहनते ही आदमी एकदम सदाचारी हो जाता है।

(साधु ने अपने झोले से तबीज निकालकर राजा को दिया)

राजा- हे साधु, इस ताबीज के बारे मंे मुझे विस्तार से बताओ। इससे आदमी सदाचारी कैसे हो जाता है ?

साधु- महाराज, भ्रष्टाचार और सदाचार मनुष्य की आत्मा में होता हैं, बाहर से नही होता। विधाता जब मनुष्य को बनाता है तब किसी की आम्ता में ईमान की कला फिट कर देता है और किसी की आत्मा में बेईमानी की। इस कला में से इमान या बेईमानी के स्वर निकलते है, जिन्हे ‘‘आत्मा की पुकार‘‘ कहतेह है आत्मा की पुकार के अनुसार ही आदमी काम करता है।

राजा- जिनकी आत्मा से बेईमानी के स्वरे निकलते है उनसे कैसे ईमान के स्वर निकाले जायेंगे।

साधु- यही मूल प्रश्न है। मै कई वर्षो से इसी के चिंतन में लगा हूं। अभी मैने यह सदाचार का ताबीज़ बनाया है। जिस आदमी की भुजा पर यह बंधा होगा वह सदाचारी हो जायेगा। मैंने कुत्ते पर भी प्रयोग किया है। यह ताबीज गले में बांध देने से कुत्ता भी रोटी नही चुराता।

            (राजा और दरबारी आश्चर्य चकित हैं)

राजा- और कुछ कुछ बताईये इस ताबीज़ के विषय में। इससे तो राज्य में चमत्कार हो जायेगा, ईमान की गंगा बह निकलेगी।

दरवारह कुछ और बताईए साधु जी ?

साधु- बात यह है कि इस ताबीज़ मे भी सदाचार के स्वर निकलते है। जब किसी की आत्मा बेईमानी के स्वर निकलने लगती है तब इस ताबीज़ की शक्ति आत्मा को गला घोंट देती है और आदमी को ताबीज़ के ईमान के स्वर सुनाई पड़ते है। वह इन स्वरों को आत्मा का स्वर समझकर सदाचार की ओर प्रेरित होता है। यही इस ताबीज का गुण है महाराज।

दरबारी- धन्य हो साधु महाराज।

राजा- मुझे नही मालूम था मेरे राज्य में ऐसे चमत्कारी साधु भी है। हम आपके आभारी हैं। आपने हमारा संकट दूर किया। हम सर्वव्यापी भ्रष्टाचार से परेशान थे। मगर हमें करोड़ो की संख्या में ताबीज चाहिए।

हम राज्य की ओर से ताबीज़ो का एक कारखाना खोल देते है, आप उसके जनरल मैनेजर होगे और आपकी देखरेख में ताबीज़ बनाये जायें।

दरबारी 1- महाराज, राज्य क्यों संकट में पडे़ ? मेरा तो निवेदन है कि इसका ठेका साधु बाबा को दे दिया जाय।

दरबारी 2 हमारा सुझाव है कि साधुबाबा को हरिद्वार में सौ दो सौ एकड़ जमीन दे दी जाय एवं फैक्ट्री खोलने के लिए सरकारी मदद। हरिद्वार पवित्र भूमि है, गंगा किनारे लगी फैक्ट्री से पवित्र सदाचार के ताबीज बनेगें।

राजा – सुझाव मंजूर है। इस पर शीघ्र अमल किया जावे।

            (दरबार समाप्त)

सूत्रधार- सरकार की अनुदान योजना के अंतर्गत साधु बाबा हरिद्वार में ताबीज़ बनाने का कारखाना खुल गया। दो सौ करोड़ रूपये तबीज़ सप्लाई करने बतौर पेशगी राजा ने बाबा को दिये। राज्य के अखबारों में खबर आ गई । भ्रष्टाचारियों को चिंता सताने लगी। लाखों ताबीज़ बन गये। हर कर्मचारी की भुजा में सदाचार का ताबीज़ बांध दिया गया।

भ्रष्टाचार की समस्या का ऐसा हल निकल जाने से राजा और दरबारी खुश थे।

एक दिन राजा की उत्सुकता जागी और उन्होंने सोचा पता लगाया जाये सदाचार का ताबीज़ कैसे काम कर रहा है। वह वेश बदलकर एक कार्यालय पहुचें। जिस दिन पहुंचे महिने की दो तारीख थी।

राजा (एक कर्मचारी के पास) – मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (उसे सौ रूपये का नोट ेने लगता है)

कर्मचारी- भाग जा यहां से। घूस लेना पाप है।

            राजा खुश होकर चला जाता है – दृश्य लोप

सूत्रधार- राजा बहुत खुश हुए। कुछ दिन बाद राजा फिर वेश बदलकर उसी कर्मचारी पास उसी दफतर में गये उस दिन महिने का आखिरि दिन 31 तारीख थी।

            (कार्यालय का दृश्य)

राजा-  मुझे जाति प्रमाण पत्र बनवाना है। (सौ रूपये का नोट देता है ) कर्मचारी नोट लेकर अपनी जेब में रख लेता है,

राजा (कर्मचारी का हाथ पकड़ते हुए) – मै तम्हारा राजा हूं। क्या तुम आ सदाचार का ताबीज बांधकर नहीं आये।

कर्मचारी- बांधा है सरकार ये देखिये (अस्तीन चढ़ाकर दिखाता है)

सूत्रधार- राजा असमंजस में पड़ गये, सोचने लगे ताबीज़ पहनने के बाद भी ऐसा कैसे हुआ ? क्या ताबीज़ का असर कम हो गया है। राजा ने ताबीज़ पर कान लगाया और सुना –

(सभी कलाकार एक विशेष फार्मेशन में राजा कर्मचारी के ताबीज़ के ऊपर कान लगाये है)

आवाज- (एक साथ) अरे आज इक्कतीस तारीख है, आज तो ले ले …

 

गीत – भरत व्यास

 

मालिक तेरे बंदे हम, ऐसे हो हमारे करम

नेकी पर चलें और बदी से डरें

ताकी हंसते हुए निकले दम

ऐ मालिक तेरे बंदे हम …

बड़ा कमजोर है आदमी, अभी लाखों है इसमें कमी

पर तू जो खड़ा, है दयालु बड़ा, तेरी कृपा से धरती थमी

दिया तूने हमें जब जनम, तू ही झेलेगा हम सब के गम

नेकी पर चले और बदी से डरे, ताकि हंसते हुए निकले दम

ऐ मालिक तेरे बंदे हम….

 

© वसंत काशीकर 

जबलपुर, मध्यप्रदेश

image_print

Please share your Post !

Shares
image_print