हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – चयन ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  चयन

 

‘न रूप न रंग, न स्टाइल न स्मार्टनेस, न हाई पैकेज न गवर्नमेंट जॉब, न खानदानी रईस, न जागीरदार..,’ खीजकर उसकी सहेली बोले जा रही थी।..’कैसे हाँ कह दी? आख़िर क्या देखा तुमने इस लड़के में?’

 

‘…साथ चलने और साथ जीने की संभावना..,’  मुस्कराते हुए उसने उत्तर दिया।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 10.45 बजे,27.11.19

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होत आहे रे # 15 ☆ श्रीमंती ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

 

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है. इसके अतिरिक्त  ग्राम्य परिवेश में रहते हुए पर्यावरण  उनका एक महत्वपूर्ण अभिरुचि का विषय है. श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ – केल्याने होत आहे रे ”  की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है  उनका  एक भावप्रवण  आलेख  श्रीमंती। )

☆ साप्ताहिक स्तंभ –केल्याने होतं आहे रे # 15 ☆

☆ श्रीमंती ☆

घराबाहेर पडले अन् चालायला सुरुवात केली तेवढ्यात ‘ आवं ताई..! आवाजाच्या दिशेनं पाहिलं तर रस्त्याकडेला कधीमधी बसणारी वयस्कर बाई मला बोलावीत होती.मी म्हटलं, कां हो..?

तशी ती जरा संकोचल्यासारखी झाली न् म्हणाली..”ताई तुमच्या अंगावरलं लुगडं लयी झ्याक दिसतया बगा.!”

मी हसून पुढं चालायला लागले तशी ती पट्कन म्हणाली मला द्याल कां वं ह्ये लुगडं..?अक्षी म ऊशार  सूत हाय असलं मला कुनीबी देत न्हाई वं ! हे थंडीच्या दिसांत लयी छान..! आन् आमाला ही असली देत्यात असं म्हणून तिनं अंगावरची सिंथेटिक साडी दाखवली.

मी थोडी विचारात पडले कारण मी नेसलेली साडी एका भव्य प्रदर्शनातल्या आंध्रप्रदेश स्टाॅलमधून मी नुकतीच खरेदी केली होती.आणि माझ्या आवडीचा ग्रे कलर,साडीचं सूत पोत अतिशय सुरेख मस्त कांबिनेशनची साडी मिळाल्याने मी हरकून गेले होते.आणि मी आज पहिल्यांदाच नेसले होते.

मी विचारात पडलेली पाहून ती बाई म्हणाली ताई तुमची इच्छा असल तरच द्या.

मी आता वेगळ्याच विचारात होते.मी अंगावरची साडी तिला कशी द्यावी. म्हणून तिला म्हटलं माझ्याकडे आणखी छान साडी आहे तुला आणून देते.तशी ती म्हणाली दुसरी नको..हीच …

तुमच्या अंगावर कायम सुती लुगडी असत्यात मला लयी आवडत्यात.पन् ही आजची माझ्या मनात भरलीया..!

मग मी म्हटलं हो हीच देईन पण अशीच कशी देऊ धुवून नंतर देते.

नंतरच्या रविवारी ती बसलेली मला दिसली मग मी घरुन धुवून इस्त्री करुन ठेवलेली ती साडी त्यावरचं ब्लाऊज व त्यावर  एक नवीन ब्लाऊजपीस असं तिच्या हातावर ठेवलं व तिला वाकून नमस्कार केला.तशी ती थोडी मागे सरकून म्हणाली हे काय वं ताई..? मला नमस्कार करताय.?

मग मी तिला म्हटलं मी तुला खूप वर्षापासून ओळखते.आज तू खूप दिवसांनी दिसलीस .पण पंचवीस तीस वर्षांपूर्वी आमचं हे घर शेणामातीच्या भिंतींचं होतं तेव्हा तूंच मला ते सारवण्यासाठी शेण आणून द्यायचीस.मला भिंती सावरायला घर साफ करायला मदत करायचीस.हे मी विसरले नाही.तेव्हा मी तुला नमस्कार करण्यात  वेगळं  काहीच नाही.

मी स्वत: नोकरी करत असल्याने मी तशी साडी केव्हाही घेऊ शकले असते पण आज तिला त्या साडीची जास्त गरज होती व तिच्या मनात ती भरली होती.

पुढच्या रविवारी जाताना माझं सहज लक्ष गेलं तर ती साडी नेसून मॅचिंग ब्लाऊज घालून उभी होती.मी तिच्याकडे पाहिलं तर तिच्या चेहऱ्याची श्रीमंती काही वेगळंच सांगत होती.मी भरुन पावले.

©®उर्मिला इंगळे

सातारा.

दिनांक:-२८-११-१९

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु!!




हिंदी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 17 ☆ समय की रेत ☆ – सौ. सुजाता काळे

सौ. सुजाता काळे

((सौ. सुजाता काळे जी  मराठी एवं हिन्दी की काव्य एवं गद्य  विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं ।  वे महाराष्ट्र के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल कोहरे के आँचल – पंचगनी से ताल्लुक रखती हैं।  उनके साहित्य में मानवीय संवेदनाओं के साथ प्रकृतिक सौन्दर्य की छवि स्पष्ट दिखाई देती है। आज प्रस्तुत है सौ. सुजाता काळे जी की पर्यावरण और मानवीय संवेदनाओं पर आधारित एक भावप्रवण कविता  “समय की रेत।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कोहरे के आँचल से # 17 ☆

☆ समय की रेत

समय की रेत छूटती जाए,
रे मनुज तेरे हाथों से…!
ये तो पल पल घटता जाए,
कण कण तेरे हाथों से….!

चढ़ता सूरज ढलता जाए,
तू क्यों सोचे बीता कल?
वर्तमान को देख ज़रा,
कण कण बीता तेरा कल।

तू समेट ले अपना मन,
अग्रसर हो ध्येय की ओर,
समय समय की राह चलेगा,
तू समय की राह पर चल।

© सुजाता काळे,

पंचगनी, महाराष्ट्र, मोब – 9975577684



हिन्दी साहित्य – नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 ☆ एवरेज ☆ – श्री प्रयास जोशी

श्री प्रयास जोशी

(श्री प्रयास जोशी जी का ई- अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत है। आदरणीय श्री प्रयास जोशी जी भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स  लिमिटेड भोपाल से सेवानिवृत्त हैं।  आपको वरिष्ठ साहित्यकार  के अतिरिक्त भेल हिंदी साहित्य परिषद्, भोपाल  के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। 

ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  करेंगे ।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने यात्रा संस्मरण श्री सुरेश पटवा जी की कलम से आप तक पहुंचाई एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक सतत पहुंचा रहे हैं।  हमें प्रसन्नता है कि  श्री प्रयास जोशी जी ने हमारे आग्रह को स्वीकार कर यात्रा  से जुडी अपनी कवितायेँ  हमें,  हमारे  प्रबुद्ध पाठकों  से साझा करने का अवसर दिया है। इस कड़ी में प्रस्तुत है उनकी कविता  “ सहारा  ”। 

☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण – कविता # 5 – एवरेज  ☆

 

फोटो देख,मित्र ने कहा-

अगली बार मैं भी चलूंगा

आप लोगों के साथ

—स्वागत है, बिल्कुल चलिये

हमारे साथ, किसी प्रकार की

कोई रोक-टोक और

फालतू तैयारी की

बहुत कम गुंजाइश है…

—लेकिन पहले

यह तो बताइये सर !

कि पैदल चलने में आदमी

अच्छा ऐवरेज

किस कारण से देता है

—अच्छे जूतों के कारण

—लाठी के कारण

—या फिर

कम बजन के कारण?

—इस बिषय में

हमारा अनुभव तो यह कहता है

कि इन सब के साथ

अगरआदमी / आनंद से भरी

इस कठिन यात्रा में

ड्रायफ्रुट की बजाए

दूध के साथ पोहा खाए तो

सुबह जल्दी उठने में

आना-कानी नहीं करता..

और अगर दूध में/बासी रोटी

गुड़ में मीड़ कर खाए

तो हर हाल में आदमी

18 किलो मीटर से

अधिक का ही/ ऐवरेज देगा…

 

©  श्री प्रयास जोशी

भोपाल, मध्य प्रदेश




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 – अंहकार चूर ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

 

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है   “अंहकार चूर।)

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य – # 19 ☆

☆ अंहकार चूर 

 

रावण के लिए यह आखरी रात्रि बहुत परेशानी भरी थी। वह सीधे भगवान शिव के मंदिर गया, जहाँ रावण को छोड़कर किसी को भी अंदर जाने की अनुमति नहीं थी। उसने शिव ताण्डव स्तोत्र से शिव की प्रार्थना करनी शुरू कर दी। भगवान शिव रावण के सामने प्रकट हुए और कहा, “रावण, तुमने मुझे क्यों याद किया?”

रावण ने उत्तर दिया, “हे महादेव! मैं आपको प्रणाम करता हूँ, मुझे लगता है कि आप अपने सबसे बड़ा भक्त को भूल गए हैं। मैं वही रावण हूँ जिसने आपके चरणों में अपने कई सिर समर्पित किए हैं। आप जानते हैं कि कुछ वानारों के साथ राम ने लंका पर आक्रमण किया है और मेरे सबसे बड़े बेटे इंद्रजीत सहित लंका के लगभग सभी महान योद्धाओं को मार डाला है, और ऐसा लगता है कि आप भी उनकी सहायता कर रहे हैं। हे भगवान! अब लंका में केवल रावण ही जीवित बचा है जो युद्ध लड़ सके। मैं कल के युद्ध में आपसे लंका की ओर से लड़ने का अनुरोध करता हूँ”

भगवान शिव मुस्कुराये और कहा, “रावण आप जानते हैं कि मैं उच्च और निम्न के बीच पक्षपात नहीं करता हूँ, और मैंने आपको और मेघनाथ को सभी संभव अस्त्र, शस्त्र और शक्तियों दी थी, जो तीनों लोकों में किसी के भी पास नहीं है। मैंने आपको यह भी चेतावनी दी कि किसी भी परिस्थिति में दूसरों के नुकसान पहुँचने के लिए उनका उपयोग नहीं करंगे, लेकिन आपने मेरे शब्दों पर ध्यान नहीं दिया । आप और आपके बेटे ने प्रकृति के सभी नियमों को अपनी इच्छा और हवस पूर्ति की लिए बार बार तोड़ा आपलोगों ने बार-बार अपराध किया है। आपने ‘रत’, पृथ्वी के वैश्विक कानून को अस्तव्यस्त किया है, इसलिए विनाश की देवी-निऋती आपसे बहुत प्रसन्न है । लेकिन निऋती का अर्थ विनाश है। तो वह आपको और आपके राज्य को नष्ट किए बिना कैसे छोड़ सकती है? तो भगवान विष्णु ने आपको अन्य देवताओं और देवियों के सहयोग से दंडित करने का निर्णय किया है । अब तुम्हारा समय आ गया है। कोई भी जो पाँच तत्वों के इस शरीर में आता है उसे एक दिन जाना ही होगा और कल आपका दिन है इस पंच तत्वों से निर्मित देह को त्यागने का। ओह ताकतवर रावण, क्या आप मृत्यु से भयभीत हो?”

निऋतीमृ त्यु के छिपे हुए इलाकों और दुःखों की हिंदू देवी है, एक दिक्पाल (दिशाओं के अभिभावक) जो, दक्षिण पश्चिम दिशा का प्रतिनिधित्व करती है। निऋती का अर्थ है रत की अनुपस्थिति, रत अर्थात अधिभौतिक, आधिदैविक, आधियात्मिक नियम जिनका पालन करने से ही सृष्टि चल रही है और यदि कोई इन नियमों या ब्रम्हांडीय चक्रों को तोड़ दे तो संसार में प्रलय आ जाती है। तो निऋती ही ब्रम्हांड की अव्यवस्था, विकार, अशांति आदि की देवी हुई । निऋती वैदिक ज्योतिष में एक केतु शासक नक्षत्र है, जो कि माँ कली और माँ धूमावती के रूप में दृढ़ता से जुड़ा हुआ है। ऋग्वेद के कुछ स्त्रोत में निऋती का उल्लेख किया गया है, अधिकांशतः संभावित प्रस्थान के दौरान उनसे सुरक्षा माँगना या उसके लिए निवेदन करना दर्शाया गया है। ऋग्वेद के उस लेख में उनसे बलिदान स्थल से प्रस्थान के लिए निवेदन किया गया है। अथर्व वेद में, उन्हें सुनहरे रूप में वर्णित किया गया है। तैत्तिरीया ब्राह्मण (I.6.1.4) में, निऋती को काले रंग के कपड़े पहने हुए अंधेरे के रूप में वर्णित किया गया है और उनके बलिदान के लिए उन्हें काली भूसी अर्पित की जाती हैं । वह अपने वाहन के रूप में एक बड़े कौवे का उपयोग करती हैं। वह अपने हाथ में एक कृपाण रखती हैं । पुराणिक कथा में निऋती को अलक्ष्मी के नाम से जाना जाता है। जब समुद्र मंथन किया गया था, तब उसमे से एक विष भी प्रकट हुआ था जिसे निऋती के रूप में जाना जाता था। उसके बाद देवी लक्ष्मी, धन की देवी प्रकट हुई। इसलिए निऋती को लक्ष्मी की बड़ी बहन माना जाता है। लक्ष्मी धन की अध्यक्षता करती हैं, और निऋती दुखों की अध्यक्षता करती है, यही कारण है कि उन्हें अलक्ष्मी कहा जाता है । इनके नाम का सही मूल उच्चारण तीन लघु स्वरों के साथ तीन अक्षर है: “नी-रत-ती”; पहला ‘र’ एक व्यंजन है, और दूसरा ‘र’ एक स्वर है ।
रावण ने उत्तर दिया, “मैं तीनों दुनिया का विजेता हूँ। मुझे मृत्यु का भय नहीं है, लेकिन यह मेरी ज़िंदगी में पहली बार है जब मैं हार देख रहा हूँ, तो ये भय हार का है, मृत्यु का नहीं”।

भगवान शिव ने उत्तर दिया, “सब कुछ शाश्वत है, इस दुनिया में कुछ भी नष्ट नहीं हो सकता है, केवल रूप बदलते हैं, आप नहीं जानते कि आप अपने पूर्व जन्मों में क्या थे? अपने आप को यहाँ या वहाँ संलग्न न करें, फिर सब कुछ आपका है । रावण, सब कुछ सापेक्ष है सफलता, हार, यहाँ तक कि आपका अहंकार भी, और जो पूर्ण है वह ब्रह्मांड में प्रकट ही नहीं होता है। तो आप अपनी जीत या हार की तुलना करके पूर्ण नहीं हो सकते हैं। अमरत्व इस ज्ञात संसार में उपस्थित ही नहीं है । जिसकी भी शुरुआत हुई है एक दिन वो खत्म होनी चाहिए। सृजन के पदानुक्रम के भीतर, संगठित परिसरों के चेतना, पदार्थों के रूप उपस्थित हैं, जिनकी अवधि समय की हमारी धारणा के संबंध में बहुत अधिक दिखाई देती है। इनमें से कुछ रूप हैं जिन्हें हम अमर कहते हैं। हमारी इंद्रियों, आत्माओं और देवताओं द्वारा किए गए लोगों की तुलना में अधिक सूक्ष्म संयोजनों के स्तर पर प्रपत्र फिर भी बहुतायत के क्षेत्र में हैं- प्रकृति का ज्ञानक्षेत्र । इस प्रकार देवता भी जन्म और मृत्यु के चक्र से बाहरनहीं होते हैं, हालकि मनुष्य के समय के मानदंडों में उनका जीवन बहुत ही लंबी अवधि का प्रतीत हो सकता है । रावण के रूप में आपकी भूमिका समाप्त हो गई है, लेकिन अगली भूमिका आपके लिए तैयार है। आपने रावण की अपनी भूमिका का आनंद लिया है, अब अगली भूमिका के लिए तैयार रहें, और इस तरह से युद्ध लड़े की आपका नाम तब तक लिया जाये जब तक की भगवान राम का”।

रावण ने कहा, “महानतम भगवान, मुझे जीवन के रहस्यों को समझने और मेरे हार के भय को दूर करने के लिए धन्यवाद। अब मैं कल अपनी अंतिम लड़ाई करने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ”।

 

© आशीष कुमार  




आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – अष्टम अध्याय (4) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

अष्टम अध्याय

(ब्रह्म, अध्यात्म और कर्मादि के विषय में अर्जुन के सात प्रश्न और उनका उत्तर )

 

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌।

अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ।।4।।

 

नाशवान अधिभूत है आद्यिदैव पुरूषार्थ

अहंभाव अधियज्ञ है,यही समझना सार।।4।।

            

भावार्थ :  उत्पत्ति-विनाश धर्म वाले सब पदार्थ अधिभूत हैं, हिरण्यमय पुरुष (जिसको शास्त्रों में सूत्रात्मा, हिरण्यगर्भ, प्रजापति, ब्रह्मा इत्यादि नामों से कहा गया है) अधिदैव है और हे देहधारियों में श्रेष्ठ अर्जुन! इस शरीर में मैं वासुदेव ही अन्तर्यामी रूप से अधियज्ञ हूँ।।4।।

 

Adhibhuta (knowledge  of  the  elements)  pertains  to  My  perishable  Nature,  and  the Purusha or soul is the Adhidaiva; I alone am the Adhiyajna here in this body, O best among the embodied (men)!।।4।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 26 ☆ ज़िन्दगी : एक हादसा ☆ – डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का आलेख “ज़िन्दगी : एक हादसा ”.   यह सच है कि स्त्री – पुरुष  जीवन के दो पहिये हैं। किन्तु, अक्सर जीवन में यह हादसा किसी एक पहिये के ही साथ क्यों ? इस संवेदनशील  एवं विचारणीय विषय पर सतत लेखनी चलाने के लिए डॉ मुक्त जी की लेखनी को  सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 26 ☆

☆ ज़िन्दगी : एक हादसा

 

अखबार की सुर्खियों या टी•वी• पर प्रतिदिन दिखाए जाने वाले हादसों को देख अंतर्मन उद्वेलित हो उठता है…आखिर कब बदलेगी इंसान की सोच? कब हम हर लड़की में बहन-बेटी का अक्स देखेंगे? कब इस समाज में सामंजस्य स्थापित होगा? कब दिल दहला देने वाली घटनाएं, हमारे मनोमस्तिष्क पर प्रहार नहीं करेंगी… हमें झिंझोड़ कर नहीं रख देंगी?

स्त्री-पुरुष सृजन-कर्त्ता हैं…एक-दूसरे के पूरक हैं… गाड़ी के दो पहियों के समान हैं। एक के बिना दूसरा अधूरा है, अस्तित्वहीन है। नियंता की अर्धनारीश्वर की कल्पना इसी का प्रमाण है। परन्तु पुरुष निरंकुश शासक की भांति सदैव सत्ता पर काबिज़ रहना  चाहता है। उसने औरत का हर रूप में शोषण किया है। जन्म से मृत्यु-पर्यन्त वह जुल्मों का शिकार होती है। आजकल तो मानव सृष्टि-नियंता की प्रकृति में भी हस्तक्षेप करने लगा है। सोनोग्राफी द्वारा लिंग की जांच करवा कर, कन्या-भ्रूण को  मिटा डालना सामान्य सी बात हो गई है। लड़कियों की घटती संख्या इसी का दुष्परिणाम है।

लड़की के जन्म होने पर सबके चेहरे लटक जाते हैं, घर में मातम-सा पसर जाता है… जिसका सबसे अधिक हर्ज़ाना प्रसूता को भुगतना पड़ता है। उस निर्दोष पर हर पल व्यंग्य-बाणों की बौछार की जाती है।वैसे भी उपेक्षा,अवमानना,प्रताड़ना और तिरस्कार तो औरत को धरोहर रूप में प्रदत्त हैं…जो उसे जन्म से ही सहन करने पड़ते हैं और अंतिम सांस तक वह सब स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। उसे तो केवल सहना है, कहना नहीं।

जन्म लेते ही उस बच्ची के साथ सौतेला व्यवहार प्रारम्भ हो जाता है। लड़के के जन्म पर हमारे यहां ताली बजाने की प्रथा है। गांव भर में मिठाई बांटी जाती है और घर-परिवार के लोगों का सीना फूल कर चौड़ा हो जाता है। उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता और उनका मस्तक गर्व से ऊंचा हो जाता है। बच्ची के पिता के साथ-साथ उसकी माता को भी घर-परिवार में सम्मान मिलता है क्योंकि उन्होंने उस परिवार को वारिस दिया है… वंश बढ़ाने वाले को जन्म देकर, उन पर अहसान किया है। वे भूल जाते हैं कि मां को उस अवसर पर समान प्रसव पीड़ा होती है, चाहे वह लड़का हो या लड़की। परन्तु उसके दर्द का अहसास किसे होता है? लड़की की मां को न तो आराम मिलता है, न ही अच्छा भोजन। उसे तो दी जाती हैं…सूखी रोटियां और कहा जाता है कि इसने तो पत्थर पैदा किया है… हमारे हाथ में भीख का कटोरा थमा कर रख दिया है और हमारा मस्तक सब के समक्ष झुका दिया है।

ऐसे कटु वचन उसे हरदम सहन करने पड़ते हैं। आप  ज़रा उस प्रसूता की मन: स्थिति का अनुमान लगाइए क्या गुज़रती होगी उस निरीह पर…जो उनकी बातों का उत्तर भी नहीं दे पाती। सो! उसे घुट- घुट कर मरना पड़ता है। तस्वीर का दूसरा पक्ष भी किसी से छिपा नहीं है।उस मासूम बच्ची की परवरिश मजबूरी समझ कर की जाती है।रूखा-सूखा उसकी परवरिश के लिए काफी समझा जाता है। वहीं फटे-पुराने वस्त्र उसके अलंकार होते हैं। अक्सर तो वह भाइयों की उतरन से ही गुज़ारा कर लेती है।घर-परिवार के लोगों की आंखें सदैव उस पर लगी रहती हैं। छोटे से छोटे काम के लिए भी उसकी सेवाएं ली जाती हैं। रसोई के काम से लेकर छोटे भाई-बहिन को संभालने तक का दारोमदार उसके कंधों पर होता है।

हां! आजकल अनिवार्य शिक्षा योजना के अंतर्गत लड़कियों को स्कूल में दाखिल कराना, माता-पिता की मजबूरी बन गया है, परन्तु उसके हाथ में किताब देखते ही सबको आवश्यक काम याद आ जाते हैं और एक लम्बी फेहरिस्त उसके हाथों में थमा दी जाती है। वह बेचारी दिन भर सबका हुक्म बजाती रहती है। यदि वह मासूम किसी पल, किसी तरह का प्रतिरोध करती है या भाई से कोई काम न करवाने की शिकायत करती है, तो उसे डांट-फटकार कर या पीटकर चुप करा दिया जाता है।

‘तुम भाई से मुकाबला करती हो…अरे! वह तो घर का चिराग है। परिवार का नाम रोशन करेगा वह और तू तो थोड़े दिन की मेहमान है यहां, दूसरे घर चले जाना है तुझे। जानती है…तू पराई अमानत है।’ बचपन से ही उसे यह सब उसे समझा दिया जाता है कि इस घर से उसका स्थाई संबंध नहीं है। थोड़े दिनों के पश्चात् वह मासूम वहां से रुख्सत हो जाती है, यह सोच कर कि पति का घर अब उसका अपना घर होगा। विवाह संपन्न होने के पश्चात्, विदाई के समय यह शब्द उसके हृदय पर कुठाराघात करते हैं कि ‘जिस घर से डोली उठती है, अर्थी वहां से नहीं उठती। सो! अब उसे उस घर की चौखट से बाहर कदम नहीं रखना है… अपनी सीमाओं में रहकर उस दहलीज़ को कभी नहीं लांघना है। वह उस घर में मेहमान की तरह आ सकती है, अपने पति के साथ …अन्यथा उसके लिए घर के द्वार खुले नहीं हैं।

वह मासूम एक नए माहौल में अजनबियों के मध्य, अपने अस्तित्व को नकार, सबकी इच्छाओं पर खरा उतरने में आजीवन प्रयासरत रहती है।वह कठपुतली की भांति सब के आदेशों की अनुपालना करती है, परन्तु फिर भी पराई समझी जाती है। उसका पति, जिसके साथ वह सात फेरों के बंधन में बंध कर आयी थी, वह उसे समझने का तनिक भी प्रयास नहीं करता। वह हर समय उसका तिरस्कार करता है क्योंकि पहले दिन ही उस अबला को स्पष्ट शब्दों में बतला दिया जाता है कि ‘वह अपने माता-पिता को भगवान से बढ़कर मानता है, उनकी पूजा-आराधना करता है और उससे भी यही अपेक्षित है।’

वह उसके परिजनों को एक भी ऐसा अवसर प्रदान नहीं करना चाहती, जिसके कारण उसे या उसके घर वालों को नीचा देखना पड़े। परन्तु उस घर में तो सी•सी•,टी•वी• कैमरे लगे होते हैं, परिवारजनों के रूप में…जिनकी आंखें हर पल उस पर लगी होती हैं…दोषारोपण करने में प्रतीक्षारत रहती हैं। उसकी हर क्रिया-प्रतिक्रिया व गतिविधि उन में कैद हो जाती है और अवसर मिलते ही अनेक उदाहरण देकर, उस पर असंख्य आक्षेप लगा दिए जाते हैं। यदि वह किसी अवसर पर अपना पक्ष रखना या प्रत्युत्तर देना चाहती है तो उसे एक भी शब्द न बोलने की हिदायत जारी कर दी जाती है। कई बार तो ऐसे अवसर पर पति लात-घूंसों का प्रयोग कर, अपने पुरुषत्व का प्रदर्शन करने में तनिक भी संकोच नहीं करता। धीरे- धीरे वह उसकी आदत बन जाती है और चुप रहकर सब कुछ सहना, उस मासूम की नियति।

वह समझ जाती है कि औरत को बचपन से लेकर अंतिम सांस तक, पहले पिता, फिर पति और जीवन के अंतिम पड़ाव में पुत्र के अंकुश में रहना है। वह अतीत में झांकती है, जहां अनगिनत हादसे उसके मनोमस्तिष्क को झिंझोड़ कर रख देते हैं और वह निष्कर्ष निकालती है कि सल्तनतें बदल जाती हैं, परंतु हालात वही रहते हैं। पिता,पति और पुत्र उसे अपनी बपौती समझ, क्रमानुसार मनमाना व्यवहार करते हैं। इन तीनों का प्रारम्भ ‘प’ से होता है। सो! उनकी  विचारधारा एक-दूसरे से अलग कैसे हो  सकती है?उनके व्यवहार को देखकर तो ऐसा लगता    है कि वे सब एक ही सांचे में निकाले गये हैं।इसलिये उनकी सोच व नज़रिया एक-सा होना स्वाभाविक है …वह भिन्न कैसे हो सकती है?

ज़रा ग़ौर कीजिए गोपियों की उन पंक्तियों पर, जो उन्होंने कृष्ण के मित्र उद्धव से कही थीं ‘यह मथुरा काजर की कोठरी, जे आवहिं ते कारे।’ परन्तु सतयुग से लेकर इक्कीसवीं सदी तक पुरुष की सोच में तनिक भी अंतर नहीं आया। सतयुग में इन्द्र का अप्सराओं संग काम-क्रीड़ा करना, गौतम ऋषि का अहिल्या को श्राप देना, त्रेता युग में भगवान राम का सीता को, एक धोबी के कहने पर राजमहल से निष्कासित करना, द्वापर युग में दुर्योधन और दु:शासन द्वारा द्रौपदी को भरी सभा में बालों से खींच कर लाना व उसका चीरहरण करना और कलयुग में तो औरत की अस्मत चौराहे पर ही नहीं, घर-घर में लूटा जाना… पुरुष समाज को कटघरे में खड़ा करता है। वास्तव में यह उसकी दूषित मानसिकता का परिणाम है।

इस तथ्य से तो सामान्यजन परिचित ही होंगे कि हमारे संविधान के कानून-निर्माता, वेदों-शास्त्रों के रचयिता पुरुष ही थे। सो! पुरुष के हितों को नज़र- अंदाज़ होने की कल्पना करना दूर की बात थी। सभी कायदे-कानून पुरुष की सुख-सुविधा के लिए बनाए गए थे। पुरुष को श्रेष्ठ व सामान्य औरत को दोयम दर्जे का समझा गया था। आधुनिक युग में भी औरत पुरुष के शिकंजे से मुक्त कहां हो पाई है? उसे तो आजीवन पुरुष के ज़ुल्मों का शिकार बनना पड़ता है और ओंठ सीकर सब कुछ चुपचाप सहना, उसकी नियति बन गई है। वह पुरुष द्वारा रचित चक्रव्यूह से लाख प्रयास करने पर भी आज तक मुक्त नहीं हो पाई है।

समय परिवर्तनशील है और ‘मौसम भी बदलते हैं/ /दिन रात बदलते हैं /यह समां बदलता है /ज़ज़्बात बदलते हैं / यादों से महज़ / दिल को मिलता नहीं सुक़ून /ग़र साथ हो सुरों का/ नग़मात बदलते हैं / हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं।’ मुझे तो इन पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता।अपनी सोच व अपनी काव्य पंक्तियों में तनिक भी सच्चाई का आभास नहीं होता, बल्कि काल्पनिकता का आभास होता है। जहां तक औरत के अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न है, वह-कल भी गुलाम थी, अस्तित्वहीन थी और आज भी उपेक्षित ही नहीं, प्रताड़ित व तिरस्कृत है।

अक्सर विचार-गोष्ठियों में चर्चा होती है, नारी सशक्तीकरण की… उसकी दशा के विषय में मैं तो यही कहना चाहूंगी कि विश्व की 90% औरतों की आज भी वही स्थिति है, जो हज़ारों वर्ष पहले थी। हां! उस पर आकर्षक आवरण चढ़ा दिया गया है,

उसे समानाधिकार का लॉलीपॉप थमा दिया गया है। परन्तु औरत के जीवन का कटु यथार्थ, उसकी परिस्थितियां, पुरुष के मन में उसके प्रति सोच, भावनाएं व अपेक्षाएं वही हैं…उनमें लेशमात्र भी परिवर्तन नहीं आया है।

अन्तत: मुझे यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि वास्तव में ज़िन्दगी एक हादसा है। कौन,कब, कहां, किस मोड़ पर मिल जाये… मानव इस तथ्य से अनभिज्ञ है…भविष्य में क्या होने वाला है…वह किस जन्म के कर्मों का फल, इस जन्म में भुगत रहा है, यह भी कोई नहीं जानता। परंतु जन्म-जन्मांतर का यह सिलसिला निरंतर चला आ रहा है। लाख प्रयास करने पर भी वह इन बंधनों से मुक्ति नहीं पा सकता क्योंकि’समय से पहले व भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता’ यह सृष्टि का अटल नियम है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878




हिन्दी साहित्य – ☆ लघुकथा ☆ नीरव प्रतिध्वनि ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

 

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है एक अतिसुन्दर सार्थक  लघुकथा   “नीरव प्रतिध्वनि”.)

 

☆ लघुकथा – नीरव प्रतिध्वनि ☆ 

 

हॉल तालियों से गूँज उठा, सर्कस में निशानेबाज की बन्दूक से निकली पहली ही गोली ने सामने टंगे खिलौनों में से एक खिलौना बतख को उड़ा दिया था। अब उसने दूसरे निशाने की तरफ इशारा कर उसकी तरफ बन्दूक उठाई। तभी एक जोकर उसके और निशानों के बीच सीना तान कर खड़ा हो गया।

निशानेबाज उसे देख कर तिरस्कारपूर्वक बोला, “हट जा।”

जोकर ने नहीं की मुद्रा में सिर हिला दिया।

निशानेबाज ने क्रोध दर्शाते हुए बन्दूक उठाई और जोकर की टोपी उड़ा दी।

लेकिन जोकर बिना डरे अपनी जेब में से एक सेव निकाल कर अपने सिर पर रख कर बोला “मेरा सिर खाली नहीं रहेगा।”

निशानेबाज ने अगली गोली से वह सेव भी उड़ा दिया और पूछा, “सामने से हट क्यों नहीं रहा है?”

जोकर ने उत्तर दिया, “क्योंकि… मैं तुझसे बड़ा निशानेबाज हूँ।”

“कैसे?” निशानेबाज ने चौंक कर पूछा तो हॉल में दर्शक भी उत्सुकतावश चुप हो गए।

“इसकी वजह से…” कहकर जोकर ने अपनी कमीज़ के अंदर हाथ डाला और एक छोटी सी थाली निकाल कर दिखाई।

यह देख निशानेबाज जोर-जोर से हँसने लगा।

लेकिन जोकर उस थाली को दर्शकों को दिखा कर बोला, “मेरा निशाना देखना चाहते हो… देखो…”

कहकर उसने उस थाली को ऊपर हवा में फैंक दिया और बहुत फुर्ती से अपनी जेब से एक रिवाल्वर निकाल कर उड़ती थाली पर निशाना लगाया।

गोली सीधी थाली से जा टकराई जिससे पूरे हॉल में तेज़ आवाज़ हुई – ‘टन्न्न्नन्न…..’

गोली नकली थी इसलिए थाली सही-सलामत नीचे गिरी। निशानेबाज को हैरत में देख जोकर थाली उठाकर एक छोटा-ठहाका लगाते हुए बोला, “मेरा निशाना चूक नहीं सकता… क्योंकि ये खाली थाली मेरे बच्चों की है…”

हॉल में फिर तालियाँ बज उठीं, लेकिन बहुत सारे दर्शक चुप भी थे उनके कानों में “टन्न्न्नन्न” की आवाज़ अभी तक गूँज रही थी।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749




हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन – ☆ संजय दृष्टि – अखंड महाकाव्य ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

 

☆ संजय दृष्टि  –  अखंड महाकाव्य

 

अखंड रचते हैं,

कहकर परिचय

कराया जाता है,

कुछ हाइकू भर

उतरे काग़ज़ पर

भीतर घुमड़ते

अनंत सर्गों के

अखंड महाकाव्य

कब लिख पाया,

सोचकर संकोच

से गड़ जाता है!

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

सुबह 9.24, 20.11.19

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]




हिन्दी साहित्य – साहित्य निकुंज # 24 ☆ कविता ☆ परिभाषित ☆ – डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची ‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है  उनकी कविता परिभाषित। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – # 24  साहित्य निकुंज ☆

☆ परिभाषित

 

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

मन की क्या भाषा लिखूं।

प्रेम की क्या परिभाषा लिखूं।

चिंतनता का बिंदु क्या

सागर का सिंधु क्या

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

 

आत्मा की गहराई में तुम

प्यार की ऊंचाई क्या?

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित

 

तुम ही हो देवत्व स्वरूप

देवत्व की पहचान क्या?

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित।

 

लिख रहे है खुशबुओं से

मन के मीत हो तुम ही

जीवन का संगीत तुम ही

कैसे करूं

तुम्हें परिभाषित ।

 

जीवन की आभा तुम ही

सुर की साधना तुम ही

प्रेम का संगीत तुम ही

कर दिया तुम्हें परिभाषित।

 

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

wz/21 हरि सिंह पार्क, मुल्तान नगर, पश्चिम विहार (पूर्व ), नई दिल्ली –110056

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]