हिन्दी साहित्य- लघुकथा ☆ विवशता ☆ डॉ . प्रदीप शशांक

डॉ . प्रदीप शशांक 

(डॉ प्रदीप शशांक जी द्वारा रचित बदलते सामाजिक परिवेश पर विवशता पर विचार करने योग्य एक सार्थक लघुकथा   “ विवशता ”.)

☆ लघुकथा – विवशता

मोहनलाल की लड़की सुंदर , सुशील, संस्कारित एवं गृह कार्य में दक्ष थी । बचपन से मिले सुसंस्कार एवं शर्मीले स्वभाव के कारण वह वर्तमान परिवेश की आधुनिकता से कोसों दूर थी । पढ़ने में रुचि होने के कारण स्नातक होने के बाद अन्य विभिन्न डिग्रियों को प्राप्त करते -करते उसकी उम्र 28 वर्ष हो चुकी थी।

मोहनलाल अपनी लड़की की शादी हेतु बहुत परेशान थे। रिश्ते आ तो बहुत रहे थे, लेकिन लड़के वालों की मांग उनकी हैसियत से बहुत अधिक होने के कारण वे मन मसोस कर रह जाते।

एक शाम वे आफिस से घर पहुंचे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा – “क्यों जी, आपने कुछ सुना, मेहता साहब की लड़की ने लव मैरिज कर ली, घर से भाग कर।”

पत्नी की बात सुन वे गुमसुम से अपने अंदर उठते विचारों के अंतर्द्वंद्व में उलझ से गये ।वे सोचने लगे कि कालोनी के नामचीन इंजीनियर मेहता साहब, जिनके पास आधुनिक विलासिता से युक्त समस्त सुविधा है, लक्ष्मी की असीम कृपा से उनके घर पर मानो रुपयों की बाढ़ आती है। वे अपनी लड़की की शादी में लाखों रुपये सिर्फ दिखावटी तामझाम पर खर्च कर सकते हैं, लेकिन उन्हें कुछ भी खर्च नहीं करना पड़ा।

और एक वे हैं , जो अपनी लड़की की शादी पर्याप्त धन न होने के कारण नहीं कर पा रहे हैं। काश उनकी लड़की भी …..।

© डॉ . प्रदीप शशांक 

37/9 श्रीकृष्णपुरम इको सिटी, श्री राम इंजीनियरिंग कॉलेज के पास, कटंगी रोड, माढ़ोताल, जबलपुर ,मध्य प्रदेश – 482002
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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ सौंदर्य और प्रेम ☆ श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी “

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है। आज प्रस्तुत है श्रीमती  हेमलता मिश्रा जी की  एक अतिसुन्दर भावप्रवण कविता  सौंदर्य और प्रेम)

सौंदर्य और प्रेम  

सौंदर्यबोध

मन के प्रेम का चित्रण अबोध

आंखों के कैनवास पर

मन की तूलिका उकेरती

प्रीति की रीति, स्नेह की नीति

और वात्सल्य की पाती।।

सौंदर्य परिभाषा

उभरती प्रेम की भाषा

आंखों और मन की सँवरती पुतलियों में!!

मां की आंखों में

काला कलूटा बेटा

कान्हा श्यामसुंदर है

और बालक के मन में शूर्पणखा

सी मां

जग से न्यारी है सबसे प्यारी है – – –

सौंदर्य और प्रेम और कुछ नहीं

मन और आंखों का आशीष है–

दिल में बसा ईश है और प्रेम हर एक के हदय में बसा प्रेम मंदिर है।।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” 

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – विचार – 2

तुम सहमत मत होना

मेरे विचार से,

यदि हो भी जाओ

तो मत करना समर्पण,

बचा रखना

झीनी-सी अंतररेखा..,

अंतररेखा के

इस पार मैं

उस पार तुम,

चिंतन करना

मनन करना

मंथन करना,

मेरे-तुम्हारे

विचारों की बिलोई

उत्पन्न करेगी नया आविष्कार..,

आविष्कार उस आग का

जो चकमक के

आपसी घर्षण से

जन्मती है और सचमुच

गलानेे लगती है दाल,

सेंकने लगती है रोटियाँ;

उन अर्थों में नहीं

जिन्हें मुहावरों के आवरण में

बदनाम कर रखा है शब्दकोशों ने,

आग से सचमुच

भरता है भूख का कुआँ

बुझती है पेट की आग..,

इस आग को

सदैव जलाये और

जिलाए रखना मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है” – श्री नरेंद्र पुण्डरीक ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री  नरेंद्र पुण्डरीक के विचार “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” ।)

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☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है ” – श्री नरेन्द्र पुण्डरीक ☆

 

स्त्रियां घर लौटती हैं’ के लिए वरिष्ठ कवि एवं सम्पादक ‘माटी’ आदरणीय श्री नरेन्द्र पुण्डरीक जी की टिप्पणी…

विवेक चतुर्वेदी कविता संकलन “स्त्रियां घर लौटती हैं ” काफी दिन पहले मिला था । तब से पाठकों द्वारा इतना समादृत किया गया कि कविता के प्रति बढते लगाव को देख कर लगा कि  अच्छी कविता के प्रति पाठकों की भूख लगातार बनी हुई है।

जो लोग  कहते है कि कवितायेँ कौन पढता हैं उन्हें विवेक की यह कविताएं जरुर एक बार पढ़नी चाहिये।

जिन लोगों को कविता में भाव और भाषा का प्रीतिभोज अच्छा लगता है इन कविताओं में उन्हें प्रीतिभोज का उल्लास और तृप्ति दोनों मिलेगी।

इनमें मेरी अपनी भाषा का वह गौरव दिखाई दिया  जिन्हें पढ़ कर मैं भीतर तक भीग गया । बुन्देली शब्दों के गोथ की लम्बी यात्रा दिखाई दी।

स्त्रियों  को लेकर बहुत  ही श्रेष्ठ रचाव इन कविताओं में है। स्त्रियां  जो दिन भर सूरज के साथ उठ कर सूरज के साथ घर लौटती हैं।

विवेक की कविता समकालीन हिन्दी कविता की  गहरी आश्वस्ति है।

 

                                                    – नरेन्द्र पुण्डरीक

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आशीष साहित्य # 32 – चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान ☆ श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। अब  प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे  उनके स्थायी स्तम्भ  “आशीष साहित्य”में  उनकी पुस्तक  पूर्ण विनाशक के महत्वपूर्ण अध्याय।  इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  एक महत्वपूर्ण आलेख  “चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान। )

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ आशीष साहित्य # 32☆

☆ चन्द्रमा की गति और तिथि विज्ञान

अब ‘सोमवती के अर्थ को समझने की कोशिश करें, यह वह दिन है जो ‘सोम’ या ‘चंद्रमा’ का दिन है, जिसका अर्थ सोमवार है क्योंकि चंद्रमा का एक नाम ‘सोम’ भी है । तो सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या को सोमवती अमावस्या कहते हैं ।

सोमवार वह दिन है जब चंद्रमा ऊर्जा की अपने चरम पर होती है या ‘अमरता’ का ‘सोम-तरल’ वास्तव में चंद्रमा से गिरता है । दूसरी ओर, अमावस्या मेंपृथ्वी पर कोई चंद्रमा नहीं दिखता है । तो सोमवती अमावस्या उस समय की शुरुआत है जब पृथ्वी पर चंद्रमा की ऊर्जा का प्रवाह, शुद्ध और नए चक्र में शुरू होने वाली होती है । चंद्रमा की ऊर्जा हमारी मानसिक शक्तियों को प्रभावित करती है, जिसे हमारे शरीर के अंदर बायें ओर की शरीर नियंत्रक नाड़ी  ‘इड़ा’ द्वारा नियंत्रित किया जाता है । तो सोमवती अमावस्या के दिन मस्तिष्क शाँत रहता है और नए विचारों को एकत्र करने के लिए तैयार रहता है । कुछ नया विश्लेषण और योजना बनाने का यह सबसे अच्छा दिन होता है ।

ऐसे ही अश्विन माह के चन्द्रमा के शुक्ल पक्ष की अष्टमी रात्रि को जब चन्द्रमा ‘मूल’ नक्षत्र और सूर्य ‘कन्या’ राशि में होता हैऔर अगर इस समय पर चन्द्रमा नवमी तिथि को स्पर्श हो जाता है, तो वह समय अति अति पवित्र होता है । इसे ‘अघारदाना’ नवमी या ‘महा नवमी’ कहा जाता है ।

हमारे चंद्रमा का चक्र सूर्य की तुलना में हमारे सांस्कृतिक संस्कारों से अधिक जुड़ा हुआ है, हालांकि हमारे अधिकांश अनुष्ठान दिन के अनुसार सूरज की रोशनी से होते हैं । चन्द्रमा की तिथि हमारे समारोह और उत्सवों में महत्वपूर्ण तत्व हैं । धार्मिक अनुष्ठान के महीने चंद्र के चक्र पर ही निर्भर हैं । चंद्र महीनों के अनुसार दो प्रकार से गणना होती हैं: ‘गुणचंद्र’ – पूर्णिमा से अगले पूर्णिमा तक गिना जाता है; और ‘मुख्यचंद्र’ – नए चंद्रमा से अगले नए चंद्रमा तक गिना जाता है । जब दो संक्रांतियों (जब चंद्रमा महीने की अवधि के दौरान सूर्य का स्थानांतरण राशि चक्र की एक राशि से दूसरी में होता है) समय के बीच दो नए चंद्रमा होते हैं, तब कुछ अवलोकनों के लिए वह समय अनुपयुक्त माना जाता है । ‘गुणचंद्र’ मास (महीना) सामान्य रूप से जन्म तिथि, जन्माष्टमी, शिवरात्रि, पितृ पक्ष आदि की गणनाओं में उपयोग किया जाता है । परन्तु सालाना श्राद्ध की गणनाओं में ‘मुख्य चंद्र’ का उपयोग किया जाता है ।

इतना ही नहीं अगर ‘रविवार’ कुछ विशेष तिथियों, नक्षत्रों, महीनों के साथ जुड़ जाये तो उनका अलग अलग महत्व होता है । इनके नाम भी अलग-अलग हैं कुल बारह ।

‘माघ’ महीने के छठे उज्ज्वल आधे भाग पर (शुक्ल पक्ष की छटी या षष्‍ठी तिथि), पड़ने वाले रविवार को ‘नंदा’ कहा जाता है ।

भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में, इस रविवार को ‘भद्रा’ कहा जाता है ।

‘मार्गशीर्ष’ मास के शुक्ल पक्ष की छटी या षष्ठीम तिथि को पड़ने वाले रविवार को ‘कामदा’ कहा जाता है ।

दक्षिणायन में रविवार को ‘जया’ कहा जाता है जबकि उत्तरायण के रविवार को ‘जयंत’ कहा जाता है।

चन्द्रमा के रोहिणी नक्षत्र के साथ शुक्ल पक्ष की सप्तमी को पड़ने वाले रविवार को ‘विजया’ कहा जाता है ।

रविवार अगर चन्द्रमा के रोहिणी नक्षत्र या हस्ता नक्षत्र में पड़ रहा हो तो उसे ‘पुत्रदा’ कहा जाता है।

रविवार अगर ‘माघ’ माह के कृष्ण पक्ष की सप्तमी को पड़े तो उसे ‘ आदित्याभिमुख’ कहा जाता है।

संक्रांति को पड़ने वाले रविवार को ‘ह्रदय’ कहा जाता है, जो भी इस रविवार को सूर्य के सामने एक सूर्य मंदिर में खड़ा होकर ‘आदित्य ह्रदय’ मंत्र का 108 बार जाप करता है, उसे अपने सभी दुश्मनों को नष्ट करने के लिए महान शक्ति मिलती है । रावण के साथ युद्ध के दौरान एक समय पर, भगवान राम युद्ध के मैदान में थक गए थे । यह देखकर ऋषि ‘अगस्त्य’ उनके पास पहुँचे और उन्होंने भगवान राम को यह मंत्र सिखाया । जिससे भगवान राम को सूर्य की शक्ति मिली और उन्होंने पुनः नये उत्साह से रावण से युद्ध किया ।

‘पूर्व फाल्गुनी’ नक्षत्र पर पड़ने वाले रविवार को ‘रोगहा’ कहा जाता है ।

सूर्य ग्रहण अगर रविवार को तो ऐसे रविवार को ‘महाश्वेत-प्रिया’ कहा जाता है । इस रविवार को ‘महाश्वेत’ मंत्र का जाप बहुत फायदेमंद होता है ।

ये सभी रविवार क्या संकेत देते हैं? सूर्य भौतिक शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है और रविवार वह दिन होता है जब सोमवार, मंगलवार इत्यादि दिनों की तुलना में पृत्वी पर मंगल, चन्द्रमा, बुद्ध आदि अन्य ग्रह ऊर्जा की तुलना में सूर्य की ऊर्जा अधिकतम, ताजा और सबसे पहले पहुँचती है ।

 

© आशीष कुमार  

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मराठी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तंभ # 24 ☆ नवदुर्गांचीऔषधी नऊ रुपे ☆ – श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे

(वरिष्ठ  मराठी साहित्यकार श्रीमति उर्मिला उद्धवराव इंगळे जी का धार्मिक एवं आध्यात्मिक पृष्ठभूमि से संबंध रखने के कारण आपके साहित्य में धार्मिक एवं आध्यात्मिक संस्कारों की झलक देखने को मिलती है। श्रीमती उर्मिला जी के    “साप्ताहिक स्तम्भ ” में आज प्रस्तुत है  नौ देवियों के नवदुर्गा के औषधी रूप  कविता   “नवदुर्गांची औषधी नऊ रुपे”।  उनकी मनोभावनाएं आने वाली पीढ़ियों के लिए अनुकरणीय है।  ऐसे सामाजिक / पारिवारिक साहित्य की रचना करने वाली श्रीमती उर्मिला जी की लेखनी को सादर नमन। )

☆ नवदुर्गांचीऔषधी नऊ रुपे ☆ 

 

उपासना नवरात्री

आदिमाया देवीशक्ती

महालक्ष्मी महाकाली

बुद्धी दात्री सरस्वती !!१!!

 

नवरात्री तिन्हीदेवी

युक्त असे नऊ रुपे

औषधांच्याच रुपात

जगदंबेची ही रुपे !!२!!

 

श्रीमार्कण्डेय चिकित्सा

नवु गुणांनी युक्त ती

श्रीब्रह्मदेवही त्यास

दुर्गा कवच म्हणती !!३!!

 

नवु दुर्गांची रुपे ही

युक्त आहेत औषधी

उपयोग करुनिया

होती हरण हो व्याधी!!४!!

 

शैलपुत्री ती पहिली

रुप दुर्गेचे पहिले

हिमावती हिरडा ही

मुख्य औषधी म्हटले!!५!!

 

हरितिका म्हणजेच

भय दूर करणारी

हितकारक पथया

धष्टपुष्ट करणारी!!६!!

 

अहो कायस्था शरीरी

काया सुदृढ करीते

आणि अमृता औषधी

अमृतमय करीते !!७!!

 

हेमवती ती सुंदर

हिमालयावर दिसे

चित्त प्रसन्नकारक

तीच चेतकीही असे!!८!!

 

यशदायी ती श्रेयसी

शिवा ही कल्याणकारी

हीच औषधी हिरडा

सर्व शैलपुत्री करी !!९!!

 

ब्रह्मचारिणी दुसरी

स्मरणशक्तीचे वर्धन

ब्राह्मी असे वनस्पती

करी आयुष्य वर्धन!!१०!!

 

मन व मस्तिष्क शक्ती

करिते हो प्रदान ही

नाश रुधीर रोगाचा

मूत्र विकारांवर ही!!११!!

 

रुप तिसरे दुर्गेचे

चंद्रघण्टा नाम तिचे

चंद्रशूर, चमशूर

करी औषध तियेचे !!१२!!

 

चंद्रशूरच्या पानांची

भाजी कल्याणकारिणी

चर्महन्ती नाव तिचे

असे ती शक्तीवर्धिनी !!१३!!

 

चंद्रशूर, चंद्रचूर

कमी लठ्ठपणा करी

अहो हृदय रोगाला

हे औषध लयी भारी !!१४!!

 

रुप चवथे दुर्गेचे

तिला म्हणती कुष्माण्डा

आयुष्य वाढविणारी

तीच कोहळा कुष्माण्डा!!१५!!

 

पेठा मिठाई औषधी

पुष्टीकारी असे तीही

बल वीर्यास देणारी

युक्त हृदयासाठी ही !!१६!!

 

वायू रोग दूर करी

कोहळा सरबत ही

कफ पित्त पोट साफ

खावा कुष्माण्ड पाकही!!१७!!

 

रुप दुर्गेचे पाचवे

ही उमा पार्वती माता

हीच जवस औषधी

कफनाशी स्कंदमाता !!१८!!

 

रुप सहा कात्यायनी

म्हणे अंबाडी,मोईया

कण्ठ रोग नाश करी

हीच अंबा,अंबरिका !!१९!!

 

हिला मोईया म्हणती

हीच मात्रिका शोभते

कफ वात पित्त कण्ठ

नाश रोगांचा करीते !!२०!!

 

रुप दुर्गेचे सातवे

विजयदा,कालरात्री

नागदवण औषधी

प्राप्त विजय सर्वत्री !!२१!!

 

मन मस्तिष्क विकार

औषध विषनाशिनी

कष्ट दूर करणारी

सुंदर सुखदायिनी !!२२!!

 

रुप दुर्गेचे आठवे

नाम तिचे महागौरी

असे औषधी तुळस

पूजताती घरोघरी !!२३!!

 

रक्तशोधक तुळशी

काळी दवना,पांढरी

कुढेरक,षटपत्र

हृदरोग नाश करी!!२४!!

 

रुप दुर्गेचे नववे

बलबुद्धी विवर्धिनी

हिला शतावरी किंवा

अहो म्हणा नारायणी !!२५!!

 

बलवर्धिनी हृदय

रक्त वात पित्त शोध

महौषधी वीर्यासाठी

योग्य हेच हो औषध !!२६!!

 

दुर्गादेवी नऊ रुपे

अंतरंग भक्तीमय

करु औषधी सेवन

होऊ सारे निरामय !!२७!!

 

साभार:- लेख:-विवेक वि.सरपोतदार

लेखक भारतीय विद्येचे  lndologist व आयुर्वेद अभ्यासक.

संकलन :- सतीश अलोणी.

 

©®उर्मिला इंगळे

 

!!श्रीकृष्णार्पणमस्तु !!

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हिन्दी साहित्य☆ साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆ वक्त ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष”

श्री संतोष नेमा “संतोष”

 

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. 1982 से आप डाक विभाग में कार्यरत हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.    “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में प्रस्तुत है  श्री संतोष नेमा जी की एक भावपूर्ण कविता  “ वक्त ”. आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार पढ़  सकते हैं . ) 

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 27 ☆

☆ वक्त  ☆

चलने लगी पुरवाइयाँ हैं

खलने लगी तनहाइयाँ हैं

 

झूठ जब भी आया सामने

उड़ने लगी हवाईयां हैं

 

वक्त कुछ ऐसा भी आया

साथ न अब परछाइयाँ हैं

 

दर्द से हम गुजरे इस तरह

अब चुभती शहनाइयाँ हैं

 

अब संभल चलो ज़माने से

हरतरफ अब रुसवाईयाँ हैं

 

हम दिल को समझायें कैसे

“संतोष”बड़ी परेशानियाँ हैं

 

© संतोष नेमा “संतोष”

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.)

मोबा 9300101799

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #4 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #4 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

अपने अपने कर्म के, हम ही तो करतार । 

अपने सुख के दु:ख के, हम ही जिम्मेदार ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (36) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

द्यूतं छलयतामस्मि तेजस्तेजस्विनामहम्‌।

जयोऽस्मि व्यवसायोऽस्मि सत्त्वं सत्त्ववतामहम्‌।।36।।

छलियों में मैं द्यूत हॅू तेजस्वी में तेज

जय हूँ शिव संकल्प मैं सत्व हूँ सत्य परहेज।।36।।

भावार्थ :  मैं छल करने वालों में जूआ और प्रभावशाली पुरुषों का प्रभाव हूँ। मैं जीतने वालों का विजय हूँ, निश्चय करने वालों का निश्चय और सात्त्विक पुरुषों का सात्त्विक भाव हूँ।।36।।

 

I am the gambling of the fraudulent; I am the splendour of the splendid; I am victory; I am determination (of those who are determined); I am the goodness of the good.।।36।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 36 ☆ कलम से अदब तक ☆ डॉ. मुक्ता

डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से आप  प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकेंगे। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  प्रेरकआलेख “कलम से अदब तक”.  डॉ मुक्ता जी का यह विचारोत्तेजक एवं प्रेरक लेख हमें और हमारी सोच को सकारात्मक दृष्टिकोण देता है।  जहाँ अदब नहीं है वहां  निश्चित ही अहम् की भावना होगी। अदब हमारे व्यवहार में ही नहीं हमारी लेखनी में भी होनी चहिये। अदब के अभाव में साहित्य सहज सरल और स्वीकार्य कैसे हो सकता है ?  इस आलेख की अंतिम पंक्तियाँ ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… ही हमारे लिए प्रेरणास्पद  कथन है।  यह सत्य है कि शुरुआत स्वयं से करें तभी हम अन्य से आशा रख सकते हैं। इस अतिसुन्दर एवं प्रेरणास्पद आलेख के लिए डॉ मुक्ता जी की कलम को सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें एवं अपने विचार कमेंट बॉक्स में अवश्य  दर्ज करें )    

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य – # 36☆

☆ कलम से अदब तक 

‘अदब सीखना है तो कलम से सीखो, जब भी चलती है, सिर झुका कर चलती है।’ परंतु आजकल साहित्य और साहित्यकारों की परिभाषा व मापदंड बदल गए हैं। पूर्वोत्तर परिभाषाओं के अनुसार…साहित्य में निहित था…साथ रहने, सर्वहिताय व सबको साथ लेकर चलने का भाव, जो आजकल नदारद है। परंतु मेरे विचार से तो ‘साहित्य अहसासों व जज़्बातों का लेखा-जोखा है…भावों और संवेदनाओं का झरोखा है और समाज के कटु यथार्थ को उजागर करना   साहित्यकार का दायित्व है।’

साहित्य और समाज का चोली-दामन का साथ है। साहित्य केवल समाज का दर्पण ही नहीं, दीपक भी है और समाज की विसंगतियों-विश्रृंखलताओं का वर्णन करना, जहां साहित्यिकार का नैतिक कर्त्तव्य है, उसके समाधान सुझाना व प्रस्तुत करना उसका प्राथमिक दायित्व है। परंतु आजकल साहित्यकार अपने दायित्व का वहन कहां कर रहे है…अत्यंत चिंतनीय है, शोचनीय है। महान् लेखक मुंशी प्रेमचंद ने साहित्य की उपादेयता पर प्रकाश डालते हुए कहा था कि ‘कलम तलवार से अधिक शक्तिशाली होती है.. ताकतवर होती है’ अर्थात् जो कार्य तलवार नहीं कर सकती, वह लेखक की कलम की पैनी धार कर गुज़रती है। इसीलिए वीरगाथा काल में राजा युद्ध-क्षेत्र में आश्रयदाता कवियों को अपने साथ लेकर जाते थे और उनकी ओजस्वी कविताएं सैनिकों का साहस व उत्साहवर्द्धन कर, उन्हें विजय के पथ पर अग्रसर करती थीं। रीतिकाल में भी कवियों व शास्त्रज्ञों को दरबार में रखने की परंपरा थी तथा उनमें अपने राजाओं को प्रसन्न करने हेतु, अच्छी कविताएं सुनाने की होड़ लगी रहती थी। श्रेष्ठ रचनाओं के लिए उन्हें मुद्राएं भेंट की जाती थीं। बिहारी का दोहा ‘नहीं पराग, नहीं मधुर मधु, नहिं विकास इहिं काल/ अलि कली ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल’ द्वारा राजा जयसिंह को बिहारी ने सचेत किया गया था कि वे पत्नी के प्रति आसक्त होने के कारण, राज-काज में ध्यान नहीं दे रहे, जो राज्य के अहित में है और विनाश का कारण बन सकता है। इसी प्रकार भक्ति काल में कबीर व रहीम के दोहे, सूर के पद, तुलसी की रामचरितमानस के दोहे-चौपाइयां गेय हैं, समसामयिक हैं, प्रासंगिक हैं…प्रात: स्मरणीय हैं। आधुनिक काल को भी भक्ति-कालीन साहित्य की भांति विलक्षण और समृद्ध स्वीकारा गया है। भारतेंदु, प्रसाद, महादेवी, निराला, बच्चन, नीरज आदि कवियों का साहित्य अद्वितीय है, उपादेय है।

सो! सत्-साहित्य वह कहलाता है, जिसका प्रभाव दूरगामी हो, लम्बे समय तक बना रहे तथा वह  परोपकारी व मंगलकारी हो, सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् के विलक्षण भाव से आप्लावित हो। प्रेमचंद, शिवानी, मन्नु भंडारी, मालती जोशी, निर्मल वर्मा आदि लेखकों के साहित्य से कौन परिचित नहीं है? आधुनिक युग में भारतेंदु, मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, बच्चन, नीरज आदि का सहित्य शाश्वत है, समसामयिक है, उपादेय है। आज भी उसे भक्ति-कालीन साहित्य की भांति उतनी तल्लीनता से पढ़ा जाता है, जिसका मुख्य कारण है… साधारणीकरण अर्थात् जब पाठक ब्रह्मानंद की स्थिति तक पहुंचने के पश्चात् उसी मन:स्थिति में रहना पसंद करता है, उसके भावों का विरेचन हो जाता है…यही भाव-तादात्म्य साहित्यकार की सफलता है।

साहित्यकार अपने समाज का यथार्थ चित्रण करता है, तत्कालीन  समाज के रीति-रिवाज़, वेशभूषा, सोच, धर्म आदि को दर्शाता है…उस समय की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक परिस्थितियों का दिग्दर्शन कराता है… वहीं समाज में व्याप्त बुराइयों को प्रकाश में लाना तथा उसके उन्मूलन का मार्ग सुझाना व दर्शाना…उसका दायित्व होता है। उत्तम साहित्यकार संवेदनशील होता है और वह अपनी रचनाओं के माध्यम से, पाठकों की भावनाओं को उद्वेलित व आलोड़ित करता है। समाज में व्याप्त बुराइयों की ओर उनका ध्यान आकर्षित कर, सबके मनोभावों को झकझोरता व झिंझोड़ता है और सोचने पर विवश कर देता है कि वे गलत दिशा की ओर जा रहे हैं, दिग्भ्रमित हैं। सो! उन्हें अपना रास्ता बदल लेना चाहिए। सच्चा साहित्यकार सच्ची लोकप्रियता के पीछे नहीं भागता, न ही अपनी कलम को बेचता है, क्योंकि वह जानता है कि कलम का रुतबा इस संसार में सबसे ऊपर होता है। सो! कलम से इंसान को अदब सीखना चाहिए। कलम सिर झुका कर चलती है, तभी वह इतने सुंदर साहित्य का सृजन करने में समर्थ है। इसलिए मानव को उससे सलीका सीखना चाहिए तथा अपने अंतर्मन में विनम्रता का भाव जाग्रत कर सुंदर व सफल जीवन जीना चाहिए, ठीक वैसे ही…जैसे फलदार वृक्ष सदैव झुक कर रहता है तथा मीठे फल प्रदान करता है। इन कहावतों के मर्म से तो आप सब परिचित हैं… ‘अधजल गगरी, छलकत जाए’ तथा ‘थोथा चना, बाजे घना’ अहं भाव को प्रेषित करते हैं। इसलिए नमन व मनन द्वारा जीवन जीने के सही ढंग व महत्व को प्रदर्शित दिया गया है।

प्रार्थना हृदय से निकलने और ओंठों तक पहुंचने से पहले ही परमात्मा तक पहुंच जाती है… परंतु शर्त यह है कि वह सच्चे मन से की जाए। यदि मानव में अहंभाव नहीं है, तभी वह उसे प्राप्त कर सकता है। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है, केवल अपनी-अपनी हांकता है, दूसरे की अहमियत नहीं स्वीकारता और आत्मजों, परिजनों व परिवारजनों से बहुत दूर चला जाता है। परंतु एक लंबे अंतराल के पश्चात्, समय के बदलने पर वह अर्श से फ़र्श पर पर गिर जाता है और लौट जाना चाहता है…अपनों के बीच, जो संभव नहीं होता। अब उसे प्रायश्चित होता है, परंतु गुज़रा समय कब लौट पाया है? इसलिए मानव को अहं त्यागने व किसी भी हुनर पर अभिमान न करने की सीख दी गई है, क्योंकि पत्थर भी अपने बोझ से पानी में डूब जाता है, परंतु निराभिमानी मनुष्य संसार में श्रद्धेय व पूजनीय होता है।

विद्या ददाति विनयम् अर्थात् विनम्रता मानव का आभूषण है और विद्या हमें विनम्रता सिखलाती है… जिसका संबंध संवेदनाओं से होता है। संवेदना से तात्पर्य है… सम+वेदना… जिसका अनुभव वही व्यक्ति कर सकता है, जिसके हृदय में प्रेम, करुणा, सहानुभूति, सहनशीलता, करुणा आदि भाव व्याप्त हों…जो दूसरे के दु:ख की अनुभूति कर सके। यह बहुत टेढ़ी खीर है…दुर्लभ व दुर्गम मार्ग है तथा इस स्थिति तक पहुंचने में वर्षों की साधना अपेक्षित है। जब तक व्यक्ति स्वयं को उसी दशा में अनुभव नहीं करता, उनके सुख-दु:ख में आत्मीयता नहीं दर्शाता …अच्छा इंसान भी नहीं बन सकता….साहित्यकार होना, तो बहुत दूर की बात है।

आजकल तो समाजिक व्यवस्था पर दृष्टिपात करने पर लगता है कि संवेदनाएं मर चुकी हैं, सामाजिक सरोकार अंतिम सांसें ले रहे हैं और इंसान आत्म- केंद्रित होता जा रहा है। त्रासदी यह है कि वह निपट स्वार्थी इंसान, अपने अतिरिक्त किसी के बारे में सोचता ही कहां है? सड़क पर पड़ा घायल व्यक्ति जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते हुए, सहायता की ग़ुहार लगाता है, परंतु संवेदनशून्य व्यक्ति उसके पास से आंखें मूंदे निकल जाता हैं। हर दिन चौराहे पर मासूमों की अस्मत लूटी जाती है और दुष्कर्म के पश्चात् उन्हें तेज़ाब डालकर जला देने के किस्से भी आम हो गए हैं। लूटपाट, अपहरण, फ़िरौती, देह-व्यापार व मानव शरीर के अंग बेचने का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है। यहां तक कि हम अपने देश की सुरक्षा बेचने में भी कहां संकोच करते हैं?

परंतु कहां हो रहा है… ऐसे साहित्य का सृजन, जो समाज की हक़ीकत बयान कर सके तथा लोगों की आंखों पर पड़ा पर्दा हटा सके। परंतु आजकल तो सबको पद-प्रतिष्ठा, नाम-सम्मान व रुतबा चाहिए, वाहवाही चाहिए, जिसके लिए वे सब कुछ करने को तत्पर हैं, आतुर हैं अर्थात् किसी भी सीमा तक झुकने को तैयार हैं। यदि मैं कहूं कि वे साष्टांग दण्डवत् प्रणाम तक करने को भी तैयार हैं, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

सो! ऐसे आक़ाओं का धंधा भी खूब फल-फूल रहा है, जो नये लेखकों को सुरक्षा प्रदान कर, मेहनताने के रूप में खूब सुख-सुविधाएं वसूलते हैं। सो! ऐसे लेखक पलक झपकते, अपनी पहली पुस्तक प्रकाशित होते ही बुलंदियों को छूने लगते हैं, क्योंकि उनका वरद्-हस्त उन पर होता है। सो! उन्हें अर्श से फर्श पर आते भी समय नहीं लगता। आजकल तो पैसा देकर आप राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय अथवा अपना मनपसंद सम्मान खरीदने को स्वतंत्र हैं। वैसे आजकल तो पुस्तक के लोकार्पण की भी बोली लगने लगी है। आप पुस्तक मेले में  अपने मनपसंद सुविख्यात लेखकों द्वारा अपनी पुस्तक का लोकार्पण करा, प्रसिद्धि प्राप्त कर सकते हैं। अनेक विश्वविद्यालयों द्वारा पी.एच.डी. व डी.लिट्. की मानद उपाधि प्राप्त कर, अपने नाम से पहले डॉक्टर लगाकर, वर्षों तक मेहनत करने वालों के समकक्ष या उनसे बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर, उन्हें धूल चटा सकते हैं, नीचा दिखला सकते हैं। परंतु ऐसे लोग अहंनिष्ठ होते हैं। वे कभी अपनी गलती स्वीकार नहीं करते, बल्कि दूसरों पर आरोप-प्रत्यारोप लगा अपन अहंतुष्टि कर सुक़ून पाते हैं। यह सत्य है कि जो लोग अपनी गलती नहीं मानते, किसी को अपना कहां मानेंगे… ऐसे लोगों से सावधान रहने में आपका हित है।

जैसे कुएं में उतरने के पश्चात् बाल्टी झुकती है और भरकर बाहर निकलती है…उसी प्रकार जो इंसान झुकता है, कुछ लेकर अथवा प्राप्त कर ही निकलता है। यह अकाट्य सत्य है कि संतुष्ट मन सबसे बड़ा धन है। परंतु ऐसे स्वार्थी लोग और…और…और की चाहना में अपना जीवन नष्ट कर लेते हैं। वैसे बिना परिश्रम के प्राप्त फल से आपको क्षणिक प्रसन्नता तो प्राप्त हो सकती है, परंतु उससे संतुष्टि व संतोष नहीं मिल सकता। इससे भले ही आपको पद-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाए, परंतु सम्मान नहीं मिलता। अंतत: आप दूसरों की नज़रों में गिर जाते हैं।

‘सत्य कभी दावा नहीं करता, कि मैं सत्य हूं और झूठ झूठ सदा दावा करता है कि मैं ही सत्य हूं और सत्य लाख परदों के पीछे से भी सहसा प्रकट हो जाता है।’ इसलिए सदैव चिंतन-मनन कर मौन धारण कर लीजिए और तभी बोलिए, जब आपके शब्द मौन से बेहतर हों। सो! मनन कीजिए, नमन स्वत: प्रकट हो जाएगा। जीवन में झुकने का अदब सीखिए, मानव-मात्र के हित के निमित्त समाजोपयोगी लिखिए… सब के दु:ख को अनुभव कीजिए। वैसे संकट में कोई नज़दीक नहीं आता, जबकि दौलत के आने पर दूसरों को आमंत्रण देना नहीं पड़ता…लोग आप के इर्द गिर्द मंडराते रहते हैं। इनसे बच के रहिए…प्राणी-मात्र के हित में सार्थक सृजन कीजिए। यही ज़िंदगी का सार है, जीने का मक़सद है। सस्ती लोकप्रियता के पीछे मत भागिए…इससे आप की हानि होगी। इसलिए सब्र व संतोष रखिए, क्योंकि वह आपको कभी भी गिरने नहीं देता…  सदैव आपकी रक्षा करता है। ‘चल ज़िंदगी नई शुरुआत करते हैं/ जो उम्मीद औरों से थी/ खुद से करते हैं’… इन्हीं शब्दों के साथ अपनी लेखनी को विराम देती हूं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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