हिन्दी साहित्य – व्यंग्य – ☆ फोकट की कमाई ☆ – डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

(आज प्रस्तुत है डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’ जी द्वारा रचित एक विचारणीय, सार्थक एवं सटीक व्यंग्य  “फोकट की कमाई”। डॉ विजय तिवारी जी ने फ़ोकट की कमाई से सम्बंधित  सामाजिक बुराई के पीछे निहित मनोवृत्ति तथा मजबूरी पर विस्तृत चर्चा की है। हम भविष्य में आपसे ऐसी ही उत्कृष्ट  रचनाओं की अपेक्षा करते हैं। )

☆ फोकट की कमाई ☆

कोरी बातों से पेट नहीं भरता। पेट की आग बुझाने के लिए हाथ पैर भी चलाने पड़ते हैं। हमें  इसका भी भान होना चाहिए कि पैर पेट की ओर, पेट के लिए ही मुड़ते हैं। पर, दीनू को इन बातों से कोई फर्क नहीं पड़ता। मंदिर के बाहर बैठे बैठे ही जब भक्तजन भरपूर भोजन, फल-फूल, कपड़े और पैसे दे जाते हैं, तो हाथ पैर क्यों चलाए जाएँ। बड़ी अजीब बात है ग्रेजुएट दीनू की, जो पढ़-लिखकर भी भिखारी बना बैठा है। किसी ने बताया कि वह दूर दराज गाँव का रहने वाला है। प्रतिदिन घर से वह अच्छे कपड़े पहनकर निकलता है। मंदिर से दो-तीन सौ मीटर पहले अपने परिचित के घर बाईक रखकर भिखारी वाली ड्रेस पहनता है और पैदल चलकर मंदिर-पथ पर बने अपने ठीहे पर आसन जमा लेता है। महीने भर की कमाई से उसका और उसके परिवार का भरण-पोषण आसानी से हो जाता है। साथ ही वह कुछ पैसे भी बचा लेता है।

गाँव के मित्रों से दीनू अक्सर कहा करता है कि मैंने बेकार ही 10-15 वर्ष पढ़ाई में बर्बाद कर दिए। जब बिना पढ़े-लिखे ही, बिना किसी लागत या आवेदन के बैठे-बैठे रोजी-रोटी का जुगाड़ हो जाता है, तब मेहनत और माथापच्ची क्यों की जाए?

आजकल कुछ रईस और दयालु किस्म के लोगों की भी बाढ़ सी आ गई है। वे अपनी अतिरिक्त कमाई के कुछ हिस्से को हम जैसे लोगों में बाँट कर अपनी वाहवाही लूटते रहते हैं। अखबारों में उनके साथ-साथ हम लोगों की भी फोटो छप जाती है। अखबार उनके नाम और उनके द्वारा की गई सेवाओं का उल्लेख तो करते हैं, लेकिन क्या मजाल कि कोई अखबार वाला या विज्ञप्तिवीर कभी हम लोगों की पीड़ा, विचार अथवा हमारे नामों का उल्लेख करे। कुछ लोग आयकर में बचत के लिए तरह-तरह के दान, गरीबों की सहायता, एन.जी.ओ. आदि का भी सहारा लेते हैं। अनेक बड़े लोग संस्थाएँ, संस्थान अथवा ऐसे ही कामों से अपना काला धन सफेद करते रहते हैं और इन सब के पैसों से ऐश करना हमारे नसीब में लिखा है। हम लोग साल में दो-चार ऐसे कार्यक्रम करने वालों की पूरी जानकारी रखते हैं। हमारी मासूमियत, हमारे परिवेश एवं हमारे छद्म मेकअप से भले व कृपालु लोगों के ठगे जाने का क्रम बदस्तूर चला आ रहा है। सरकारी उपक्रम एवं  सामाजिक संस्थाएँ भी गरीब किस्म के लोगों, भिखारियों अथवा जरूरतमंदों को सहायता पहुँचाने में पीछे नहीं हटतीं।

राष्ट्रीय स्तर पर हमारे उन्नयन हेतु काफी समय से प्रयास होते आ रहे हैं फिर भी हमारे समाज में कमी की बजाय इजाफा ही हो रहा है। यह सरकार एवं विद्वानों के लिए शोध का विषय हो सकता है, मगर मेरे अनुसार सीधी सी बात यही है कि बिना लागत, बिना मेहनत और बिना हाथ-पैर चलाए ऐसा धंधा या व्यवसाय कोई दूसरा नहीं है। मुझ जैसी सोच वाले इंसानों के लिए इससे अच्छा रोजगार और कुछ हो ही नहीं सकता। \

अब आप कहेंगे कि एक पढ़े लिखे इंसान की सोच ऐसी कैसे हो सकती है? तब मैं आपको समझाना चाहता हूँ कि आज के जमाने में पैसे कमाने के कोई निश्चित मानदंड तो हैं नहीं, बस आपको पैसे कमाने के तरीके आने चाहिए। आज जो चाय चौराहे पर पाँच रुपये में मिलती है, चाय स्क्वेयर में  पच्चीस से पचास रुपये और फाइव स्टार होटल में दो सौ की मिलती है, बस आपको चाय बेचने का तरीका आना चाहिए। कहते हैं न कि बेचने की कला हो तो गंजे को भी कंघी बेची जा सकती है। इस तरह कमाई करने वाले कई तरीके और रास्ते लोग निकाल ही लेते हैं। फोकट की कमाई वाले धंधों में  इजाफे के भी यही कारण हैं। बदलते समय में कभी चरित्र का, कभी शक्ति का, कभी शिक्षा का, कभी पैसे का मूल्य श्रेष्ठ रहा है, परन्तु अब इनमें से कुछ भी बड़ा नहीं रह गया। आजकल लच्छेदार बातें, बाह्याडंबर या विश्वास दिलाने का षड्यंत्र ही सबसे कारगर है। झूठ को सच, पीतल को सोना एवं घटिया को उत्कृष्ट बताने की कला आपको धनवान से और धनवान बना देती है। विश्वासघात, नकली का असली और झूठ की पराकाष्ठा ने ही हमारी सामाजिक मान्यताओं को आज गड्डमगड्ड कर के रख दिया है।

बुद्धिजीवी अपना सर पटकता है और चालाक बाजी मार ले जाता है। चोर, बदमाश, आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से आम आदमी आतंकित रहता है। इनके समूह निरंकुश हो सारे अनैतिक कार्य करते हैं। चोरी, डकैती, लूटपाट, हत्याएँ, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति इनकी अकूत आय के स्रोत हैं।

यहाँ यह बात प्रमुखता से कही जा सकती है कि भिक्षावृत्ति हेतु बच्चे-बच्चियों सहित हर उम्र के व्यक्तियों को विशेष रूप से प्रशिक्षित किया जाता है। इन पर और इनकी आय पर निगरानी रखी जाती है। एकल एवं गिरोह के रूप में कार्य करने वाले ये लोग आधुनिक तकनीकि से परिपूर्ण होते हैं और इनके मुखिया दबंग तथा पहुँच वाले डॉनों से कम नहीं होते।

बात फिर वहीं अटक जाती है कि  सहयोग एवं चौतरफा मदद के बावजूद भिक्षावृत्ति जैसी प्रवृत्तियाँ घटने के बजाय बढ़ क्यों रही हैं, तो यह कहना ही उचित होगा कि कपड़े, कंबल, पैसे और भोजन इसका समाधान नहीं है। समाधान तो तब होगा जब इनकी सोच बदलेगी। ये यथोचित रोजगार से जुड़ेंगे और पूरा समाज इन्हें अपनाएगा।

बावजूद इन सबके कभी-कभी लगता है कि फोकट की कमाई वाले धंधों में लगे लोग ही अधिक चतुर हैं और यही कारण है कि आज भी इन चतुर कोटि के अनुगामी हमारे इर्द-गिर्द बहुतायत में देखे जा सकते हैं। मुझे भी अब भिखारी वाले धंधे की ओर लोगों का रुझान बढ़ता प्रतीत होने लगा है। वैसे कोई खास बुराई न होने के कारण इसे आजमाया जा सकता है।

© विजय तिवारी  “किसलय”, जबलपुर 

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हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – विचार ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

आज  इसी अंक में प्रस्तुत है श्री संजय भरद्वाज जी की कविता  “पानी “ का अंग्रेजी अनुवाद  Thoughts…” शीर्षक से ।  हम कैप्टन  प्रवीण रघुवंशी जी के ह्रदय से आभारी  हैं  जिन्होंने  इस कविता का अत्यंत सुन्दर भावानुवाद किया है। )
☆ संजय दृष्टि  – विचार

मेरे पास एक विचार है

जो मैं दे सकता हूँ

पर खरीदार नहीं मिलता,

फिर सोचता हूँ

यों भी विचार के

अनुयायी होते हैं

खरीदार नहीं,

विचार जब बिक जाता है

तो व्यापार हो जाता है

और व्यापार

प्रायः खरीद लेता है

राजनीति, कूटनीति

देह, मस्तिष्क और

विचार भी..,

विचार का व्यापार

घातक होता है मित्रो!

 

©  संजय भारद्वाज

(गुरुवार दि. 14 जुलाई 2017, प्रातः 9 बजे)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज # 36 ☆ दो किनारे ☆ डॉ. भावना शुक्ल

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत है उनकी एक भावप्रवण कविता  “दो किनारे “।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 36 – साहित्य निकुंज ☆

☆ दो किनारे

है ये जिंदगी के दो किनारे

साथ है प्रकृति के नजारे

बढ़ते जा रहे हैं गंतव्य की ओर।

मिलन की है, आतुर प्रतीक्षा

मिलन नहीं, है उनकी परीक्षा

होता है दुःख

पर है साथ रहने का सुख।

चाहते है ठहराव

पर

मिलेगी नहीं ठांव

प्रकृति है इसकी गवाह

ये पर्वत श्रृंखलाएं

दे रही है प्यार का संदेश

हरे भरे वृक्ष

और ये फिजाएं

मान रहे आदेश

चल रहे है सभी

एक ही दिशा

है सिर्फ यही आशा

कभी तो मिलेंगे किनारे

होंगे एक दूजे के सहारे।

 

© डॉ.भावना शुक्ल

सहसंपादक…प्राची

प्रतीक लॉरेल , C 904, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब  9278720311 ईमेल : [email protected]

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English Literature – Poetry ☆ Thoughts ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(We are extremely thankful to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for sharing his literary and artworks with e-abhivyakti.  An alumnus of IIM Ahmedabad, Capt. Pravin has served the country at national as well international level in various fronts. Presently, working as Senior Advisor, C-DAC in Artificial Intelligence and HPC Group; and involved in various national-level projects.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwj’s Hindi Poetry “ विचार ” published today as ☆ संजय दृष्टि  –विचार   We extend our heartiest thanks to Captain Pravin Raghuvanshi Ji for this beautiful translation.)

☆ Thoughts… ☆

I have a thought,

Thought that I can give

But, don’t get the buyer,

Thought again-

Thoughts have their

followers not the buyers…

If the thought is auctioned

It becomes commercial,

And, the commercial

often buys the

Politics, the diplomacy

the body, the mind and

even thoughts…

Beware of ‘Business of thought’

This is fatally dangerous,

I thought.. !

≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡  ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡ ≡

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune
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Poetry,
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हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ मेरे ज़रूरी काम ☆ – डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

(डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी जी  लघुकथा, कविता, ग़ज़ल, गीत, कहानियाँ, बालकथा, बोधकथा, लेख, पत्र आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं.  आपकी रचनाएँ प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे पाठकों को आपकी उत्कृष्ट रचनाएँ समय समय पर पढ़ने को मिलती रहेंगी. आज प्रस्तुत है मानव दर्शन (Human Philosophy) पर आधारित एक सार्थक कविता “मेरे ज़रूरी काम”.)

 

☆ मेरे ज़रूरी काम☆ 

 

जिस रास्ते जाना नहीं

हर राही से उस रास्ते के बारे में पूछता जाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

जिस घर का स्थापत्य पसंद नहीं

उस घर के दरवाज़े की घंटी बजाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

कभी जो मैं करता हूं वह बेहतरीन है

वही कोई और करे – मूर्ख है – कह देता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मुझे गर्व है अपने पर और अपने ही साथियों पर

कोई और हो उसे तो नीचा ही दिखाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मेरे कदमों के निशां पे है जो चलता

उसे अपने हाथ पकड कर चलाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

और

 

मेरे कदमों के निशां पे जो ना चलता

उसकी मंज़िलों कभी खामोश, कभी चिल्लाता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

मैं कौन हूँ?

मैं मैं ही हूँ।

लेकिन मैं-मैं न करो ऐसा दुनिया को बताता हूँ।

मैं अपनी अहमियत ऐसे ही बढ़ाता हूँ।

 

डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी

3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर-5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) – 313 002

ईमेल:  [email protected]

फ़ोन: 9928544749

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हिन्दी साहित्य ☆ पुस्तक विमर्श (English Review) # – स्त्रियां घर लौटती हैं – “There exists books like this that make you halt and observe” – Shri Archit Ojha ☆ श्री विवेक चतुर्वेदी

पुस्तक विमर्श – स्त्रियां घर लौटती हैं 

श्री विवेक चतुर्वेदी 

( हाल ही में संस्कारधानी जबलपुर के युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी का कालजयी काव्य संग्रह  स्त्रियां घर लौटती हैं ” का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, नई दिल्ली में संपन्न हुआ।  यह काव्य संग्रह लोकार्पित होते ही चर्चित हो गया और वरिष्ठ साहित्यकारों के आशीर्वचन से लेकर पाठकों के स्नेह का सिलसिला प्रारम्भ हो गया। काव्य जगत श्री विवेक जी में अनंत संभावनाओं को पल्लवित होते देख रहा है। ई-अभिव्यक्ति  की ओर से यह श्री विवेक जी को प्राप्त स्नेह /प्रतिसाद को श्रृंखलाबद्ध कर अपने पाठकों से साझा करने का प्रयास है।  इस श्रृंखला की चौथी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं श्री अर्चित ओझा जी  के अंग्रेजी भाषा में विचार “There exists books like this that make you halt and observe” ।)

अमेज़न लिंक >>>   स्त्रियां घर लौटती हैं

 

☆ पुस्तक विमर्श #9 – स्त्रियां घर लौटती हैं – “There exists books like this that make you halt and observe” – Shri Archit Ojha  ☆

When I was in school, I remember waiting for Wednesdays because I would get to read poetry in Hindi newspapers. I would sit patiently, devouring the content and take delight in the unique arrangement of words. It used to wonder me how the simple play of some letters can bring euphoria on someone’s face. How captivating! Such power they had on people seeking peace and pleasure in literature.

Years passed by and I forgot what it was like to be that person again. The rush we feel today to keep on moving forward, without pausing to be attentive towards every day things, without smiling at them and when it’s time to get old, lamenting “If only, I had stopped a bit.”

Thankfully there exists books like this that make you halt and observe.

Reading Vivek Chaturvedi’s book felt like being transported to the fields of sunflowers, oleander, mangoes, berries, guavas, basal leaves and marigolds, being surrounded by the fragrances these little things create, unknowingly, unapologetically being themselves; soaking in the aroma of Earth after the first rain, running back to home from school, celebrating festivals, resting in the sun during Summer, flying kites, racing with friends, waiting for the rainy days and when the rainy season came, then craving for the winters and those warm blankets, seeing a father’s tears when his daughter is leaving her home to make another one her own, conversing with mothers who never seem to get tired of nurturing their kids, waking up early to see the sunrise, gardening, chit-chatting with the neighbors, visiting fairs, persisting to buy toys that will be played only for a few days, laughing with friends without any reason, believing in funny superstitions, sitting under a tree, mourning when it was taken down in the name of development, sending letters without stamping them, appreciating the calmness of the moon on a peaceful night, caring for pets and weeping in the corner, lest somebody sees; when they leave us saying goodbyes.

Reading this book felt like living the childhood, the life once again and that there is no place for regrets.

There were a number of instances which took me by surprise with their lucidity and easy-going manner. All the 56 poems have their own distinctive charisma. It was difficult for me to select my favorites but following lines in these poems would stay with me. I’m providing English translation for the titles, so the readers can adore the magnificence of the author’s creativity. Here are a few lines, I hope they don’t get lost in translation:

  1. Women Return their Homes: A home too, is a child for a woman, that grows a little more, every day.
  2. The domestic/household women have been treated like pencils: Thrown with anger and boredom, dropped down from the desk and mentality, a bit of nib got saved, but the lead inside is broken, still they were picked up and employed for selfish purposes again and again.
  3. Where are you: The kids who were locked inside their homes are now playing in the mud, rolling and laughing, a tuft of grass has started growing through a crack in the concrete, where are you?
  4. Typist: I said “Courage”, and she wrote it once, I said “courage” again, and the whole page got filled with that one word!
  5. Dad: All your life, many icy storms went through you, and you did not let any of them touch us. Dad, you were Himalayan.

I believe that of all the literature in the world, Hindi poetry is a genre that you cannot get enough of. They take time to build upon you. They sing a song that means multiple things to different people, according to the life they have seen. Some years back, I read a poem by a Russian Poetess about how much she loved Hindi and reading this book, kept reminding me of why I also love Hindi so much.

I admired how nature was the core and strength of this book. Finding similarities between the nature and human activities, it warms the heart and develops imagination. More than that, I’m grateful for it brought the observer in me back again. It made me notice things around me, every day, mundane, normal things that nobody pays attention to.

Though the title says Women Return their Homes, the book carries insightful and smart observations, poems about environment, seasons, motherhood, parenting, friendship, love, home, children, elders, mythology, women empowerment and the society. You read a few lines and realize the richness of experiences these poems posses. I will turn back to this book again and again for its brevity, clarity and the wisdom it contains.

I wish that English translation of these poems would also be published some day, so that English speakers can take delight in the beauty that the author has fabricated.

If, like me, you haven’t been around Hindi poetry for a while, this book will remind you to go back to your roots, appreciate and feel the charm again in observing the effortless joy our surroundings carry.

If you have been around Hindi poetry for a while, this book will solidify the faith that Hindi Literature’s future is in gifted hands.

 

 – Archit Ojha

© विवेक चतुर्वेदी, जबलपुर ( म प्र ) 

ई-अभिव्यक्ति  की ओर से  युवा कवि श्री विवेक चतुर्वेदी जी को इस प्रतिसाद के लिए हार्दिक शुभकामनायें  एवं बधाई।

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मराठी साहित्य ☆ कुसुमाग्रज – जन्म दिवस विशेष – मी मराठी बोलतेय… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज – जन्म दिवस विशेष

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आज प्रस्तुत है  स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज – जन्म दिवस पर विशेष  आलेख  “मी मराठी बोलतेय…”)

 ☆ स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज – जन्म दिवस विशेष –  मी मराठी बोलतेय…☆

 

“होय.. तुमची माय मराठीच बोलतेय! सर्व प्रथम माझ्या वर मनापासून प्रेम करणाऱ्या सर्व सान थोर सुपुत्रांना अनेकानेक शुभाशिर्वाद. आज विष्णू वामन शिरवाडकर  उर्फ कुसुमाग्रज यांचा जन्मदिवस. या दिवशी मला राजभाषा म्हणून माझा गौरव दिन साजरा करण्यात येतो आहे हे पाहून मन भरून आलय. मित्र हो,  आज मला बोलायचय.!”

“महानुभाव पंथीय काळापासून आपण माझा प्रचार प्रसार करीत आला आहात.  अकराव्या शतकापासून मी तुम्हाला  आणि तुम्ही मला समृद्ध करीत  आलो आहोत. गुरू बंधू निवृत्ती नाथ यांच्या कृपाशार्वादाने संत  ज्ञानेश्वरांनी *भावार्थ दीपिका* लिहिली आणि माझे विकास पर्व सुरू झाले.”

ग्रामीण संस्कृती परंपरा,  उत्सव, रिती रिवाज,  बालसाहित्य,  लोकसाहित्य,  लोककला सारं काही मौखिक स्वरूपात घराघरातून ऐकू यायचं. अभंग, भूपाळी, भजन, कीर्तन,  ओवी, कीर्तन, भारूड तमाशा ही सारी माझी संवाद माध्यमे. . . ! संत कवी, पंत कवी, तंत कवी यांनी मला लेखनातून शारदीय सारस्वतात मानाचं स्थान दिलं.  छंदोबद्ध रचनांनी, ललित  अलंकारिक, वैचारीक, गूढ,  आणि वैज्ञानिक साहित्याने माझं अंतःकरण समृद्ध केले. मला  एका पिढीतून दुसर्‍या पिढी कडे सन्मानाने पोहोचवले. माय भाषा, मायबोली म्हणून माझा सन्मान केला. !”

“कौतुकाचे गोडवे पुस्तक पोथ्या पुराणात बंदिस्त झाले आणि दैनंदिन व्यवहारात मात्र माझे स्वरूप संमिश्र, धेडगुजरी, झाले.  अनेक भाषा भगिनी  एकत्र येऊन माझ्या  आश्रयाने स्वतःची पथारी पसरू लागल्या. मराठी शाळेचे भवितव्य धोक्यात आले आणि मग मात्र मला माझ्या  अस्तित्वाची चिंता वाटू लागली.”

“बकुळीच्या फुलाप्रमाणे दरवळणारी मी (मराठी) आतल्या आत घुसमटत राहू लागले. *वाचन संस्कृतीचा -हास* हे नवे संकट समोर  उभे ठाकले.  ओवी ज्ञानेशाची,  गाथा तुकोबांची माझे शब्द   पूर्णब्रम्ह,  करणारी असली तरी संत परंपरा,  आणि  प्रबोधन काळ मागे पडला. प्रबोधन  आणि वैचारिक साहित्य पुस्तकात बंदिस्त झाले. नाही म्हणायला संतकवी,  पंतकवी, यांनी संस्कारांचा पारीजात रूजविला. त्याची पाळेमुळे,  अभिजात साहित्याकडे झेपावली.”

“कधी भक्ती, कधी शक्ती, कधी सृजन मातीत

नृत्य, नाट्य, कला, क्रीडा, यातून माझा प्रवास सुरू होता. नवरस,अलंकार,वृत्त छंद,साज हे सारं पुढच्या पिढीत पोहचत नाही ही खंत मनाला जाचत आहे

आजही अय्या,ईश्य,उच्चाराला, अन्य भाषेत तितका प्रभावशाली प्रती शब्द आलेला नाही!”.

“माझ्या लेखक, कवी, गीतकार, संगीतकार, गायक, लोककलावंतानी माझा   कला संस्कृती वारसा आजही जोपासला आहे. त्याचा मला अभिमान आहे शाहीरांच्या पोवाड्यात,माझा आरसा दिसतो आहे!”

“मला अभिजात भाषेचा दर्जा प्राप्त करून देण्यासाठी माझे   काही सुपुत्र अत्यंत निष्ठेने प्रयत्न करत आहेत. भाषा हे संवाद माध्यम  असले वैचारिकता, सृजनशीलता आणि संशोधन संक्रमित करण्यात तीचा वाटा नेहमीच महत्त्व पूर्ण राहिला आहे.  भाषा सक्ती पेक्षा भाषेची  आसक्ती निर्माण होईल  असे  उपक्रम,  असे संस्कार लेकरांनो आपण पुढच्या पिढीवर करू शकलात तर मला कोणताच धोका नाही.”

“गौरव दिन हा शब्द समारंभा पुरता असू नये, त्यातील मतितार्थ प्रत्येकाच्या बोलीभाषेत व्यक्त झाला तरी, तुमची मायबोली म्हणून मिरवल्याचे, माझ्या वैभवशाली परंपरेचे सार्थक होईल, असे मला वाटते. लेकरांनो मला कुणाला दोष द्यायचा नाही पण  .. . *तुझी आई फाटकी साडी नसते* हा आरोप विनाकारण सहन करू नका. तुमच्या वैचारिक संपन्नतेत मी आलंकृत आहे.  लेकरांनो स्वतः मोठे होताना  इतरांना मोठे करायला विसरू नका.  बंदिस्त साहित्य नव्या पिढीला वाचायला द्या. माणसाने माणसाला वाचू देत. माणूस माणसाला वाचायला शिकला ना की त्याची मायबोली पण सालंकृत झालीच समजा. !”

“शालेय शिक्षण, महाविद्यालयीन शिक्षण, संगणकीय तंत्रज्ञान प्रत्येक ठिकाणी मला तुमची साथ द्यायला आवडेल. कुणी कसा, किती, केव्हा आणि  कधी माझा वापर करायचा हे मात्र लेकरांनो सर्वस्वी तुमच्याच हातात आहे.  *ज्ञानार्जन* *ज्ञानदान* आणि *नव निर्मिती* यात माझे पाऊल कधीही मागे नव्हते, मागे नाही आणि मागे नसेल याची खात्री बाळगा. मी तुमची आहे  आणि तुम्ही माझे  आहात याची जाणीव सदैव  असू देत.”

“अच्छा .. चला निरोप घेते. या निमित्ताने मन मोकळे झाले. जय हिंद. जय महाराष्ट्र !”

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #3 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #3 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

जब तक मन में राग है, जब तक मन में द्वेष ।

तब तक दुख ही दुःख है, मिटे न मन के क्लेश।।

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

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Our Famentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (35) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

बृहत्साम तथा साम्नां गायत्री छन्दसामहम्‌।

मासानां मार्गशीर्षोऽहमृतूनां कुसुमाकरः।।35।।

 

सामो में हूँ वृहत मैं छंद गायत्री छंद

मार्ग शीर्ष हूँ मास में ,ऋतु में सरस बसंत।।35।।

 

भावार्थ :  तथा गायन करने योग्य श्रुतियों में मैं बृहत्साम और छंदों में गायत्री छंद हूँ तथा महीनों में मार्गशीर्ष और ऋतुओं में वसंत मैं हूँ।।35।।

 

Among the hymns also I am the Brihatsaman; among metres Gayatri am I; among the months I am Margasirsa; among seasons (I am) the flowery season.।।35।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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मराठी साहित्य ☆ जन्म दिवस विशेष – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ पुण्य स्मरण ☆ सुश्री स्वप्ना अमृतकर

स्व विष्णु वामन शिरवाडकर

जन्म : 27  फ़रवरी 1912, पुणे
निधन : 10 मार्च 1999, नाशिक

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित सुप्रसिद्ध मराठी  साहित्यकार (कवी , लेखक, नाटककार, कथाकार व समीक्षक) स्व विष्णु वामन शिरवाडकर अपने  उपनाम कुसुमाग्रज के नाम से जाने जाते हैं। आपको 1987 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विश्व में  आपके जन्मदिवस को मराठी भाषा गौरव दिन अथवा मराठी राजभाषा दिवस के रूप में मनाया जाता है।

इस सन्दर्भ में सुश्री ज्योति  हसबनीस जी का स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘ कुसुमाग्रज ‘  जी  पर आधारित आलेख को  निम्न लिंक पर क्लिक कर अवश्य पढ़ें। यह मेरा सादर आग्रह है। 

☆साप्ताहिक स्तम्भ – काव्य दिंडी # 6  – अनाम वीरा  – कुसुमाग्रज  ☆ 

ई-अभिव्यक्ति उनके जन्मदिवस पर उनके गौरवपूर्ण साहित्य सृजन के लिए स्व विष्णु वामन शिरवाडकरजी का  पुण्य स्मरण एवं उन्हें नमन करता है।

इस अवसर पर ई-अभिव्यक्ति से सम्बद्ध युवा साहित्यकार स्वप्ना अमृतकर की भावनाएं हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करना चाहते हैं। 

☆ जन्म दिवस विशेष – स्व विष्णु वामन शिरवाडकर ‘कुसुमाग्रज’ पुण्य स्मरण – सुश्री स्वप्ना अमृतकर☆

आज दि. २७ फेब्रुवारी २०२० हा दिवस प्रतिभासंपन्न महान कवी, लेखक श्री. वि.वा.शिरवाडकर सरांचा जन्मदिवस आहे, त्यांच्यावर मी काही माझ्या शब्दांत माझे भावतरंग मांडण्याचा प्रयत्न केला आहे.

मनातले भावतरंग श्री.वि.वा.शिरवाडकरांसाठी:

व्यक्त अव्यक्त विचारांची खोल दरी ओलांडूनी नितळ मनाच्या काठावर येवून सुरेख शब्दांचासाठा लेवूनी महान शब्दसखा कवितेच्या प्रवासात कवितेलाच बालपणांत, यौवनांत रूजवून अनेक रूपरंगांत काळीजकूपीतून अत्तरासम शब्दांना कवितांमध्ये पसरवूनी हलकीशी जागा देत देत आशयबद्धतेत मोहरून कवितेची प्रतिभा मराठी साहित्य जगतात उंचावून, प्रतिभासंपन्न कवी श्री वि. वा. शिरवाडकर सरांनी स्वत:ची ओळख लेखणीतून भक्कम करून मराठी भाषेला सन्मान देण्यात यशस्वी ठरले होते.
त्यांना शतश:नमन ..

स्वप्ना अमृतकर (पुणे)..

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