हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 33 ☆ कोरोना ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा

(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जीसुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की  साहित्यकार हैं। आप अंतरराष्ट्रीय / राष्ट्रीय /प्रादेशिक स्तर  के कई पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं । हम आपकी रचनाओं को अपने पाठकों से साझा करते हुए अत्यंत गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं। सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार शीर्षक से प्रत्येक मंगलवार को हम उनकी एक कविता आपसे साझा करने का प्रयास करेंगे। आप वर्तमान में  एडिशनल डिविजनल रेलवे मैनेजर, पुणे हैं। आपका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है।आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। आज प्रस्तुत है आपकी  कविता “ कोरोना ”। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी का काव्य संसार # 33☆

☆  कोरोना ☆

यह जो बढे ही जा रही थीं

इंसान से इंसान के बीच की दूरियाँ,

उसे और बढ़ा रहा है अब

यह कोरोना का आतंक!

 

यूँ ही आदमी अब

किसी और से हाथ मिलाने में कतराता था,

उसे अब रखना ही होगा

एक मीटर का फ़ासला,

अपने मूंह पर नकाब लगाए

चोरों सा चलना होगा,

और एक दूसरे के घर जाना तो

बंद ही हो जाएगा!

 

किसी की तबियत खराब होने पर

हम जो उसके हालचाल पूछने जाया करते थे,

वो अब बंद हो ही जाएगा;

बल्कि कुछ ऐसे भी होंगे

जो छुपायेंगे अपनी छींक आने वाली बात

और फैलाते जायेंगे इस जानलेवा बीमारी को!

 

हाँ,

मैं भी यही सब पूरी शिद्दत के साथ करूंगी

क्योंकि यही समय की मांग है…

आखिर इंसान को तो बचना ही है ना-

मुझे भी, मेरे दोस्तों को भी और अनजाने लोगों को भी!

 

पर शायद अब तो इंसान

करेगा आत्मचिंतन घर पर बैठकर

और सोचेगा कि कैसे जुड़ना है इंसानियत से

जब ख़त्म हो जाए प्रकोप

इस कोरोना नाम के खतरनाक वायरस का!

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई ☆ श्री शांतिलाल जैन

श्री शांतिलाल जैन 

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। आज  प्रस्तुत है श्री शांतिलाल जैन जी का एक सटीक  व्यंग्य   “कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई।  इस व्यंग्य को पढ़कर निःशब्द हूँ।  श्री शांतिलाल जी की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि  से कोई भी ऐसा पात्र नहीं बच सकता ,जिस  पात्र के चरित्र को वे अत्यंत सहजता से  अपनी  मौलिक शैली में  रच डालते हैं। हम और आप  उस पात्र को  मात्र परिहास का पात्र समझ कर भूल जाते  हैं। फिर मालवी भाषा की मिठास को तो श्री शांतिलाल जी  की कलम से पढ़ने का  आनंद ही कुछ और है। श्री शांतिलाल जैन जी के प्रत्येक व्यंग्य पर टिप्पणी करने के जिम्मेवारी पाठकों पर है । अतः आप स्वयं  पढ़ें, विचारें एवं विवेचना करें। हम भविष्य में श्री शांतिलाल  जैन जी से  ऐसी ही उत्कृष्ट रचनाओं की अपेक्षा रखते हैं। ) 

☆ व्यंग्य – कलजुग है सांतिबाबू, कोरोना फिर तो आयेगाई

ये पहलीबार नहीं है जब किसी घटना के लिये उन्होंने कलयुग को जिम्मेदार माना हो. उनकी नज़र में मृत्युलोक में जितने कष्ट, तकलीफें, बुराइयाँ और परेशानियाँ हैं उसकी एक मात्र वजह कलयुग का होना है. यहाँ तक कि बवासीर की अपनी कष्टसाध्य होती जा रही बीमारी के लिये भी वे यही कहते सुने जाते हैं – ‘कलजुग है तो भुगतना तो पड़ेगाई’.

आज खास बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट के जज ने कहा है कि – ‘कलयुग में वायरस से हम लड़ नहीं सकते हैं.’ अपनी मान्यता को एक ऊंची आसंदी से समर्थन मिल जाने से वे इस समय सातवें आसमान पर हैं. ‘मैं तो सुरू दिन से बता रा हूँ’. सुबह से सैंतीस लोगों से कह चुके हैं. इस समय, अड़तीसवाँ मैं उनकी ग्रिप हूँ और कलयुग को शिद्दत से महसूस कर रहा हूँ.

वे नागवार गुजरनेवाली हर घटना को कलयुग से जोड़ लेते हैं. बोले – ‘सांतिबाबू, कलजुग में कोरी के छोरे कलेट्टर बन रये हैं, बाम्भनों को चपरासी की नौकरी नई मिल रई’. अक्सर, हमने उन्हें दूधवाले से उलझते देखा है. कहते हैं – ‘जमानों कैसो आ गओ, कोकाकोला सुद्ध मिल रई, मगर दूध एकदम असुद्ध. जे कलजुग के ग्वालन यदुवंस को बदनाम कर रये’. एक बार वे अतिसार के शिकार हुये. बोले – ‘खानपान की चीजें असुद्ध मिल रई कलजुग में. दस्त तो लगेंगे ही. तुमने सुनी है कब्बी, के सतजुग में किसी को दस्त लगे हों? नई ना’.

उनके अनुसार हमारे पूर्वजों ने चार हज़ार सात सौ बारह वर्ष पूर्व घोषणा कर दी थी कि कलयुग में आर्यावर्त के उत्तर में स्थित एक देश कोरोना नामक विषाणु उत्पन्न करेगा जिससे समूची मानवता के लिये खतरा बनेगा. वे भूत के ज्ञाता हैं, वर्तमान बताते ही हैं और भविष्य बताने में तो मास्टरी है ही उनकी. बोले – ‘नगर में महामारी हमरी गलियन से ही फैलेगी, नालियाँ इतनी गन्दीभरी पड़ी हैं’. उनका ये अदम्य विश्वास है कि सतयुग में यहीं इन्हीं गलियों में दूध की धाराएँ बहा करतीं थीं जो कालांतर में गन्दी नालियों में परिवर्तित हो गई हैं. जैसे जैसे कलयुग बढ़ेगा नालियाँ और ज्यादा चोक होने लगेंगी. मुन्सीपाल्टी कछु ना कर पायगी. कुछ दिनों पूर्व, मोहल्ले में हुए एक विजातीय विवाह पर उनकी प्रतिक्रिया थी – ‘उच्चकुल की कन्यायें निम्नकुल में ब्याह रहीं हैं. समझ लो भैया के घोर कलजुग आवे वारो है’. ए जर्नी फ्रॉम सिंपल कलयुग टू घोर कलयुग!

कभी-कभी वे आकाश की ओर देखकर बुदबुदाते हैं – ‘हे प्रभु, अब कलजुग की और लीलाएं देखने से पेलेई उठा ले’. हालाँकि, वे आना नहीं चाहते. जब भी थोड़ा सा बीमार होते हैं तब घरवालों के पीछे पड़ जाते कि उनको आईसीयू में ही भर्ती कराया जाये. यमदूत को जनरल वार्ड से आत्मा ले जाने में ज्यादा आसानी रहती है, आईसीयू में सिक्युरिटी गार्ड घुसने नहीं देता, शायद तो इसीलिये.

रज्जूबाबू उनके सुपुत्र हैं. बहुत सम्मान बहुत करते हैं पिता का, इतना कि वे आगे बैठे हों तो रज्जूबाबू पीछे के दुआर से निकल जाते हैं. आज असावधानी से सामने पड़ गये. उन्होंने बैट-मेन के पीले प्रिंट वाली काली टी-शर्ट पहन रखी थी. वे बोले – ‘काए रज्जूबाबू, सीधे चीन से चले आ रये का? देख रये हो सांतिबाबू, कलजुग में इनकी अक्कल मारी जा रई. दुनिया चमगादड़ से भाग रई है और जे हैं के उसी की कमीज़ पेन के निकल रये. अब इने कौन समझाये कि ये कलजुग है, कोरोना चमगादड़ खाने से ही नहीं होत, पहनने से भी हो जात है’.

मौका मुनसिब जानकार मैं धीरे से सटकने लगा. वे ऊँची आवाज़ में बोले – ‘मूं पे कपड़ा लपेट के जईयो सांतिबाबू, कलजुग चलरा है. कब कौनों असुरी सक्ति कोरोना के जीव पकड़ के आपकी नाक में घुसेड़ देहैं, कौन जाने’.

निकल गया हूँ और कन्फ्यूज्ड हूँ – कलयुग पीछे की ओर छोड़ आया हूँ या उसी की तरफ भाग रहा हूँ.

 

© शांतिलाल जैन 

F-13, आइवोरी ब्लॉक, प्लेटिनम पार्क, माता मंदिर के पास, TT नगर, भोपाल. 462003.

मोबाइल: 9425019837

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #44 ☆ रंगमंच और मुखौटे (कोरोनावायरस और हम – 5) ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 44 – रंगमंच और मुखौटे  ☆

‘कोरोनावायरस और हम’  शृंखला का भाग-5

‘ऑल द वर्ल्ड इज़ अ स्टेज एंड ऑल द मेन एंड वूमेन मिअरली प्लेयर्स।’ सारा जगत एक रंगमंच है और सारे स्त्री-पुरुष केवल रंगकर्मी।

यह वाक्य लिखते समय शेक्सपिअर ने कब सोचा होगा कि शब्दों का यह समुच्चय, काल की कसौटी पर शिलालेख  सिद्ध होगा।

जिन्होंने रंगमंच शौकिया भर किया नहीं अपितु रंगमंच को जिया है, वे जानते हैं कि पर्दे के पीछे भी एक मंच होता है। यही मंच असली होता है। इस मंच पर कलाकार की भावुकता है, उसकी वेदना और संवेदना है। करिअर, पैसा, पैकेज की बनिस्बत थिएटर चुनने का साहस है। पकवानों के मुकाबले भूख का स्वाद है।

फक्कड़ फ़कीरों का जमावड़ा है यह रंगमंच। समाज के दबाव और प्रवाह के विरुद्ध यात्रा करनेवाले योद्धाओं का समवेत सिंहनाद है यह रंगमंच।

कोरोनावायरस से उपजे कोविड-19 ने पर्दे के सामने कृत्रिमता जीनेवालों को पर्दे के पीछे के मंच पर ला पटका है। यह आत्मविवेचन का समय है।

नाटक के इतिहास और विवेचन से ज्ञात होता है कि लोकनाट्य ने आम आदमी से तादात्म्य स्थापित किया। यह किसी लिखित संहिता के बिना ही जनसामान्य की अभिव्यक्ति का माध्यम बना। लोकनाट्य की प्रवृत्ति सामुदायिक रही।  सामुदायिकता में भेदभाव नहीं था। अभिनेता ही दर्शक था तो दर्शक भी अभिनेता था। मंच और दर्शक के बीच न ऊँच, न नीच। हर तरफ से देखा जा सकनेवाला। सब कुछ समतल, हरेक के पैर धरती पर।

लोकनाट्य में सूत्रधार था, कठपुतलियाँ थीं, कुछ देर लगाकर रखने के लिए मुखौटा था। कालांतर में आभिजात्य रंगमंच ने  दर्शक और कलाकार के बीच अंतर-रेखा खींची। आभिजात्य होने की होड़ में आदमी ने मुखौटे को स्थायीभाव की तरह ग्रहण कर लिया।

अब मुखौटे उतरने का समय है। ऐसे ही कुछ मुखौटे उतरे जब दिल्ली के एक मल्टीस्पेशलिटी हॉस्पिटल के डॉक्टर्स और  मेडिकल स्टाफ को उनकी हाउसिंग सोसायटी ने इसलिए घर छोड़ने के लिए कह दिया क्योंकि अस्पताल में नोवेल कोरोना से संक्रमित मरीज़ के आने की बात सुनी गई थी।

बंगलुरू में एक परिवार के कुछ लोगों को होम क्वारंटीन करने पर  सोसायटी के लोगों ने ऐसे बर्ताव किया मानो इस परिवार ने कोई पाप कर दिया हो। पाप, पुण्य  वैसे भी सापेक्ष होता है लेकिन उसके चर्चा अभी प्रासंगिक नहीं है।

दिल्ली में आइटीबीपी के कैंप में विदेशों से आए भारतीयों को 14 दिन के लिए क्वारंटीन रखने के विरोध में पास रहने वाले नागरिकों ने प्रदर्शन किया।

समुदाय से सामुदायिकता नष्ट हो चली है। संक्रमित रुग्ण या एहतियातन क्वारंटीन में रखे लोगों से दुर्व्यवहार करनेवाले भूल रहे हैं कि इसका शिकार कोई भी हो सकता है। इस कोई में वे स्वयं भी समाविष्ट हैं। दुर्भाग्य से ऐसा कुछ हो गया तो जिन डॉक्टरों को उन्हीं के घर में जाने देने का विरोध कर रहे थे, अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों की शरण में जाना होगा। यदि क्वारंटीन में जाना पड़ा और विरोध करने मज़मा जुट गया तो स्थिति क्या होगी?

मुखौटे उतर रहे हैं लेकिन पर्दे के पीछे कुछ सच्चे रंगकर्मी भी बैठे हैं। ये रंगकर्मी आइटीबीपी में हैं, भारतीय सेना में हैं। विदेशियों को भारत लाने वाले विमानों के पायलट और क्रू के रूप में हैं। ये सच्चे रंगकर्मी डॉक्टर हैं, पैरामेडिकल स्टाफ हैं, नर्स हैं, सफाईकर्मी हैं, वार्डबॉय हैं। ये सच्चे रंगकर्मी पुलिस और होमगार्ड हैं। ये सब मुस्तैदी से जुटे हैं कोरोना के विरुद्ध।

सूत्रधार कह रहा है कि पर्दों में वायरस हो सकता है। अब पर्दे हटाइए। बहुत देख लिया प्रेक्षागृह में पर्दों के आगे खेला जाता नाटक। चलिए लौटें सामुदायिक नाट्य में। केवल तालियाँ न बजाएँ। अपनी भूमिका तय करें। तय भूमिका निभाएँ, दायित्व भी उठाएँ।

बिना मुखौटे के मंच पर लौटें। बिना कृत्रिम रंग लगाए अपनी भूमिका निभा रहे असली चेहरों को शीश नवाएँ। जीवन का रंगमंच आज हम से यही मांग करता है।

 

©  संजय भारद्वाज

(विश्व रंगमंच दिवस के एक दिन बाद, 28.3.2020, रात्रि 8.39 बजे)

 

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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English Literature ☆ Weekly Column – Abhivyakti # 12 ☆ The Market of Life! ☆ Hemant Bawankar

Hemant Bawankar

(All of the literature written by me was for self satisfaction. Now I started sharing them with you all. Every person has two characters. One is visible and another is invisible. This poem shows us mirror.  Today, I present my poem ‘The Market of Life! ’. This poem has been cited from my book “The Variegated Life of Emotional Hearts”.))

My introduction is available on following links.

☆ Weekly Column – Abhivyakti # 12 

☆ The Market of Life! ☆

The world

is a market of life!

 

New lives

born to sell.

Old lives

destroyed and thrown

away

from the throne.

 

None knows

the mentality of ones.

 

Some say

old is gold

some say

new to sold.

 

Requirement of new

was too much

so they purchased me

fully

when I was new.

 

Now,

I am feeling

I have nothing of mine.

Body and soul;

thoughts and mind;

pulse and heart;

each and everything

is of customer

My Master!

My Lord!

My God!

and… his highness!

 

I’m sold

thus

I’m soldier

… of LIFE!

 

© Hemant Bawankar, Pune

26th August 1977

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हिन्दी साहित्य – ☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है।  उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का  एक भावनात्मक पत्र    “परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी”।  मानवता के अदृश्य शत्रु  से युद्ध में  हम सभी  परिवार के सदस्य / मित्र गण तकनीकी रूप  (ऑडियो / वीडियो )  से पहले से ही नजदीक  थे किन्तु भौतिक रूप से ये दूरियां बढ़ गई हैं । हम अपने घर /देश में कैद हो गए हैं।  आशा है कोई न कोई वैज्ञानिक हल शीघ्र  ही निकलेगा और हम फिर से पहले  जैसा जीवन जी सकेंगे। यह पत्र  उन कई लोगों के लिए प्रारूप होगा जो अपने परिवार के सदस्यों को ईमेल पर  अपनी भावनाएं प्रकट करना चाह रहे होंगे। श्री विवेक रंजन जी  को इस  बेहतरीन रचना / पत्र के   लिए बधाई। )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक साहित्य # 40 ☆ 

☆ परदेश में कोरोना पर दौहित्र को एक नाना की खुली चिट्ठी ☆

 

हमारे आल्हाद के केंद्र प्यारे रुवीर बेटा

नानी नाना का बहुत सारा दुलार,

हमारा यह पत्र  तुम शायद पांच, छः साल बाद पढ़कर कुछ समझ सकोगे. तुम्हारे आने से हम सबके जीवन में खुशियों की नई फुहार आई है. हम सबने तुम्हारे आने की खूब खुशियां मनाई थी, और पल पल तुम्हें बढ़ते हुये महसूस किया था.  समय बीतता गया,तुम्हारे पहली करवट लेने,खुद बैठ पाने,  घुटनो के बल चलने, तुम्हारा पहला दांत निकलने, और पहला कदम चल लेने के हर पल की गवाह तुम्हारी मम्मी बनी रहीं. फोटो, वीडीयो काल्स के जरिये हम सब हर दिन तुम्हें लेकर खुश होते रहे हैं. इस बीच तुम्हारे पापा मम्मी ने हर पल तुम्हें बढ़ते देखा,  दादी, नानी बारी बारी से तुम्हारे पास आती जाती रहीं.

कल तुम एक वर्ष के हो जाओगे. तुम्हारे पहले जन्म दिन को धूमधाम से सब साथ साथ पहुंचकर मनाने के लिये हम सबकी बहुत सारी प्लानिंग थी. पेरिस से लेकर स्विटजरलैंड, लंदन से लेकर हांगकांग  कई प्लान डिस्कस हुये थे. तुम्हारे दादा जी कीनिया के जंगलों में या जयपुर के पैलेस में पार्टी देना चाहते थे तो कोई कहीं और.  अंततोगत्वा पेरिस फाईनल हुआ और तुम्हारे पापा ने तो पेरिस की फलाईट टिकिट्स भी बुक कर दी थी. यह वर्ष २०२० के शुरूवाती दिनों की बात थी. किन्तु बेटा समय के गर्भ में क्या होता है यह किसी को भी नही पता होता.

पिछले दो महीनों में चीन से शुरू हुआ करोना वायरस का संक्रमण इस तेजी से पूरी दुनियां में फैला कि मानव जाति के इतिहास में पहली बार सारी दुनियां बिल्कुल थम गई है. हर कहीं लाकडाउन है. सब घरों में कैद होने को विवश हैं, जो नासमझी से घरों में स्वयं बन्द नहीं हो रहे हैं, सरकारें उन्हें घरों में रहने को मजबूर कर रही हैं.क्योकि यह संक्रमण आदमी से आदमी के संपर्क से फैलता है. अब तक इस सब के मूल कारण करोना कोविड २०१९ वायरस का कोई उपचार नही खोजा जा सका है. दुनियां भर में संपन्न से संपन्न देशों में भी इस महामारी के लिये अब तक चिकित्सा सुविधायें अपर्याप्त हैं. अब तेजी से इस सब पर बहुत काम हो रहा है. तुम्हारे अमिताभ मामा भी न्यूयार्क में एम आई टी के एक प्रोजेक्ट में सस्ते इमरजेंसी वेंटीलेटर्स बनाने और ऐसे ब्रेसलेट बनाने पर काम कर रहे हैं जो दो लोगों के बीच एक मीटर की दूरी से कम फासले पर आते ही वाइब्रेट करेंगे, क्योकि इस फासले से कम दूरी होने पर इस वायरस के संक्रमण का खतरा होता है. मतलब यह ऐसा अजब समय आ गया है कि इंटरनेट के जरिये दूर का आदमी पास हो गया है पर पास के आदमी से दूरी बनाना जरूरी हो गया है. तुम्हारे पापा दुबई में तुम्हारे पास घर से ही इंटरनेट के जरिये आफिस का काम कर रहे हैं, मौसी हांगकांग में घर से ही उसके आफिस का काम कर रही है. मैं यहा जबलपुर में बंगले में बंद हूं. दुनिया  भर की सड़कें सूनी हैं, ट्रेन और हवाई जहाज थम गये हैं. सोचता हूं  सब कुछ घर से तो नही हो सकता, खेतो में किसानो के काम किये बिना फल, सब्जी, अनाज कुछ नही हो सकता, मजदूरों और कारीगरो की मेहनत के बिना ये मशीनें सब कुछ नहीं बना सकती. पर समय से समझौता ही जिंदगी है.

आज बाजार, कारखाने धर्मस्थल सब बंद हैं. पर कुछ धर्मांध कट्टर लोग जो इस एकाकी रहने के आदेश को मानने तैयार नही है, और यह कुतर्क देते हैं कि उन्हें उनका भगवान या खुदा बचा लेगा, उन्हें मैं यह कहानी बताना चाहता हूं. हुआ यूं कि  एक बार बाढ़ आने पर किसी गांव में सब लोग अपने घरबार छोड़ निकल पड़े पर एक इंसान जो स्वयं को भगवान का बहुत बड़ा बक्त मानता था, अपने घर से हटने को तैयार ही नही था, उसे मनाने पास पडोसियो से लेकर सरपंच तक सब पहुंचे पर वह यही रट लाये रहा कि उसे तो भगवान बचा लेंगें क्योकि वह उनका भक्त है, प्रशासन ने हेलीकाप्टर भेजा पर हठी इंसान नही माना और आखिरकार बाढ़ में बहकर मर गया , जब वह मरकर भगवान के पास पहुंचा तो उसने भगवान से कहा कि मैं तो आपका भक्त था पर आपने मुझे क्यो नही बचाया ?  भगवान ने उसे उत्तर दिया कि मैं तो तुम्हें बचाने कभी पडोसी, कभी सरपंच, कभी हेलीकाप्टर चालक बनकर तुम तक पहुंचता रहा पर तुम ही नही माने. आशय मात्र इतना है कि वक्त की नजाकत को पहचानना जरुरी है, आज डाक्टर्स के वेश में भगवान हमारी मदद को हमारे साथ खड़े हैं. और यह समय भी बीत ही जायेगा. दुनियां के इतिहास में पहले भी कठिनाईयां आई हैं. दो विश्वयुद्ध हुये, प्लेग, हैजा, जैसी महामारियां फैलीं, जगह जगह बरसात न होने से अकाल पड़े, पर ये सारी मुसीबतें कुछ देशों या कुछ क्षेत्रो तक सीमित रहीं. महात्मा गांधी ग्राम स्वराज की इकानामी की परिकल्पना करते थे जिसका अर्थ यह था कि देश का हर गांव अपने आप में आत्मनिर्भर इकाई होता. पर विकास ने इतने पांव फैलाये हैं कि अब दुनियां इंटरनेटी वैश्विक मंच बन गया है. इसी साल २०२० के सूर्योदय की खुशियां हमने हांग कांग में  मौसी के संग  शुरू कर भारत, दुबई, लंदन, न्यूयार्क में तुम्हारे मामा के साथ उगते सूरज को देखकर, मतलब  लगभग २४ घंटो तक महसूस की हैं.

हम सब हमेशा तुम्हारे लिये क्षितिज की सीमाओ के सतरंगे इंद्रधनुष की रंगीनियों की परिकल्पना करते हैं. तुम्हें खूब पढ़ लिख कर, गीत संगीत, खेलकूद जिसमें भी तुम्हारी रुचि हो उसमें बढ़चढ़ कर मेहनत करना और मन से बहुत अच्छा इंसान बनना है. आज हर देश अपने वीसा अपने पासपोर्ट अपनी सीमा के बंधनो में सिमटे हुये हैं, पर सोचता हूं शायद तुम उस दिन के साक्षी जरूर बनो जब कोई भी कहीं भी स्वतंत्र आ जा सके. हर वैज्ञानिक प्रगति पर सारी मानव जाति का बराबरी का अधिकार हो. बस यही कामना है कि इंसानी दिमाग में ऐसा फितूर कभी न उपजे कि न दिखने वाले परमाणु बम अथवा किसी वायरस की विभीषिका से हम यूं दुबकने को मजबूर होवें.

दिल से सारा आशीर्वाद

तुम्हारी नानी और नाना

विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर .

ए १, शिला कुंज, नयागांव,जबलपुर ४८२००८

मो ७०००३७५७९८

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆ चंद्रकोर ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

(वरिष्ठ मराठी साहित्यकार श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे जी का अपना  एक काव्य  संसार है । आप  मराठी एवं  हिन्दी दोनों भाषाओं की विभिन्न साहित्यिक विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आज साप्ताहिक स्तम्भ  –अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती  शृंखला  की अगली  कड़ी में प्रस्तुत है असमय भयावह वर्षा पर आधारित रचना  “चंद्रकोर।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 44 ☆

☆ चंद्रकोर ☆

 

पाणी पाणी ओरडत राती उठलं शिवार

कसा अंधाऱ्या रातीला आला पावसाला जोर

 

वीज कडाडली त्यात आणि विझली ही वात

धडधडते ही छाती भीती दाटलेली आत

झोप उडाली घराची जागी रातभर पोरं

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

मेघ रडवेला झाला कुणी डिवचल त्याला

गडगड हा लोळला ओला चिंब केला पाला

त्याला शांतवण्यासाठी बघा नाचला हा मोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

चंद्र होता साक्ष देत शुभ्र होतं हे आकाश

क्षणभरात अंधार कुठं गेला हा प्रकाश

काळ्या ढगानं झाकली कशी होती चंद्रकोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

डोळ्यांसमोर तरळे जसा कापसाचा धागा

एका दिसात टाचल्या त्यानं धरतीच्या भेगा

इंद्र देवाने सोडला वाटे जादूचा हा दोर

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

जाऊ पावसाच्या गावा सोडू कागदाच्या नावा

नावेमधे हा संदेश ठेवा लक्ष तुम्ही देवा

जशी खेळातली नदी दिसो उघडता दार

कसा अंधाऱ्या रातीला…

 

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 41 – लघुकथा – गणगौर ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। । साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य  शृंखला में आज प्रस्तुत हैं उनकी एक समसामयिक लघुकथा  “गणगौर।  अभी हाल ही में गणगौर पूजा संपन्न हुई है और ऐसे अवसर पर  श्रीमती सिद्धेश्वरी जी की यह  एक  सार्थक एवं  शिक्षाप्रद कथा है  जो हमें सिखाता है कि कितना भी कठिन समय हो धैर्य रखना चाहिए। ईश्वर उचित समय  पर उचित अवसर अवश्य देता है । इस सर्वोत्कृष्ट समसामयिक लघुकथा के लिए श्रीमती सिद्धेश्वरी जी को हार्दिक बधाई।

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 41☆

☆ लघुकथा  – गणगौर

नवरात्रि के तीसरे दिन गणगौर माता की पूजा होती है। कहते हैं  कि सौभाग्य की देवी को, जितना अधिक सौभाग्य की वस्तुएं चढ़ाकर बांट दिया जाता है। उतना ही अधिक पतिदेव की सुख समृद्धि बढ़ती है।

गांव में एक ऐसा घर जहां पर सासु मां का बोलबाला था। अपने इकलौते बेटे की शादी के बाद, बहू को अपने तरीके से रख रही थी। ना किसी से मिलने देना, ना किसी से बातचीत, एक बिटिया होने के बाद मायके वालों से भी लगभग संबंध तोड़ दिया गया था। परंतु बहू अनामिका बहुत ही धैर्यवान और समझदार थी। कहा करती थी कि समय आने पर सब ठीक हो जाएगा।

परंतु सासू मां उसे तंग करने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ती। उनका कहना था कि “जब तक पोता जनकर नहीं देगी तब तक तुझे कोई नया कपड़ा और श्रृंगार का सामन नहीं दूंगी।” बहु पढ़ी लिखी थी, समझाती थी परंतु सासू मां समझने को तैयार नहीं थी। गांव में सासू माँ की एक अलग महफिल जमती थी। जिसमें सब उसी प्रकार की महिलाएं थी। बहू ने अपनी सासू मां और पति से कहा कि उसकी  ओढ़नी की चुनरी फट चुकी है।” मुझे इस बार गणगौर तीज में नई चुनरी दे दीजिएगा। पर सासु माँ ने कहा “तुम तो चिथड़े पहनोगी। मुझे तो समाज में बांटकर नाम कमाना है और अखबार में तस्वीर आएगी। तुझे देने से क्या फायदा होगा। ”

एक दिन बहु कुएं से पानी लेकर आ रही थी कि रास्ते में गांव के चाचा जी की तबीयत अचानक खराब हो गई। चक्कर खाकर गिर गए। बहू ने तुरंत उठा, उनको पानी पिला, होश में लाकर घर भिजवा दिया। उनके यहां सभी बहुत खुश हो गये क्योंकि अनामिका ने आज उनके पति की जान बचाई। गणगौर के दिन वह बहुत सारा सुहाग का सामान और जोड़े में लाल चुनरी लेकर आई और अनामिका को देकर बोली “मेरे सुहाग की रक्षा करने वाली, मेरी गणगौर तीज की देवी तो तुम हो।”

सासू मां कभी अपने रखी हुई चुनरी और कभी अपनी बहू का मुंह ताक रही थी।

 

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #34 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 34 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

आते जाते सांस पर, रहे निरंतर ध्यान ।

कर्मों के बंधन कटें, होय परम कल्याण ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (26-27) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

 

मी च त्वां धृतराष्ट्रस्य पुत्राः सर्वे सहैवावनिपालसंघैः ।

भीष्मो द्रोणः सूतपुत्रस्तथासौ सहास्मदीयैरपि योधमुख्यैः ।।26।।

वक्त्राणि ते त्वरमाणा विशन्ति दंष्ट्राकरालानि भयानकानि ।

केचिद्विलग्ना दशनान्तरेषु सन्दृश्यन्ते चूर्णितैरुत्तमाङ्‍गै ।।27 ।।

सभी पुत्र धृतराष्ट्र के , नृपति जो रत संग्राम

भीष्म द्रोण सह कर्ण सम योद्धा कई अनाम ।। 26 ।।

दिखते घुसते मुखों में जिनमें दाँत कराल

कुछ पिस गये , कुछ अधचबे , बड़ा बुरा है हाल ।।27 ।।

 

भावार्थ :  वे सभी धृतराष्ट्र के पुत्र राजाओं के समुदाय सहित आप में प्रवेश कर रहे हैं और भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य तथा वह कर्ण और हमारे पक्ष के भी प्रधान योद्धाओं के सहित सबके सब आपके दाढ़ों के कारण विकराल भयानक मुखों में बड़े वेग से दौड़ते हुए प्रवेश कर रहे हैं और कई एक चूर्ण हुए सिरों सहित आपके दाँतों के बीच में लगे हुए दिख रहे हैं।। 26-27 ।।

 

All the sons of Dhritarashtra with the hosts of kings of the earth, Bhishma, Drona and Karna, with the chief among all our warriors,।।26।।

 

They hurriedly enter into Thy mouths with terrible teeth and fearful to behold. Some are found sticking in the gaps between the teeth, with their heads crushed to powder.।।27 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 1 ☆ आशा और निराशा  ☆ डॉ निधि जैन

डॉ निधि जैन 

ई- अभिव्यक्ति में डॉ निधि जैन जी का हार्दिक स्वागत है। आप भारती विद्यापीठ,अभियांत्रिकी महाविद्यालय, पुणे में सहायक प्रोफेसर हैं। आपने शिक्षण को अपना व्यवसाय चुना किन्तु, एक साहित्यकार बनना एक स्वप्न था। आपकी प्रथम पुस्तक कुछ लम्हे  आपकी इसी अभिरुचि की एक परिणीति है। आपने हमारे आग्रह पर हिंदी / अंग्रेजी भाषा में  साप्ताहिक स्तम्भ – World on the edge / विश्व किनारे पर  प्रारम्भ करना स्वीकार किया इसके लिए हार्दिक आभार।  स्तम्भ का शीर्षक संभवतः  World on the edge सुप्रसिद्ध पर्यावरणविद एवं लेखक लेस्टर आर ब्राउन की पुस्तक से प्रेरित है। आज विश्व कई मायनों में किनारे पर है, जैसे पर्यावरण, मानवता, प्राकृतिक/ मानवीय त्रासदी आदि। आपका परिवार, व्यवसाय (अभियांत्रिक विज्ञान में शिक्षण) और साहित्य के मध्य संयोजन अनुकरणीय है। आज प्रस्तुत है आपकी आशावादी कविता  “आशा और निराशा”।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ World on the edge / विश्व किनारे पर # 1 ☆

☆ आशा और निराशा  ☆

 

निराशा जब जीवन का गला घोंटने लगती है,

तब आशा कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

हर मोड़ हर रास्ता काटने लगता है,

तब आशा फूलों का गुलदस्ता लिए,

कानों मे कह जाती, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब रात काली घनेरी आती है, अंधेरा फैलने लगता है,

तब आशा रौशनी का दीप जलाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब शब्दों के बाण घायल कर जाते हैं,

तब आशा मीठे बोल सुनाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब रास्ते पथरिले और पाँव छलनी हो जाते हैं,

तब आशा हाथों की गदली रख जाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

जब पतझड़ पीले पत्ते कर जाता है,

तब आशा हरियाली भर देती है,

और कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

जब आँखों से आँसू झरने लगते हैं,

तब मन सहराती है, आँसू पी जाती है,

और कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब मन तूफ़ानों मे घिर जाता है, मन की नाव डूबने लगती है,

तब पतवार हाथों में लिए,

आशा कानों में कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

जब राह भटकने लगती, जीवन पहेली बन जाती है,

तब आशा पहेली सुलझाती है,

और कानों मे कह जाती है, बढ़े चलो बढ़े चलो।

 

चलना जीवन, चलते जाओगे, चलते जाओगे,

आशा साथ चलेगी, सदा साथ चलेगी, सदा सदा चलेगी।

 

©  डॉ निधि जैन, पुणे

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