हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – अक्षय ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – अक्षय  ☆

 

पत्थर से टकराता प्रवाह

उकेर देता है

सदियों की गाथाएँ

पहाड़ों के वक्ष पर,

बदलते काल और

ऋतुचक्र के संस्मरण

लिखे होते हैं

चट्टानों की छाती पर,

और तो और

जीवाश्म होते हैं

उत्क्रांति का एनसाइक्लोपीडिया…,

और तुम कहते हो

लिखने के लिए

शब्द नहीं मिलते!

 

घर पर रहना है, कोविड-19 को हराना है।

 

©  संजय भारद्वाज, पुणे

प्रातः 7:11 बजे, 26.3.2020

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 40 ☆ कोरोना फोबिया ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी  एक समसामयिक कविता   “कोरोना फोबिया। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 40

☆  कोरोना फोबिया  ☆ 

 

मायूस सड़कें,

उदास लैम्पपोस्ट,

उबाऊ सन्नाटा,

कर्फ्यू का जोर,

कर्फ्यू की ऊब,

डरावना शोर

इक्कीस दिन बाद,

फिर सोच बदलेगी,

सड़कों की तरफ,

फिर भागदौड़ मचेगी,

लोग घरों से,

बाजार तरफ लौटेंगे,

डर के साये में,

सांकल मुक्त होगी

धरती की गोद में,

प्रार्थना की बात होगी

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
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मराठी साहित्य – आलेख ☆ कोरोना व्हायरसमुळे देशभरात होणारे स्थलांतर,त्याचा वाढता धोका आणि आपली जबाबदारी☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते

कविराज विजय यशवंत सातपुते

(समाज , संस्कृति, साहित्य में  ही नहीं अपितु सोशल मीडिया में गहरी पैठ रखने वाले  कविराज विजय यशवंत सातपुते जी  की  सोशल मीडिया  की  टेगलाइन माणूस वाचतो मी……!!!!” ही काफी है उनके बारे में जानने के लिए। जो साहित्यकार मनुष्य को पढ़ सकता है वह कुछ भी और किसी को भी पढ़ सकने की क्षमता रखता है।आप कई साहित्यिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। कुछ रचनाये सदैव समसामयिक होती हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक विषय पर  एक शिक्षाप्रद आलेख  “कोरोना व्हायरसमुळे देशभरात होणारे स्थलांतर,त्याचा वाढता धोका आणि आपली जबाबदारी।)

☆ कोरोना व्हायरसमुळे देशभरात होणारे स्थलांतर,त्याचा वाढता धोका आणि आपली जबाबदारी ☆

संवाद एक विचार अनेक चर्चा सत्र 

कोरोना विषाणू जागतिक संकटातून बचावात्मक प्रतिबंधक उपाय म्हणून हा लाॅकडाऊन याची गांभीर्याने  सर्व प्रथम दखल घ्यायला हवी.  दारिद्र्य रेषेखालील लोकांना  उपासमारी,  बेरोजगारी सहन करावी लागत आहे पण महापालिका प्रशासनाने पुरेशी खबरदारी घेतली आहे.  सध्या स्थलांतर करण्यापेक्षा आहे त्या निवा-यात सुरक्षित राहून कोरोना प्रतिबंधकात्मक उपाय करणे अत्यंत आवश्यक आहे. जसे वारंवार हात धुणे. घरात स्वच्छता ठेवणे. टाॅयलेट बाथरूम स्वच्छ ठेवणे वैगरे.  मास्क, सॅनिटायझर यांचा वापर करणे  इत्यादी.

सार्वजनिक ठिकाणी जाण्याचे टाळले तर कोरोना विषाणूंचा प्रसार रोखण्यात  आपण यशस्वी होऊ शकतो हे  लक्ष्यात  घेऊन वागायला हवे.  कोरोना बाधित  व्यक्ती जास्त निर्माण होऊ नयेत यासाठी प्रत्येकाने दिलेल्या सुचनांचे पालन काटेकोर पणे करायला हवे.

स्थलांतर टाळून अत्यावश्यक मदत कशी मिळेल याकडे लक्ष केंद्रित करून  प्रत्येकाने  सतर्क रहाणे  क्रमप्राप्त झाले आहे. अन्नधान्य,  औषधे, जीवनावश्यक वस्तू  उपलब्ध करून देण्यात महापालिका प्रयत्नशील आहेत. त्यांना  सहकार्य करावे.  मनुष्यबळ आणि परीसर निर्जंतुकीकरण याची निकड निर्माण झाली आहे. स्थलांतरित होऊन संसर्गाचा धोका  अधिक फैलावेल तेव्हा  जिथे  आहात तिथे राहून  आरोग्य सांभाळणे अधिक महत्वाचे ठरेल.

पायी प्रवास करून संसर्गाला  खतपाणी घालण्यापेक्षा घरात सुरक्षित थांबून कोरानाचा संसर्ग  रोखता येईल असे मला वाटते.   वैद्यकीय मदत मिळेल  अशी  उपाय योजना सर्व स्तरावर व्हायला हवी. स्थलांतरित होताना होणारा संसर्ग धोका लक्षात घेऊन  आहे त्या ठिकाणी कसे सुर्य रहाता येईल याचा विचार करून  उपाय योजना करा.  गावी जाणे टाळावे.  तरच हा धोका टाळता येईल.

स्थलांतर नको, स्थित्यंतर हवे. अफवे पेक्षा मदतीचा हात अशा वेळी जास्त महत्वाचा आहे. ही मदत कशी करता येईल याचा विचार करून प्रत्येकाने  वागले पाहिजे.  टिंगल टवाळी थांबवून  गांभीर्याने ही समस्या हाताळायला हवी.

स्थलांतर  न करता अशा लोकांना अन्नदान केले तर  त्यांचा प्रवास थांबवता येईल. जन संपर्क  मदतीसाठी करावा निरर्थक जनसंपर्क टाळला तर आपण या समस्येवर मात करू शकतो.  आर्थिक मदत ज्यांना शक्य आहे त्यांनी जरुर करावी.

पुढ्यातले ताट द्या पण बसायचा पाट देऊ नका या म्हणीचा अन्वयार्थ लक्ष्यात घेऊन वागायला हवे. मदत  आणि  काळजी आरोग्य  सावधानी या दोन गोष्टी खूप महत्त्वाच्या झाल्या आहेत. त्या पाळणे अनिवार्य आहे.

स्वतःचे, कुटुंबाचे  आरोग्य आणि स्वच्छते ची

काळजी  योग्य प्रकारे घेऊन आवश्यक ते प्रतिबंधात्मक उपाय अमलात आणून प्रत्येक जण या  लढाईत सहभागी होण्याची वेळ  आली आहे.   .अनावश्यक  घराबाहेर पडणे टाळले तरी  आपण खूप मोठे योगदान देऊ शकतो हे लक्ष्यात घ्या. .

वेळ महत्वाची संयमाची,  वैचारीक कृतीची आहे.  आपण  घेतलेली आपली काळजी आपल्याला वाचवू शकते.  परोपकार मदतकार्य करताना माणुसकी म्हणुन करा. फोटो ची अपेक्षा धरून मदत कार्य करू नका. आता स्वतःला वाचवा  आणि मौलिक योगदान द्या. असे  आवाहन करण्याची वेळ आली आहे. जय हिंद. जय भारत.

 

© विजय यशवंत सातपुते

यशश्री, 100 ब दीपलक्ष्मी सोसायटी,  सहकार नगर नंबर दोन, पुणे 411 009.

मोबाईल  9371319798.

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मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 41 –  गाठोडे ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  नानी / दादी की स्मृतियों में खो जाने लायक संयुक्त  परिवार एवं ग्राम्य परिवेश में व्यतीत पुराने दिनों को याद दिलाती एक अतिसुन्दर मौलिक कविता   “ गाठोडे”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 41 ☆ 

 ☆  गाठोडे 

 

कुठे गेले आजीबाई

तुझे गाठोडे ग सांग।

खाऊ, खेळणी, औषध

यांची देत आसे बांग।

 

गाठोड्यात पोटलीची

असे जादू  लई भारी।

क्षणार्धात दिसेनासी

होई समूळ बिमारी।

 

काच कांगऱ्या कवड्या

खेळ पुन्हा रोज रंगे।

सारीपाट  सोंगट्यांची

हवी मला जोडी संगे।

 

मऊशार उबदार

तुझी गोधडी जोडाची।

जादू तिची वाढविते

कशी रंगत स्वप्नाची।

 

गाठोड्याची कळ तुझ्या

कुणी दाबली ग बाई।

सर त्याची कपाटाला

कशी येईल ग बाई।

 

श्रीमतीचे आईचे हे

भूत जाईल का देवा

गाठोड्याच्या मायेचा तो

पुन्हा देशील का ठेवा।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मजदूरों का महापलायन ☆ श्री कुमार जितेन्द्र

श्री कुमार जितेन्द्र

 

(युवा साहित्यकार श्री कुमार जितेंद्र जी  कवि, लेखक, विश्लेषक एवं वरिष्ठ अध्यापक (गणित) हैं। आज प्रस्तुत है उनकी एक समसामयिक कविता चिंतन करे पर चिंता मजदूर का महापलायन ।  मजदूरों का महापलायन एक विडम्बना है। किन्तु , वैज्ञानिक दृष्टि से पलायन से अधिक वे जहाँ हैं, उन्हें वहीँ सुरक्षित ठहराने की व्यवस्था अत्यंत महत्वपूर्ण है। )

☆ मजदूर का महापलायन ☆

 

कोरोना के कहर से, टूट गया है मजदूर!

महामारी के महापलायन से, मजबूर है मजदूर!!

 

मच गई है अफरातफरी, सड़कों पर भरपुर!

घर पहुचने की दौड़ में, मजबूर है मजदूर!!

 

सड़क पर लंबी कतारें, चल रहे हैं मजदूर!

बच्चे मां को पूछ रहे हैं, जाना कितना दूर !!

 

कोरोना के कहर से, टूट गया है मजदूर!

महामारी के महापलायन से, मजबूर है मजदूर!!

 

क्या होती है प्यास, पूछिए इन बच्चों से!

क्या होती है भूख, पूछिए इन मजदूरों से!!

 

भूखे प्यासे चल रहे हैं, छाले पड़ गए पैरों में!

इधर भूख,उधर भूख, सबसे बड़ी है घर की भूख !!

 

कोरोना के कहर से, टूट गया है मजदूर!

महामारी के महापलायन से, मजबूर है मजदूर!!

 

सड़के बोली मजदूरों से, हम पहुंचाएंगे घर!!

डिजिटल के युग में, सड़कों पर मजबूर है मजदूर!!

 

मजदूरों की मानवता से, हार जाएंगी महामारी !

कुमार जीत के शब्दों से , जीत जाएंगी मानवता!!

 

कोरोना के कहर से, टूट गया है मजदूर!

महामारी के महापलायन से, मजबूर है मजदूर!!

 

✍?कुमार जितेन्द्र

साईं निवास – मोकलसर, तहसील – सिवाना, जिला – बाड़मेर (राजस्थान)

मोबाइल न. 9784853785

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हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #33 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के हृदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे # 33 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

मन चंचल मन चपल है, भाग रहा सब ओर।   

सांस डोर से बाँध कर, रोक राख इक ठौर ।।

 आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

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Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

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आध्यत्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – एकादश अध्याय (25) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

एकादश अध्याय

(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )

दंष्ट्राकरालानि च ते मुखानिदृष्टैव कालानलसन्निभानि ।

दिशो न जाने न लभे च शर्म प्रसीद देवेश जगन्निवास ।। 25 ।।

प्रलय काल की अग्नि सम दाढें तव विकराल

देख तुम्हारे रूप  को है मेरा यह हाल

न ही मेरे मन शांति है , न दिशाओं का ज्ञान

हो प्रसन्न मुझ पर दया , करिये कृपा निधान ।। 25 ।।

भावार्थ :  दाढ़ों के कारण विकराल और प्रलयकाल की अग्नि के समान प्रज्वलित आपके मुखों को देखकर मैं दिशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसलिए हे देवेश! हे जगन्निवास! आप प्रसन्न हों।। 25 ।।

 

Having seen Thy mouths, fearful with teeth, blazing like the fires of cosmic dissolution, I know not the four quarters, nor do I find peace. Have mercy, O Lord of the gods! O abode of the universe!।। 25 ।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विशाखा की नज़र से # 28 – माँ का होना ☆ श्रीमति विशाखा मुलमुले

श्रीमति विशाखा मुलमुले 

(श्रीमती  विशाखा मुलमुले जी  हिंदी साहित्य  की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती  रहती हैं.  आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है  एक अतिसुन्दर भावप्रवण  एवं सार्थक रचना  ‘माँ का होना ।  आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ  “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में  पढ़  सकते हैं । )

ऐसी रचना सिर्फ और सिर्फ माँ ही रच सकती है और उसकी भावनाएं संतान ही पढ़ सकती हैं ।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 28 – विशाखा की नज़र से

☆ माँ का होना ☆

 

माँ का होना मतलब ,

चूल्हे का होना

आग का होना

उस पर रखी देगची

और,

पकते भोजन का सुवास होना

 

माँ का होना मतलब,

घर का हर कोना व्यवस्थित होना

बुरी नज़र का दूर होना

और,

नौनिहालों के सर पर

आशीष का होना

 

माँ का होना मतलब,

पेट का भरा होना

तन पर चादर का होना

और,

सोते समय एक छोटी सी

कहानी का होना

 

माँ का होना मतलब,

अगरबत्ती का होना

मंत्रों का गुंजित होना

और,

घर के मंदिर में फूलों का होना

 

माँ का होना मतलब

एक व्यक्ति का सजग होना

छोटी सी चोट पर

हल्दी का मरहम होना

और,

अपने सारे तपोबल का

अंश पर निसार होना

मां का होना ….

 

© विशाखा मुलमुले  

पुणे, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच – #43 ☆ जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से इन्हें पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली  कड़ी । ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच # 43 –  जो बाँचेगा, वही रचेगा, जो रचेगा, वही बचेगा ☆ अमृत -2 ☆

एक सुखद संयोग:
जो बाँचेगा, वही रचेगा,
जो रचेगा, वही बचेगा।..
ये मेरी पंक्तियाँ हैं जिनका उल्लेख प्रधानमंत्री जी से काशी की एक लेखिका ने किया। हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार का यह सूत्र भी है। हमारी पत्रिका ‘हम लोग’ के मुखपृष्ठ पर इसे सदा छापा भी गया है।

– संजय भरद्वाज
☆ अमृत -2 ☆

मुझे अमृत

कभी मत देना,

मिल भी जाए

तो हर लेना,

चक्रपाणि,

ये चाह मुझे

जिलाये रखती है

मंथन को

टिकाये रखती है,

मैं जीना चाहता हूँ

मैं लिखना चाहता हूँ!

 

©  संजय भारद्वाज

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 43 ☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार

डॉ कुन्दन सिंह परिहार

(आपसे यह  साझा करते हुए हमें अत्यंत प्रसन्नता है कि  वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे  आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं। आज  का व्यंग्य  ‘बुद्ध और केशवदास’  निश्चित ही  युवावस्था की अगली अवस्था में  पदार्पण कर रहे या पदार्पण कर चुके /चुकी पीढ़ी  को बार बार आइना देखने को मजबूर कर देगा। मैं सदा से कहते आ रहा हूँ कि डॉ परिहार जी  की तीक्ष्ण व्यंग्य दृष्टि से किसी का बचना मुमकिन  है ही नहीं। डॉ परिहार जी ने  कई लोगों की दुखती राग पर हाथ धर दिया है।  ऐसे अतिसुन्दर व्यंग्य के  लिए डॉ परिहार जी की  लेखनी को नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 43 ☆

☆ व्यंग्य – बुद्ध और केशवदास ☆

यह ‘जुबावस्था’ जो होती है, महाठगिनी होती है। भगवान बुद्ध ने इसी बात को समझ लिया था, इसलिए उन्होंने घर छोड़कर सन्यास ले लिया। लेकिन जो लोग बुद्ध की तरह कुछ सीखते नहीं, वे युवावस्था को ही पकड़ रखने की कोशिश में लगे रहते हैं। जवानी बरजोर घोड़ी की तरह उन्हें छोड़कर भागी जाती है और वे उसे पकड़ रखने के चक्कर में उसके साथ घसिटते जाते हैं। बाल सफेद हो जाते हैं, दाँत झड़ जाते हैं, खाल ढीली हो जाती है, लेकिन सींग कटाकर बछड़ों में नाम लिखाने की ललक कम नहीं होती।

कुछ लोग जवानी को सलामत रखने के लिए बाल रंग लेते हैं। कल तक मामला खिचड़ी था, आज कृष्ण-क्रांति हो गयी। लेकिन राज़ छिपता नहीं। रंगे बाल अपना राज़ खुद ही खोल देते हैं। कभी कोई खूँटी सफेद रह जाती है, कभी मेंहदी का सा लाल लाल रंग दिखने लगता है। और फिर बाल एकदम काले हो भी गये तो बाकी चेहरे मोहरे का क्या करोगे? चेहरे पर ये जो झुर्रियां हैं, या आँखों के नीचे की झाईं, या गड्ढों में घुसती अँखियाँ। किसे किसे सँभालोगे? कहाँ कहाँ हाथ लगाओगे?

और फिर इस सब छद्म में कितनी मेहनत लगती है, कितना छिपाव-दुराव करना पड़ता है? कोई कुँवारी कन्या या कुँवारे सुपुत्र यह सब करें तो समझ में आता है, लेकिन यहाँ तो वे भी रंगे-चंगे नज़र आते हैं जिनके बेटों के बाल खिचड़ी हो गए।

‘आहत’ जी लेखक हैं और मेरे परिचित हैं। उनके लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छपते हैं, लेकिन जब लेख के साथ उनका चित्र छपता है तो पहचानना मुश्किल हो जाता है। ‘आहत’ जी के केश सफेद हैं, घनत्व कम हो चुका है। यहाँ वहाँ से चाँद झाँकती है। चेहरा भी उसी के हिसाब से है, लेकिन जो तस्वीर छपी है वह किसी जवान पट्ठे की है, जिसका चेहरा जवान और बाल काले हैं। पहचानने में देर लगती है, लेकिन चेहरे के कुछ सुपरिचित निशानों से पहचान लेता हूँ। आँखें वही हैं, नाक का घुमाव भी वही है। ज़ाहिर है तस्वीर कम से कम दस साल पुरानी है। बुढ़ापे की तस्वीर छपाने में शर्म आती है।

एक और परिचित की तस्वीर अखबार में देखता हूँ। उन्हें विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली है। उपाधि के लिए काम करते करते नौकरी के पन्द्रह-बीस साल गुज़र गये। बुढ़ापा दस्तक देने लगा। लेकिन उपलब्धि हुई तो फोटो तो छपाना ही है। इसलिए फोटो उस वक्त की छपा ली जब एम.ए. पास किया था। मित्र-परिचित हँसें तो हँसें, जो लोग नहीं जानते वे तो कम से कम उन्हें पट्ठा समझें।

एक परिचित का बालों से विछोह हो चुका है।खोपड़ी का आकार-प्रकार दिन की तरह साफ हो गया है। लेकिन जब भी फोटो छपता है, सिर पर काले घुंघराले बाल होते हैं। ज़ाहिर है, यह भी पुराने एलबम का योगदान है।

बुढ़ापे में यह सब करने की ललक क्यों होती है? क्या जवानी का भ्रम पैदा करके किसी कन्या को रिझाना है? यदि भ्रमवश कोई कन्या अनुरक्त होकर आपके दरवाज़े पर आ ही गयी तो आपका असली रूप देखकर उसके दिल पर क्या गुज़रेगी? इसके अलावा, जवानी का भ्रम फैलाते वक्त उस महिला का खयाल कर लेना भी उचित होगा जो आपकी संतानों की अम्माँ कहलाती है। आपकी फोटो को ही आपका असली रूप मान लिया जाए तो उस सयानी महिला का परिचय आप किस रूप में देंगे?

मेरे खयाल में ये सब कवि केशवदास के चेले-चाँटे हैं। उम्र निकल गयी, लेकिन उसे मानने को तैयार नहीं। रंगाई-पुताई में लगे हैं, जैसे कि पोतने से खस्ताहाल इमारत नयी हो जाएगी। अरे भई, शालीनता से बुढ़ापे को स्वीकार कर लो। हर उम्र की कुछ अच्छाइयाँ होती हैं। लेकिन जवानी के लिए ही हाहाकार करते रहोगे तो न इधर के रहोगे, न उधर के। बुड्ढों से तुम बिदकोगे और जवान तुमसे बिदकेंगे। अंगरेज़ कवि रॉबर्ट ब्राउनिंग समझदार था। उसने कहा था, ‘आओ, मेरे साथ बूढ़े हो। ज़िन्दगी का सबसे अच्छा वक्त अभी आने को है।’

 

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

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