हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #7 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #7 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

प्रलयंकारी बाढ़ में, धर्म सदृश न द्वीप । 

काल अँधेरी रात में, धर्म सदृश न दीप ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Famentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (39) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

 

यच्चापि सर्वभूतानां बीजं तदहमर्जुन ।

न तदस्ति विना यत्स्यान्मया भूतं चराचरम्‌।।39।।

सकल सृष्टि का बीज जो वह मैं ही हूँ पार्थ!

जिसके बिन चर अचर से रहित होये संसार।।39।।

भावार्थ :  और हे अर्जुन! जो सब भूतों की उत्पत्ति का कारण है, वह भी मैं ही हूँ, क्योंकि ऐसा चर और अचर कोई भी भूत नहीं है, जो मुझसे रहित हो।।39।।

 

And whatever is the seed of all beings, that also am I, O Arjuna! There is no being, whether moving or unmoving, that can exist without Me.।।39।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य ☆ कविता ☆ माँ ☆ डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ (स्वर – श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान )

डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ 

(डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय, चीन ।  वर्तमान में संरक्षक ‘दजेयोर्ग अंतर्राष्ट्रीय भाषा सं स्थान’, सूरत. अपने मस्तमौला  स्वभाव एवं बेबाक अभिव्यक्ति के लिए प्रसिद्ध।  ये रिश्ते भी बड़े अजीब होते हैं । यदि गंभीरता से  रचनाओं के शब्दों – पंक्तियों  को  आत्मसात करने  का प्रयास करें तो मनोभावनाएं हृदय से लेकर नेत्र  तक को नम कर देती हैं । ऐसी ही कुछ कवितायेँ अभी हाल ही में पढ़ने को मिली जिनमें माँ के रिश्ते पर रचित डॉ गंगाप्रसाद शर्मा  ‘गुणशेखर’ जी  की रचना और उनके मित्र श्री आर डी  वैष्णव जी के भावुक स्वर में  काव्य पाठ हृदय नेत्र नम कर देता है। प्रस्तुत है डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी  की कविता “माँ “।) 

संयोगवश आज के ही अंक में कर्नल अखिल साह जी की कविता “माँ ” प्रकाशित हुई है। ऐसे प्रयोग हम निरंतर करते रहने का प्रयास करेंगे। 
मेरा विनम्र अनुरोध है कि  कृपया कविताओं की तुलना न करें अपितु उनमें निहित भावनाओं को आत्मसात करें एवं उनका सम्मान करें। 

 सस्वर काव्य -पाठ का  ई-अभिव्यक्ति ने प्रयोग स्वरुप एक प्रयास किया है, आशा ही इस प्रयोग को प्रबुद्ध पाठकों का प्रतिसाद अवश्य मिलेगा। 

 इस सन्दर्भ में डॉ गुणशेखर जी के ही शब्दों में  – “इसे स्वर दिया है मेरे अभिन्न मित्र श्री आर डी वैष्णव ने।इसे लिखने पर आँसू नहीं आए पर सुनकर ज़रूर आए।सुनकर लगा कि इसमें माँ को गज़ल और गज़ल को माँ होते हुए भी महसूसा जा सकता है।इसे आप भी ज़रूर सुनें। कृपया श्री आर डी वैष्णव जी के चित्र पर या यूट्यूब लिंक पर क्लिक कर उनका भावप्रवण काव्य पाठ अवश्य आत्मसात करें।

श्री आर डी वैष्णव, जोधपुर, राजस्थान 

यूट्यूब लिंक  >>>>  https://youtu.be/OHaanAx11hk

  ☆ कविता  – माँ 

 

थोड़े में खुश माँ होती है

नाखुश  ही कब माँ होती है

फूलों की बगिया में फैली

खुशबू जैसी  माँ होती है

चौका-चूल्हा,बर्तन करती

दिन भर खटती माँ होती है

शैशव का मखमली बिछौना

तकिया, कंबल माँ होती है

दूध-बतासा,पुआ, पँजीरी

माखन मिसरी माँ होती है

घने  अँधेरे साँझ – सकारे

छाया जैसी माँ  होती है

जहाँ-जहाँ पग पड़ें हमारे

हर मग में बस माँ होती है

सारे रिश्ते बुझ जाएँ तब

जगमग जगमग माँ होती है

सारे जग में ढूंढ़  के जाना

माँ की उपमा माँ होती है

एक जनम के रिश्ते सारे

जनम जनम की माँ होती है

जिसने खोया उससे पूछो

किस कीमत की माँ होती है

उससे धनी कौन इस जग में

जग में  जिसकी माँ होती है

 

©  डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’

रात्रि-22:10,15-02-2020

सूरत,  गुजरात

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – परिवर्तन ☆ श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। ) 

☆ संजय दृष्टि  – परिवर्तन

जब नहीं रहूँगा मैं

और बची रहेगी सिर्फ़ देह,

उसने सोचा….,

सदा बचा रहूँगा मैं

कभी-कभार नहीं रहेगी देह,

उसने दोबारा सोचा…,

पहले से दूसरे विचार तक

पड़ाव पहुँचा

उसका जीवन बदल गया…,

दर्शन क्या बदला

जो नश्वर था कल

आज ईश्वर हो गया..!

 

©  संजय भारद्वाज

(रात्रि 11:53 बजे, 28 फरवरी 2020)

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार  सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय  संपादक– हम लोग  पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य 0अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ माँ ☆ कर्नल अखिल साह

कर्नल अखिल साह 

(ई- अभिव्यक्ति से हाल ही में जुड़े  कर्नल अखिल साह जी  एक सम्मानित सेवानिवृत्त थल सेना अधिकारी हैं। आप  1978 में सम्मिलित रक्षा सेवा प्रवेश परीक्षा में प्रथम स्थान के साथ चयनित हुए। भारतीय सैन्य अकादमी, देहरादून में प्रशिक्षण के पश्चात आपने  इन्फेंट्री की असम रेजीमेंट में जून 1980 में कमिशन प्राप्त किया। सेवा के दौरान कश्मीर, पूर्वोत्तर क्षेत्र, श्रीलंका समेत अनेक स्थानों  में तैनात रहे। 2017 को सेवानिवृत्त हो गये। सैन्य सेवा में रहते हुए विधि में स्नातक व राजनीति शास्त्र में स्नाकोत्तर उपाधि विश्वविद्यालय में प्रथम स्थान के साथ प्राप्त किया । कर्नल साह एक लंबे समय से साहित्य की उच्च स्तरीय सेवा कर रहे हैं। यह हमारे सैन्य सेवाओं में सेवारत वीर सैनिकों के जीवन का दूसरा पहलू है। ऐसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी एवं साहित्यकार से परिचय कराने के लिए हम हिंदी, संस्कृत, उर्दू एवं अंग्रेजी  में प्रवीण  कैप्टन प्रवीण रघुवंशी जी का हार्दिक आभार।  हमारा प्रयास रहेगा कि उनकी रचनाओं और अनुवाद कार्यों को आपसे अनवरत साझा करते रहें। आज प्रस्तुत है कर्नल अखिल साह जी की  एक भावप्रवण उनकी कविता ‘माँ ‘

संयोगवश आज के ही अंक में डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘ गुणशेखर ‘ जी की कविता  “माँ ” प्रकाशित हुई है। ऐसे प्रयोग हम निरंतर करते रहने का प्रयास करेंगे। 
मेरा विनम्र अनुरोध है कि  कृपया कविताओं की तुलना न करें अपितु उनमें निहित भावनाओं को आत्मसात करें एवं उनका सम्मान करें। 
☆ माँ 

छोटा सा शब्द है यह

पर अर्थ इतना विशाल,

*माँ* में ही समा जातें हैं

हम सबके तीनों काल।

 

कोख में सींचती हमको

अपने ही वह रक्त से

पोषित हों हम जूझने को

आने वाले वक्त से ।

 

आँचल के छाँव में उसके

बचपन हमारा बीतता है,

प्रेम ममता वात्सल्य में

कौन उससे जीतता है …

 

यौवन के पथ पर जब

लगने लगे हम चल

माँ की सचेत निगाहें हमपर

रखतीं नज़र हर पल।

 

बच्चे हों या हों जवान

चाहें हो जायें कितने सयाने

हमारी सलामती के लिये माँ

रहती सदा ईश्वर को मनाने।

 

तो आओ कृतज्ञ ह्रदय से

चढ़ाके श्रद्धा सुमन…

*माँ* के श्री चरणों को

कर लें शत शत नमन….

 

© कर्नल अखिल साह

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 36 ☆ कविता – सूरज और तुम …… ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय  एवं  साहित्य में  सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की  अगली कड़ी में  उनकी एक अतिसुन्दर कविता  “सूरज और तुम ……”। आप प्रत्येक सोमवार उनके  साहित्य की विभिन्न विधाओं की रचना पढ़ सकेंगे।) 

☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 36

☆ कविता  – सूरज और तुम …… ☆ 

 

डूबते हुए

सूरज ने कहा

कल फिर

वहां से छुपकर

आऊंगा तुम्हारे पास

नाहक परेशान

तुम ढ़ूढते हो

बार बार हर बार

जीवन उधर भी

सलामत रहे

इस चिन्ता में

डूबकर जाना

प्रकाश फैलाना

आर पार से झांकना

हर बार वादा निभाना

जब तुम अपने में डूबोगे

तभी तुम मुझे ढ़ूंढ़ पाओगे

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765
image_print

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 37 – विज्ञानाची ओळख   ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

 

(श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे जी हमारी पीढ़ी की वरिष्ठ मराठी साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना  एक अत्यंत संवेदनशील शिक्षिका एवं साहित्यकार हैं।  सुश्री रंजना जी का साहित्य जमीन से  जुड़ा है  एवं समाज में एक सकारात्मक संदेश देता है।  निश्चित ही उनके साहित्य  की अपनी  एक अलग पहचान है। आप उनकी अतिसुन्दर ज्ञानवर्धक रचनाएँ प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे। आज  प्रस्तुत है  मात्र विद्यार्थियों के लिए ही नहीं अपितु उनके  पालकों के लिए भी आपकी एक अतिसुन्दर कविता   “विज्ञानाची ओळख”)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – रंजना जी यांचे साहित्य # 37 ☆ 

 ☆ विज्ञानाची ओळख  

 

विज्ञानाच्या ओळखीने

विश्व कल्याण साधुया।

जगण्याचा मंत्र नवा

आज जगाला देऊया।

 

अंधश्रद्धा सोडूनिया

अभ्यासावे ग्रह , तारे।

प्रयोगाने पडताळू

जुने सिद्धांतही सारे।

 

चमत्कारी दुनियेचे

वैज्ञानिक गूढ जाणू।

अज्ञानास तिलांजली

तर्कनिष्ठा अंगी बाणू।

 

भविष्याचा वेध घेण्या

ज्ञान विज्ञान सोबती।

वापरावी सूर्य शक्ती

टाळण्याला अधोगती।

 

घेऊ गगन भरारी

प्रगतीचे पंख नवे।

हव्यासाने होई ऱ्हास

वास्तवाचे भान हवे।

 

जुन्या नव्याशी सांगड

परंपरा भारताची।

चंद्र , तारे पूजताना

जिद्द अंगी उड्डाणाची।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सकारात्मक सपने #40 – जीवन और मूल्य ☆ सुश्री अनुभा श्रीवास्तव

सुश्री अनुभा श्रीवास्तव 

(सुप्रसिद्ध युवा साहित्यसाहित्यकार, विधि विशेषज्ञ, समाज सेविका के अतिरिक्त बहुआयामी व्यक्तित्व की धनी  सुश्री अनुभा श्रीवास्तव जी  के साप्ताहिक स्तम्भ के अंतर्गत हम उनकी कृति “सकारात्मक सपने” (इस कृति को  म. प्र लेखिका संघ का वर्ष २०१८ का पुरस्कार प्राप्त) को लेखमाला के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने के अंतर्गत आज अगली कड़ी में प्रस्तुत है  “जीवन और मूल्य ”।  इस लेखमाला की कड़ियाँ आप प्रत्येक सोमवार को पढ़ सकेंगे।)  

Amazon Link for eBook :  सकारात्मक सपने

 

Kobo Link for eBook        : सकारात्मक सपने

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सकारात्मक सपने  # 40 ☆

☆ जीवन और मूल्य

वसुधैव कुटुम्बकम् की वैचारिक उद्घोषणा वैदिक भारतीय संस्कृति की ही देन है. वैज्ञानिक अनुसंधानो, विशेष रूप से संचार क्रांति जनसंचार (मीडिया एवं पत्रकारिता) एवं सूचना प्राद्योगिकी (इलेक्ट्रानिक एवं सोशल मीडिया) तथा आवागमन के संसाधनो के विकास ने तथा विभिन्न देशो की अर्थव्यवस्था की परस्पर प्रत्यक्ष व परोक्ष निर्भरता ने इस सूत्र वाक्य को आज मूर्त स्वरूप दे दिया है. हम भूमण्डलीकरण के युग में जी रहे हैं. सारा विश्व कम्प्यूटर चिप और बिट में सिमट गया है. लेखन, प्रकाशन, पठन पाठन में नई प्रौद्योगिकी की दस्तक से आमूल परिवर्तन परिलक्षित हो रहे हैं. नई पीढ़ी अब बिना कलम कागज के  कम्प्यूटर पर ही  लिख रही है, प्रकाशित हो रही है, और पढ़ी जा रही है. ब्लाग तथा सोशल मीडीया वैश्विक पहुंच के साथ वैचारिक अभिव्यक्ति के सहज, सस्ते, सर्वसुलभ, त्वरित साधन बन चुके हैं. ये संसाधन स्वसंपादित हैं, अतः इस माध्यम से प्रस्तुति में मूल्यनिष्ठा अति आवश्यक है, सामाजिक व्यवस्था के लिये यह वैज्ञानिक उपलब्धि एक चुनौती बन चुकी है.  सामाजिक बदलाव में सर्वाधिक महत्व विचारों का ही होता है.लोकतंत्र में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका के तीन संवैधानिक स्तंभो के बाद पत्रकारिता को  चौथे स्तंभ के रूप में मान्यता दी गई क्योकि पत्रकारिता वैचारिक अभिव्यक्ति का माध्यम होता है, आम आदमी की नई प्रौद्योगिकी तक  पहुंच और इसकी  त्वरित स्वसंपादित प्रसारण क्षमता के चलते ब्लाग जगत व सोशल मीडिया को लोकतंत्र के पांचवे स्तंभ के रूप में देखा जा रहा है.

वैश्विक स्तर पर पिछले कुछ समय में कई सफल जन आंदोलन सोशल मीडिया के माध्यम से ही खड़े हुये हैं. कई फिल्मो में भी सोशल मीडिया के द्वारा जन आंदोलन खड़े करते दिखाये गये हैं. हमारे देश में भी बाबा रामदेव, अन्ना हजारे के द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा दिल्ली के नृशंस सामूहिक बलात्कार के विरुद्ध बिना बंद, तोड़फोड़ या आगजनी के चलाया गया जन आंदोलन, और उसे मिले जन समर्थन के कारण सरकार को विवश होकर उसके सम्मुख किसी हद तक झुकना पड़ा. इन  आंदोलनो में विशेष रुप से नई पीढ़ी ने इंटरनेट, मोबाइल एस एम एस और मिस्डकाल के द्वारा अपना समर्थन व्यक्त किया. मूल्यनिष्ठा के अभाव में ये त्वरित प्रसारण के नये संसाधन अराजकता भी फैला सकते हैं, हमने देखा है कि किस तरह कुछ समय पहले फेसबुक के जरिये पूर्वोत्तर के लोगो पर अत्याचार की झूठी खबर से दक्षिण भारत से उनका सामूहिक पलायन होने लगा था. स्वसंपादन की सोशल मीडिया की शक्ति उपयोगकर्ताओ से मूल्यनिष्ठा व परिपक्वता की अपेक्षा रखती है. समय आ गया है कि फेक आई डी के जरिये सनसनी फैलाने के इलेक्ट्रानिक उपद्रव से बचने के लिये इंटरनेट आई डी का पंजियन वास्तविक पहचान के जरिये करने के लिये कदम उठाये जावें.

आज जनसंचार माध्यमो से सूचना के साथ ही साहित्य की अभिव्यक्ति भी हो रही है.  साहित्य समय सापेक्ष होता है. साहित्य की इसी सामयिक अभिव्यक्ति को आचार्य हजारी प्रसाद व्दिवेदी जी ने कहा था कि साहित्य समाज का दर्पण होता है. आधुनिक तकनीक की भाषा में कहें तो जिस तरह डैस्कटाप, लैपटाप, आईपैड, स्मार्ट फोन विभिन्न हार्डवेयर हैं जो मूल रूप से इंटरनेट  के संवाहक हैं एवं साफ्टवेयर से संचालित हैं. जनसामान्य की विभिन्न आवश्यकताओ की सुविधा हेतु इन माध्यमो का उपयोग हो रहा है.  कुछ इसी तरह साहित्य की विभिन्न विधायें कविता, कहानी, नाटक, वैचारिक लेख, व्यंग, गल्प आदि शिल्प के विभिन्न हार्डवेयर हैं, मूल साफ्टवेयर संवेदना है, जो  इन साहित्यिक विधाओ में रचनाकार की लेखकीय विवशता के चलते अभिव्यक्त होती है.  परिवेश व समाज का रचनाकार के मन पर पड़ने  प्रभाव ही है, जो रचना के रूप में जन्म लेता है. लेखन की  सारी विधायें इंटरनेट की तरह भावनाओ तथा संवेदना की संवाहक हैं.  साहित्यकार जन सामान्य की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है. बहुत से ऐसे दृश्य जिन्हें देखकर भी लोग अनदेखा कर देते हैं, रचनाकार के मन के कैमरे में कैद हो जाते है. फिर वैचारिक मंथन की प्रसव पीड़ा के बाद कविता के भाव, कहानी की काल्पनिकता, नाटक की निपुणता, लेख की ताकत और व्यंग में तीक्ष्णता के साथ एक क्षमतावान  रचना लिखी जाती है. जब यह रचना पाठक पढ़ता है तो प्रत्येक पाठक के हृदय पटल पर उसके स्वयं के  अनुभवो एवं संवेदनात्मक पृष्ठभूमि के अनुसार अलग अलग चित्र संप्रेषित होते हैं.

वर्तमान  में विश्व में आतंकवाद, देश में सांप्रदायिकता, जातिवाद, सामाजिक उत्पीड़न तथा आर्थिक शोषण आदि के सूक्ष्म रूप में हिंसा की मनोवृत्ति समाज में  तेज़ी से फैलती जा रही है, यह दशा हमारी शिक्षा, समाज में नैतिक मूल्यो के हृास, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं की गतिविधियो और हमारी संवैधानिक व्यवस्थाओ व आर्थिक प्रक्रिया पर प्रश्नचिन्ह लगाती है, साथ ही उन सभी प्रक्रियाओं को भी कठघरे में खड़ा कर देती है जिनका संबंध हमारे संवेदनात्मक जीवन से है. समाज से सद्भावना व संवेदना का विलुप्त होते जाना यांत्रिकता को जन्म दे रहा है. यही अनेक सामाजिक बुराईयो के पनपने का कारण है. स्त्री भ्रूण हत्या, नारी के प्रति बढ़ते अपराध, चरित्र में गिरावट, चिंतनीय हैं.  हमारी सभी साहित्यिक विधाओं और कलाओ का  औचित्य तभी है जब वे समाज के सम्मुख उपस्थित ऐसे ज्वलंत अनुत्तरित प्रश्नो के उत्तर खोजने का यत्न करती दिखें. समाज की परिस्थितियो की अवहेलना साहित्य और पत्रकारिता कर ही नही सकती. क्योकि साहित्यकार या पत्रकार  का दायित्व है कि वह किंकर्त्तव्यविमूढ़ स्थितियों में भी समाज के लिये मार्ग प्रशस्त करे. समाज का नेतृत्व करने वालो को भी राह दिखाये.

राजनीतिज्ञो के पास अनुगामियो की भीड़ होती है पर वैचारिक दिशा दर्शन के लिये वह स्वयं साहित्य का अनुगामी होता है. साहित्यकार का दायित्व है और साहित्य की चुनौती होती है कि वह देश काल परिस्थिति के अनुसार समाज के गुण अवगुणो का अध्ययन एवं विश्लेषण  करने की अनवरत प्रक्रिया का हिस्सा बना रहे और शाश्वत तथ्यो का अन्वेषण कर उन्हें लोकप्रिय तरीके से समुचित विधा में प्रस्तुत कर समाज को उन्नति की ओर ले जाने का वैचारिक मार्ग बनाता रहे.समाज को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का दायित्व मीडिया व पत्रकारिता का ही है. इसके लिये साहित्यिक संसाधन उपलब्ध करवाना ही नही, राजनेताओ को ऐसा करने के लिये अपनी लेखनी से विवश कर देने की क्षमता भी लोकतांत्रिक प्रणाली में पत्रकारिता के जरिये रचनाकार को सुलभ है.

प्राचीन शासन प्रणाली में यह कार्य राजगुरु, ॠषि व मनीषी करते थे. उन्हें राजा स्वयं सम्मान देता था. वे राजा के पथ दर्शक की भूमिका का निर्वाह करते थे. हमारे महान ग्रंथ ऐसे ही विचारको ने लिखे हैं जिनका महत्व शाश्वत है. समय के साथ बाद में कुछ राजाश्रित कवियो ने जब अपना यह मार्गदर्शी नैतिक दायित्व भुलाकर केवल राज स्तुति का कार्य संभाल लिया तो साहित्य को उन्हें भांड कहना पड़ा. उनकी रचनाओ ने भले ही उनको किंचित धन लाभ करवा दिया हो पर समय के साथ ऐसी लेखनी का साहित्यिक मूल्य स्थापित नही हो सका. कलम की ताकत तलवार की ताकत से सदा से बड़ी रही है. वीर रस के कवि राजसेनाओ का हिस्सा रह चुके हैं, यह तथ्य इस बात का उद्घोष करता है कि कलम के प्रभाव की उपेक्षा संभव नही. जिस समय में युद्ध ही राज धर्म बन गया था तब इस तरह की वीर रस की रचनायें हुई.जब  विदेशी आक्रांताओ के द्वारा हमारी संस्कृति का दमन हो रहा था तब तुलसी हुये.  भक्तिरस की रचनायें हुई. अकेली रामचरित मानस, भारत से दूर विदेशो में ले जाये गये मजदूरो को भी अपनी संस्कृति की जड़ो को पकड़े रखने का संसाधन बनी.

जैसे जैसे नई कम्प्यूटर साक्षर पीढ़ी बड़ी होगी, स्मार्ट सिटी बनेंगी, इंटरनेट और सस्ता होगा तथा आम लोगो तक इसकी पहुंच बढ़ेगी यह वर्चुएल लेखन  और भी ज्यादा सशक्त होता जायेगा, एवं  भविष्य में  लेखन क्रांति का सूत्रधार बनेगा. युवाओ में बढ़ी कम्प्यूटर साक्षरता से उनके द्वारा देखे जा रहे ब्लाग के विषय युवा केंद्रित अधिक हैं.विज्ञापन, क्रय विक्रय, शैक्षिक विषयो के ब्लाग के साथ साथ स्वाभाविक रूप से जो मुक्ताकाश कम्प्यूटर और एंड्रायड मोबाईल, सोशल नेट्वर्किंग, चैटिंग, ट्विटिंग,  ई-पेपर, ई-बुक, ई-लाइब्रेरी, स्मार्ट क्लास, ने सुलभ करवाया है, बाजारवाद ने उसके नगदीकरण के लिये इंटरनेट के स्वसंपादित स्वरूप का भरपूर दुरुपयोग किया है. मूल्यनिष्ठा के अभाव में  हिट्स बटोरने हेतु उसमें सैक्स की वर्जना, सीमा मुक्त हो चली है. पिछले दिनो वैलेंटाइन डे के पक्ष विपक्ष में लिखे गये ब्लाग अखबारो की चर्चा में रहे.

प्रिंट मीडिया में चर्चित ब्लाग के विजिटर तेजी से बढ़ते हैं, और अखबार के पन्नो में ब्लाग तभी चर्चा में आता है जब उसमें कुछ विवादास्पद, कुछ चटपटी, बातें होती हैं, इस कारण अनेक लेखक  गंभीर चिंतन से परे दिशाहीन होते भी दिखते हैं. हिंदी भाषा का कम्प्यूटर लेखन साहित्य की समृद्धि में  बड़ी भूमिका निभाने की स्थिति में हैं, ज्यादातर हिंदी ब्लाग कवियों, लेखको, विचारको के सामूहिक या व्यक्तिगत ब्लाग हैं जो धारावाहिक किताब की तरह नित नयी वैचारिक सामग्री पाठको तक पहुंचा रहे हैं. पाडकास्टिंग तकनीक के जरिये आवाज एवं वीडियो के ब्लाग, मोबाइल के जरिये ब्लाग पर चित्र व वीडियो क्लिप अपलोड करने की नवीनतम तकनीको के प्रयोग तथा मोबाइल पर ही इंटरनेट के माध्यम से ब्लाग तक पहुंच पाने की क्षमता उपलब्ध हो जाने से इलेक्ट्रानिक लेखन और भी लोकप्रिय हो रहा है.

आज का लेखक और पत्रकार  राजाश्रय से मुक्त कहीं अधिक स्वतंत्र है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का संवैधानिक अधिकार हमारे पास है. लेखन, प्रकाशन, व वांछित पाठक तक त्वरित पहुँच बनाने के तकनीकी संसाधन अधिक सुगम हैं. अभिव्यक्ति की शैली तेजी से बदली है. माइक्रो ब्लागिंग इसका सशक्त उदाहरण है. पर आज नई पीढ़ी में  पठनीयता का तेजी हृास हुआ है.  किताबो की मुद्रण संख्या में कमी हुई है. आज  चुनौती है कि पठनीयता के अभाव को समाप्त करने के लिये पाठक व लेखक के बीच उँची होती जा रही दीवार तोड़ी जाये.

पाठक की जरूरत के अनुरूप लेखन तो हो पर शाश्वत वैचारिक चिंतन मनन योग्य लेखन की ओर पाठक की रुचि विकसित की  जाये. आवश्यक हो तो इसके लिये पाठक की जरूरत के अनुरूप शैली व विधा बदली जा सकती है,प्रस्तुति का माध्यम भी बदला जा सकता है.अखबारो में नये स्तंभ बनाये जा सकते हैं.  यदि समय के अभाव में पाठक छोटी रचना चाहता है, तो क्या फेसबुक की संक्षिप्त टिप्पणियो को या व्यंग के कटाक्ष करती क्षणिकाओ को साहित्यिक विधा की मान्यता दी जा सकती है ? यदि पाठक किताबो तक नही पहुँच रहे तो क्या किताबो को पोस्टर के वृहद रूप में पाठक तक पहुंचाया जावे ? क्या टी वी चैनल्स पर रचनाओ की चर्चा के प्रायोजित कार्यक्रम प्रारंभ किये जावे? ऐसे प्रश्न भी विचारणीय हैं.

जो भी हो हमारा समय उस परिवर्तन का साक्षी है जब समाज में  कुंठाये, रूढ़ियां, परिपाटियां टूट रही हैं. समाज हर तरह से उन्मुक्त हो रहा है, परिवार की इकाई वैवाहिक संस्था तक बंधन मुक्त हो रही है, अतः हमारी  पीढ़ी की चुनौती अधिक है. आज हम जितनी मूल्यनिष्ठा और गंभीरता से अपने  दायित्व का निर्वहन करेंगे कल इतिहास में हमें उतना ही अधिक महत्व दिया जावेगा.

image_print

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य- कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #6 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

आचार्य सत्य नारायण गोयनका

(हम इस आलेख के लिए श्री जगत सिंह बिष्ट जी, योगाचार्य एवं प्रेरक वक्ता योग साधना / LifeSkills  इंदौर के ह्रदय से आभारी हैं, जिन्होंने हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के महान कार्यों से अवगत करने में  सहायता की है। आप  आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के कार्यों के बारे में निम्न लिंक पर सविस्तार पढ़ सकते हैं।)

आलेख का  लिंक  ->>>>>>  ध्यान विधि विपश्यना के महान साधक – आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी 

Shri Jagat Singh Bisht

(Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker.)

☆  कविता / दोहे ☆ आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे #6 ☆ प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट ☆ 

(हम  प्रतिदिन आचार्य सत्य नारायण गोयनका  जी के एक दोहे को अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास करेंगे, ताकि आप उस दोहे के गूढ़ अर्थ को गंभीरता पूर्वक आत्मसात कर सकें। )

आचार्य सत्य नारायण गोयनका जी के दोहे बुद्ध वाणी को सरल, सुबोध भाषा में प्रस्तुत करते है. प्रत्येक दोहा एक अनमोल रत्न की भांति है जो धर्म के किसी गूढ़ तथ्य को प्रकाशित करता है. विपश्यना शिविर के दौरान, साधक इन दोहों को सुनते हैं. विश्वास है, हिंदी भाषा में धर्म की अनमोल वाणी केवल साधकों को ही नहीं, सभी पाठकों को समानरूप से रुचिकर एवं प्रेरणास्पद प्रतीत होगी. आप गोयनका जी के इन दोहों को आत्मसात कर सकते हैं :

प्रलयंकारी बाढ़ में, धर्म सदृश न द्वीप । 

काल अँधेरी रात में, धर्म सदृश न दीप ।। 

– आचार्य सत्यनारायण गोयनका

#विपश्यना

साभार प्रस्तुति – श्री जगत सिंह बिष्ट

A Pathway to Authentic Happiness, Well-Being & A Fulfilling Life! We teach skills to lead a healthy, happy and meaningful life.

Please feel free to call/WhatsApp us at +917389938255 or email [email protected] if you wish to attend our program or would like to arrange one at your end.

Our Famentals:
The Science of Happiness (Positive Psychology), Meditation, Yoga, Spirituality and Laughter Yoga.  We conduct talks, seminars, workshops, retreats, and training.

Email: [email protected]

Jagat Singh Bisht : Founder: LifeSkills

Master Teacher: Happiness & Well-Being; Laughter Yoga Master Trainer
Past: Corporate Trainer with a Fortune 500 company & Laughter Professor at the Laughter Yoga University.
Areas of specialization: Behavioural Science, Positive Psychology, Meditation, Five Tibetans, Yoga Nidra, Spirituality, and Laughter Yoga.

Radhika Bisht ; Founder : LifeSkills  
Yoga Teacher; Laughter Yoga Master Trainer

image_print

Please share your Post !

Shares

आध्यात्म/Spiritual ☆ श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – दशम अध्याय (38) ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

श्रीमद् भगवत गीता

हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

दशम अध्याय

(भगवान द्वारा अपनी विभूतियों और योगशक्ति का कथन)

दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम्‌।

मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम्‌।।38।।

 

शासक का मैं दण्ड हूँ, विजयेच्छु की नीति

गोपनीय का मौन हूँ ज्ञानी की हूँ प्रतीति।।38।।

भावार्थ :  मैं दमन करने वालों का दंड अर्थात्‌दमन करने की शक्ति हूँ, जीतने की इच्छावालों की नीति हूँ, गुप्त रखने योग्य भावों का रक्षक मौन हूँ और ज्ञानवानों का तत्त्वज्ञान मैं ही हूँ।।38।।

 

Among the  punishers  I  am  the  sceptre;  among  those  who  seek  victory  I  am statesmanship; and also among secrets I am silence; knowledge among knowers I am.।।38।।

 

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

image_print

Please share your Post !

Shares
image_print