(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – दूर रहो तुम तन से…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 149 – गीत – दूर रहो तुम तन से…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “खत वह मेहबूब का..”)
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी
इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – ॐ नमः शिवाय साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अविस्मरणीय संस्मरण – “समय समय की बात”।)
☆ संस्मरण ☆ “समय समय की बात”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
जमाना कितना बदल गया। हम लोगों ने परसाई जी के जीते जी 1991 में परसाई जन्मदिन के बहाने परसाई केव्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन दिवसीय बड़ा आयोजन किया था, जिसमें गया से मुख्य अतिथि डॉ सुरेन्द्र चौधरी (ख्यातिलब्ध आलोचक) आये थे और अध्यक्षता महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डॉ महेश दत्त मिश्र जी ने की थी
इस अवसर पर ‘परसाई स्मारिका पुस्तिका’ हमारे सम्पादन में निकाली गई थी, उस समय कई सौ प्रतियां नि:शुल्क बांटी गईं थीं। आज के समय में प्रकाशक संग्रह छापने के पहले लेखक से सौ प्रतियां खरीदने की शर्त रख देते हैं।
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “बेहतर विकल्प की तलाश“।)
अभी अभी # 111 ⇒ बेहतर विकल्प की तलाश… श्री प्रदीप शर्मा
जब हम खुद को सर्वश्रेष्ठ मान बैठते हैं, तो हमारी उन्नति के सभी रास्ते बंद हो जाते हैं। आज के युग में हर व्यक्ति अपने आपको सर्वगुण सम्पन्न साबित करने में लगा है। बड़बोलापन और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनने के साथ ही अपने आसपास प्रशंसकों और चापलूसों की फौज रही सही कसर भी पूरी कर देती है।
व्यक्तित्व का विकास आजकल मोटिवेशनल स्पीच, महत्वाकांक्षा और परस्पर प्रतिस्पर्धा पर निर्भर हो गया है। सफलता की सीढियां अब कोई नहीं चढ़ता, लिफ्ट और स्वचलित सीढ़ी (escalator) है न। ।
हमारी सफलता और सकारात्मकता का ग्राफ तो जरा देखिए, जहां हमारी पुरानी पीढ़ी परीक्षा में पासिंग मार्क से संतुष्ट हो जाती थी, वहीं आज की पीढ़ी केवल सौ प्रतिशत में विश्वास करती है। सभी बच्चे नर्वस नाइन्टीज के शिकार हैं।
आज विकास और सफलता का फंडा घनघोर सकारात्मकता है। एक शासकीय सर्वे के अनुसार पिछले दस वर्षों में देश में बीस गुना सकारात्मकता बढ़ी है। कुछ नकारात्मक शक्तियां हमें पुनः पीछे धकेलना चाहती हैं, उनसे सावधान रहना जरूरी है। शुभ शुभ सोचने से ही मंगल होता है। अपनी असफलताओं को हमें नज़रअंदाज करते हुए हमारी उपलब्धियों का डंका बजाना है। यही हमारे विकास और सफलता का मूल मंत्र है।
जहां चाह है, वहां राह है। जब विकल्प के सभी रास्ते बंद हों, तब अंधों में काना ही राजा कहलाता है। अंधेर नगरी चौपट राजा से बेहतर है, जो सर्वश्रेष्ठ उपलब्ध है, उससे ही काम चलाया जाए। ।
आजकल गूगल सर्च हमारा थिंक टैंक हो गया है और आर ओ (R.O.) का पानी हमारा वॉटर टैंक। नदी, तालाब और सरोवर तो सैर सपाटे और पर्यटन के लिए सुरक्षित हैं। व्हाटसप यूनिवर्सिटी मुक्त विश्वविद्यालय का काम कर रही है, और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) बुद्धि और विवेक को मात दे रही है।
सभी प्रचार माध्यम, सोशल मीडिया और संचार के सभी माध्यम जब सकारात्मकता का संदेश देते हैं, तब धर्म और संस्कृति का मार्ग पुष्ट होता है। बिना शत्रुओं के संहार के कभी विजय रथ विश्व विजय की ओर अग्रसर नहीं होता। किसी की हार में ही हमारी जीत है। हमारी विजय ही धर्म की विजय है, सत्य की विजय है, लोकतंत्र की विजय है।
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# प्रतिकार… #”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 141 ☆
☆ # प्रतिकार… # ☆
तू मत कर अब क्रंदन
संयमित कर सांसों का स्पंदन
ना कर किसी को वंदन
तोड़ दे सारे बंधन
आंसुओं से सैलाब ला
धरती पर वेग से बहा
डुबो दे सारे जग को
तूने हर पल कितना है सहा
तूने देखा वो सपना नहीं है
सच्चाई है, कोरी कल्पना नहीं है
इस वहशी खूंखार भीड़ में
तेरा कोई अपना नहीं है
यह तेरे नंगें जिस्म की नुमाइश है
तेरी भी इसी कोख से पैदाइश है
कलंकित कर दिया है मानवता को
क्योंकि तू इस भीड़ की फरमाइश है
लोक लाज सबने त्याग दिए हैं
सबने मिलकर मज़े लिए हैं
एक बेबस, लाचार,निर्बल स्त्री के
भीड़ ने क्या क्या हाल किए हैं
अब तू ,चल उठ,
बन जा दुर्गा और उठा हथियार
तीक्ष्ण कर दे उसकी धार
जब भी हो तेरी अस्मत पर वार
कर इन वहशियों के पुरुषार्थ पर वार
यहां सदियों से ताकतवर का
कमजोर पर अत्याचार है
प्रशासन मौन ओर लाचार है
कब तक सहोगे जुल्म और अन्याय
इसका उपाय खुलकर बस प्रतिकार है /
(यह रचना मणिपुर की घटना में पीड़ित स्त्री को समर्पित है)
ही दुनिया एक प्रचंड मोठा रंगपट आहे. त्यावर प्रत्येक जण आपल्या वाट्याला आलेली भूमिका यथाशक्ती वठवत असतो. कोणी अगदी नटश्रेष्ठ ठरतो तर कुणाची नुसती दखल सुद्धा घेतली जात नाही. या सर्व खेळाचा सूत्रधार चराचर व्यापून उरलेला तो विश्वेश असतो. हा एक खूप मोठा चिंतनशील, विचारप्रवर्तक अभ्यासाचा विषय आहे. याच विषयावरील डॉक्टर निशिकांत श्रोत्री सरांची ‘संसाराच्या रंगपटावर’ ही अतिशय सुंदर कविता आहे. ती आपल्याला या खेळाचा जणू ट्रेलरच दाखवते.
☆ रसग्रहण ☆ संसाराच्या रंगपटावर… कवी — डॉ. निशिकान्त श्रोत्री ☆
ब्रह्मांडी लपला विश्वेश
संसाराच्या रंग पटावर
घेउनी येई नाना वेश ||ध्रु||
हे तीन ओळींचे वेगळे असे या गीताचे वैशिष्ट्यपूर्ण ध्रुवपद आहे. या अखिल ब्रम्हांडात तो विश्वेश लपलेला असतो. सर्वत्र भरून राहिलेला असतो. वेळोवेळी तो वेगवेगळी रुपे घेऊन साकार होतो. प्रत्येकातच हृदयस्थ आत्माराम म्हणजे तोच ईश्वरी अंश असतो. तोच वेगवेगळ्या जीवांच्या रूपाने प्रकट होतो.
मंचावर येताना पसरे
हृदयांतरी सकलांच्या मोद
हंसवुनी रडवूनीया जगता
अंतर्यामी नाही खंत
कनात खाली उतरता परी
देउनी जाई सर्वा क्लेश
संसाराच्या रंग पटावर
घेउनी येई नाना वेश ||१||
या पहिल्या कडव्यात कवीने जन्म आणि मृत्यू या घटनांचे सुयोग्य शब्दात वर्णन केले आहे. बाळ जन्माला आले की सर्वांना अतिशय आनंद होतो. नव्या जीवाचे जल्लोषात स्वागत होते. तोही आपल्या बाललीलांनी, पुढे आपल्या गुणांनी सर्वांना कधी आनंद देतो तर कधी रडवतो. हे करीत असताना स्वतः त्यात न गुरफटका तो मात्र वाट्याला आलेली भूमिका जगून घेतो. शेवटी डाव संपला की खेळाची कनात उतरवली जाते म्हणजे त्याचा मृत्यू होतो. त्यावेळी मात्र त्याच्या जाण्याने सर्वांना खूप दुःख होते. याच पद्धतीने तो विश्वेश वेगवेगळ्या जीवांमधून वेगवेगळी भूमिका साकारत असतो. इथे कनात उतरवण्याच्या रूपकातून मृत्यूची संकल्पना अधिक स्पष्ट केली आहे. एखाद्या डाव किंवा खेळ संपला की उभारलेली कनात उतरवतात. त्याचप्रमाणे जन्माला आलेला जीव मृत्यू पावतो. ही कनात उभारण्याची आणि कनात उतरवण्याची प्रक्रिया अव्याहतपणे सुरू असते.
जगण्याला भूमिका घेवूनी
सवे आणतो काही कर्म
कधी भरजरी अंगी शेला
कधी नागवा सांगे वर्म
वसुंधरा ना भास्करमाला
कुठे उराशी धरिशी देश
संसाराच्या रंग पटावर
घेउनी येई नाना वेश ||२||
जन्माला आलेला जीव आपली भूमिका कशी निभावतो हे कवीने या दुसऱ्या कडव्यात विशद केलेले आहे. कधी कधी जगण्यासाठी काही विहित कर्म बरोबर घेऊन त्याला योग्य अशी भूमिका घेऊनच हा जीव जन्माला येतो. कधी राजा म्हणून, तर कधी उच्चपदस्थ कार्यनिपुण अधिकारी म्हणून, कधी कलानिपुण कलाकार म्हणून, तर कधी समाजाचे भूषण अशी सन्माननीय व्यक्ती म्हणून जन्माला येतो. कर्तृत्वाचा, सन्मानाचा शेला पांघरून येतो. तर कधी तपस्वी, संन्याशी, विरक्त योगी बनून सर्वांना जीवनाचे वर्म, जगण्याचे प्रयोजन, सार्थकता याविषयी प्रबोधन करतो. असा हा विश्वेश अखंड ब्रम्हांडाला व्यापून राहिलेला असतो. सगळी पृथ्वी किंवा अख्खी सूर्यमालाही जिथे त्याला सामावून घेऊ शकत नाही तिथे देशाच्या सीमांचा तर प्रश्नच येत नाही. त्यात तो मावणारच नाही.
समाजात आदर्श म्हणून आदर सन्मान मिळून सन्मानाचे उच्च पद मिळणे आणि त्याद्वारे मिळणारे ऐश्वर्य, सौख्य उपभोगणे यालाच भरजरी शेल्याचे रूपक योजिले आहे. तर उग्र तपश्चर्या करून वैराग्य प्राप्त केलेले विरक्तयोगी तपस्वी यांच्यासाठी नागव्याचे रूपक योजिले आहे. म्हणजे ते जगरुढीत न गुरफटता आपली वाट आपल्या मनाप्रमाणे चोखाळतात.
पडदा पडला खेळ संपला
देह सोडूनी उडून गेला
कर्म परंतु शेष राहिले
शोधात राही नवकायेला
देहा मागुनिया देहाच्या
शोधासाठी नव आवेश
संसाराच्या रंग पटावर
घेउनी येई नाना वेश ||३||
या तिसऱ्या कडव्यात अविनाशी आत्म्याचा प्रवास कवीने स्पष्ट केलेला आहे.
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणी
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही ||
गीतेतील या श्लोकाचा अर्थ कवीने इथे अधिक स्पष्ट केलेला आहे. जसा खेळ संपला की पडदा पडतो. त्याप्रमाणे आपले विहितकर्म संपले की जीवाचा शेवट म्हणजे मृत्यू होतो. आत्मा हा जीव सोडून निघून जातो. ज्याप्रमाणे आपण आपले जुने वस्त्र जीर्ण झाले की ते बदलून नवीन वस्त्र परिधान करतो. त्याप्रमाणे आत्मा एका देहातून निघाला की दुसऱ्या नवीन देण्यात अवतीर्ण होतो. इथे कवी म्हणतो की त्या जीवाचे जगणे संपले, पण कर्म अजून शिल्लक राहिलेले असते. ते पूर्ण करण्यासाठी आत्मा नवीन देहाला शोधत फिरतो. अशाप्रकारे तो एका देहानंतर दुसऱ्या देहाच्या शोधासाठी नव्या जोमाने फिरत राहतो आणि नवीन वेश परिधान करून नव्या भूमिकेत रंगपटावर येतो.
नवा खेळ अन् भूमिका नवी
कथा कुणाला ठाऊक नाही
कशास आलो काय कराया
देहामध्ये विसरून जाई
संवादाची ओळख नाही
किती काळचा नवा प्रवेश
संसाराच्या रंग पटावर
घेउनी येई नाना वेश ||४||
एक भूमिका संपते. पुढे दुसरी, त्यातून तिसरी असा जीवाचा प्रवास सुरूच असतो. त्याचे वर्णन कवीने या शेवटच्या कडव्यात केलेले आहे.
पुन्हा नवा खेळ सुरू होतो. नवीन भूमिका असते. पण त्याची नेमकी कथा कुणालाच ठाऊक नसते. आपण म्हणतो ना, ” प्रारब्धात काय काय लिहून ठेवले आहे कुणास ठाऊक ?” पण त्या अज्ञानात सुख मानून जगताना आपण कशासाठी जन्माला आलो? आपल्याला नेमके काय करायचे आहे ? याचाच विसर पडतो आणि या देहाचे चोचले पुरविण्यात देहात रमून जातो. त्या जीवाला आपल्या संवादाची तोंड ओळखली नसते. हा नवा प्रवेश किती काळाचा आहे हेही ठाऊक नसते. तरीही तो सतत वेगवेगळी रूपे घेऊन रंगपटावर येत असतो.
या सर्व प्रवासातून हे कळते की, आत्मा अविनाशी आहे, तो जुने वस्त्र बदलावे तसा देह बदलतो. पण एका जीवातून दुसऱ्यात प्रवेश, एका भूमिकेतून नव्याने वेषांतर करून नवी भूमिका वठवत या आत्म्याचा प्रवास अव्याहतपणे सुरू असतो. कथा, संवाद, कार्यकाळ काहीही आधी माहीत नसताना काही भूमिका अप्रतिम ठरतात. समाज मानसात कायमच्या कोरल्या जातात. तर काही उत्तम, काही ठाकठीक, काही सुमार, तर काही अगदीच नाकारल्या जातात.
ही संपूर्ण कविता रूपकात्मक आहे. प्रत्येक जीवात ईश्वर असतो आणि तो वेगवेगळी रूपे घेत प्रकटतो. तर प्रत्येक जीव अंतरात्म्यामुळे वेगवेगळ्या भूमिका वठवतो हे मुख्य रूपक आहे.
पहिल्या कडव्यात कनात खाली उतरणे या रूपकातून मृत्यू होणे हा अचूक अर्थ स्पष्ट होतो.
दुसऱ्या कडव्यात भरजरी शेला हे सामाजिक मानसन्मान, ऐश्वर्य, सौख्य यासाठी योजलेले रूपक आहे. तर नागवा हे रूपक निर्भीडपणे, परखडपणे समाज प्रबोधन करणारा विरक्त योगी, संन्यासी यांच्यासाठी योजले आहे .
तिसऱ्या कडव्यात पडदा पडला की खेळ संपतो या रूपकातून मृत्यू झाला की जीवात्मा तो देह सोडून जातो आणि ती भूमिका संपते ही गोष्ट स्पष्ट होते.
अशा रीतीने उत्तम शब्द योजनेतून ही कविता जन्म-मृत्यूचे अव्याहत सुरू असणारे चक्र, त्या मागचा सूत्रधार आणि त्याच्या विविध भूमिका अतिशय सुंदर रीतीने विशद करते. जगाच्या व्यवहारावर अगदी चपखल शब्दात प्रभावीपणे प्रकाश टाकणारी डॉक्टर श्रोत्री यांची ही एक अतिशय सुंदर कविता आहे.
ब्रह्मानंद म्हणजे नेमके काय हे समजले नसले तरी खिडकीतून , बाहेर पडणारा पाऊस पाहण्यात जो आनंद मिळतो त्याला ब्रह्मानंद म्हणायला काय हरकत आहे ? ज्या आनंदामुळे आपल्या चित्तवृत्ती प्रफुल्लित होतात आणि जो आनंद आपल्या मनातील मळभ धुऊन काढतो तोच खरा ब्रह्मानंद !
सौजन्याची ऐशी तैशी ‘ म्हणत महिनाभर मनमानी कारभा-यासारखा वागणारा हा सूर्य. त्याच्या तडाख्याने तापून निघालेल्या पृथ्वीला जगणं असह्य होऊन गेलेलं.ग्रिष्माच्या निखा-यांनी अंग अंग पोळलेलं. एक तरी सर यावी म्हणून आसुसलेले जीव.अशातच अनपेक्षितपणे कुठूनतरी थंडगार वा-याची झुळूक येते.क्षणभर आश्चर्यच वाटतं.सहज बाहेर लक्ष जातं.उन्हाची तीव्रताही कमी जाणवू लागते. तसं म्हटल तर सूर्यास्ताला अजून बराच वेळ असतो.पण बाहेर अंधार अंधार वाटू लागतो.वारे वाटेल तसे वाहू लागतात. झाडांच्या फांद्यांची घुसळण सुरू होते.पानांच्या माना मोडेपर्यंत फांद्या वाकू लागतात.कुठला कुठला पाला,पाचोळा, कागदाचे तुकडे,हा सारा केर वा-याने गोल गोल उडत उडत दारापाशी येऊन साठतो.तेवढ्यात क्षणभर सगळं काही शांत शांत होतं.’ गेलेल्या ‘ पावसाला श्रद्धांजली वाहात झाडं स्तब्ध उभी राहतात.छपरावर आलेला पाऊस गेला की काय अशी शंका येते.तोच टप् टप् असे चार थेंब पत्र्यावर पडतात.घरांची उघडी दारे धाड धाड आपटू लागतात.गेला गेला असं वाटणारा पाऊस आपल्या लवाजाम्यासह पुन्हा बरसू लागतो.थाड थाड थाड थाड पाय आदळत घरांच्या पत्र्यावर नाचू लागतो.टेरेसच्या पाईप मधून पाण्याची धार सुरू होते.रस्त्याच्या कडेला पाण्याची डबकी तयार होतात.त्यात पाण्याचे टपोरे थेंब पडले की तयार होतात छोटी मोठी वर्तुळं, एकात दुसरं विरघळून जाणारी. स्वत:च्या वर्तुळातून बाहेर न पडणा-या माणसांपेक्षा एकमेकात सहजपणे मिसळून जाणारी वर्तुळं बघितली की उगाचच मनात अपराध्यासारखं वाटू लागतं.सूर्याच दर्शन तर आता होणारच नाही.पण चुकार किरण मात्र एखाद्या ढगाआडून डोकावत असतात.मग मात्र डबक्यातल पाणी आरशासारखं चमकू लागतं.लांबून पाहिल तर अभ्रकाचा खूप मोठा तुकडाच पडलाय की काय असं वाटावं.तेवढ्यात एखादी वीज चमकून जाते, अंग वेडवाकडं नाचवत,एखाद्या नर्तकीसारखी नृत्य करत. दूरवर कुठेतरी खूप मोठा आवाज होतो आणि पडली वाटत वीज कुठेतरी ‘ लगेच चर्चा सुरू होते.तशातच या चित्रमय बदलांची कसलीही दखल न घेता एक आगगाडी उन्मत्तपणे सुसाट वेगाने धावत सुटते.कुठल्याही वेळेच बंधन नसणारा हा पाऊस, वेळा सांभाळत मुकाट्याने धावणा-या या आगगाडीकडे पाहून मनातल्या मनात हसत तर नसेल ना ? बाहेरचा पाऊस जराही आत येऊ नये म्हणून आगगाडीच्या सर्व खिडक्या बंद करुन घेतलेल्या असतात.पण असे करताना,अंग भिजू नये म्हणून काळजी घेताना,आपण चैतन्याच्या किती थेंबांना मुकतो आहोत याची आतल्या प्रवाशांना कल्पना नसते.विजेच्या तारांवरून घरंगळत जाणारे जलबिंदू किंवा तारेवर बसून पंख फडफडवणारे इवले इवले पक्षी त्यांच्या नजरेस पडू शकत नाहीत.गाडीचा आवाज विरून जातो.सगळी पाखरं कुठं चिडीचूप होतात समजत नाही.पण लबाड बोका मात्र अंग झटकत धूम ठोकतो आणि आडोश्याचा आसरा घेतो.आता त्याने ‘ म्या आऊ ‘ ? अस विचारल तर मात्र त्याला अगदी अवश्य आत ये म्हणायच अस मी ठरवतो.पण तो इतका गारठलेला असतो की डोळे मिटून गप्प उभ राहण्याशिवाय त्याला काही सुचतच नाही.खरच,त्याला चहा द्यावा काय ? आणि एकदम लक्षात येत आपण तरी कुठे घेतलाय चहा हा पाऊस बघण्याच्या नादात ! देहभान विसरून टाकायला लावणारा हा पाऊस! पण चहाची एकदा का आठवण झाली की मग मात्र चैन पडत नाही.डोळ्यासमोर चहाचा कप दिसू लागतो.त्यातून बाहेर पडणा-या वाफा या,तापलेल्या जमिनीवर मगाशी पावसाचे थेंब पडल्यावर निघणा-या वाफांच्या इतक्याच महत्वाच्या वाटू लागतात.चहा प्यायची तीव्र इच्छा होते आणि त्याच क्षणी ‘ती’ आपल्यासमोर चहाचा कप घेऊन उभी असते.पृथ्वीवरच्या या अमृताचा आस्वाद घेत घेत मी पुन्हा खिडकीतून बाहेर पाहू लागतो.तंबो-याच्या तारांप्रमाणे दिसणा-या त्या जलधारांतून निघणा-या तालबद्ध आवाजाचा टपोरेपणा नकळत जाणवू लागतो.हे सर्व पाहताना डोळ्यांना मिळणारं सुख , वहीची कितीही पानं लिहून काढली तरी मी कुणाला पटवून देऊ शकत नसतो.माझ्या अंत:करणात श्रावणसरी बरसत असतात आणि मनाच्या मोराचं नाचणं केव्हा सुरू होत हे मला समजतही नाही.हा पाऊस माझा असतो आणि मी पावसाचा. खाली उतरणारे मेघ, कोसळणारा पाऊस,न्हाऊन निघालेले डोंगरमाथे , माना तुकवून पावसापुढे नम्र होणारे वृक्ष, फुलांपानांतून टपकणारे थेंब, थरथरणारी तृणपाती हे सगळं पाहताना ‘मी न माझा राहिलो ‘ अशी अवस्था होऊन जाते.मग वाटू लागतं,ब्रह्मानंद ,ब्रह्मानंद म्हणतात तो हाच तर नव्हे ?