हिन्दी साहित्य – मनन चिंतन ☆ संजय दृष्टि – क़द ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )

? संजय दृष्टि – क़द ??

जितना निकट जाओ,

छोटा क़द

ऊँचा होता जाता है,

विज्ञान जताता है.. !

जितना निकट जाओ,

ऊँचा क़द

बौना होता जाता है,

अनुभव बताता है…!

© संजय भारद्वाज 

(6:59 बजे, 3 जुलाई 2022)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

श्री हरभगवान चावला

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरभगवान चावला जी की अब तक पांच कविता संग्रह प्रकाशित। कई स्तरीय पत्र पत्रिकाओं  में रचनाएँ प्रकाशित। कथादेश द्वारा  लघुकथा एवं कहानी के लिए पुरस्कृत । हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा श्रेष्ठ कृति सम्मान। प्राचार्य पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात स्वतंत्र लेखन।) 

आज प्रस्तुत है आपकी दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता)

☆ दो लघुकथाएं – पहाड़ पिता ☆ श्री हरभगवान चावला ☆

पहाड़ पिता – 1 

वे लोग छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ को काटकर रास्ता बनाने में जुटे थे। कुछ लोग उन्हें मूर्ख कहकर उन पर हँसते तो कुछ दयार्द्र हो जाते। यदा-कदा कोई पत्रकार भी मौक़े पर पहुँच जाता। एक दिन एक पत्रकार ने उनसे कहा, “किसलिये इतनी मेहनत कर रहे हो? ज़िला मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन करो। सरकार डायनामाइट से पहाड़ को उड़ाकर तुरत-फुरत रास्ता बना देगी। उन लोगों का मुखिया एकदम जैसे फुफकार उठा, “पहाड़ हमारा पिता है। कौन बेटा अपने पिता के चिथड़े उड़ते देख सकता है?”

“हुँह, पिता! सरकार हर रोज़ तुम्हारे पिता के चिथड़े उड़ाकर सड़कें बना रही है। क्या बिगाड़ लिया उसका तुमने और तुम्हारे पिता ने?”

“हम कुछ बिगाड़ पायें या नहीं, लेकिन पहाड़ पिता का कोप बहुत ख़तरनाक होता है। तुम देख रहे हो न, शहर धँस रहे हैं, बारिश या तो होती नहीं या कहर ढा देती है, ग़ुस्से में पहाड़ पिता ख़ुद को छलनी कर सड़कों और झीलों पर आ गिरते हैं। हम एक हथौड़ा मारते हैं और पहाड़ की देह सहला कर उससे प्रार्थना करते हैं कि ओ पहाड़ पिता सरकार को सद्बुद्धि दे, अपने बच्चों पर दया कर।”

पहाड़ पिता – 2

छैनियों और हथौड़ों से पहाड़ काटकर काफ़ी समय से बनाया जा रहा रास्ता आज बनकर तैयार हो गया था। वे बीस लोग जो इस काम में जी-जान से लगे थे, अब पहाड़ के सामने हाथ जोड़े खड़े थे। उनमें से एक आदमी जिसने सबसे पहले इस काम की शुरुआत की थी, पहाड़ से बात कर रहा था, “ओ पहाड़ पिता, तुम्हारे सीने पर ही यह रास्ता बन सकता था। हमने लगातार तुम्हें चोट पहुँचाई, इसके लिए क्षमा करना ओ पिता!” वह आदमी पहाड़ पर सिर रखे रो रहा था। उसके साथ उसके सब साथी भी रो रहे थे। कोई नहीं देख पाया कि पहाड़ ने उनके ये आँसू बादलों को सौंप दिए। अचानक बारिश शुरू हो गई। इसे शुभ शगुन माना गया। पहाड़ पिता अपने बच्चों पर मुग्ध था और उसके बच्चे उसे छू-छूकर नाच रहे थे।

©  हरभगवान चावला

सम्पर्क – 406, सेक्टर-20, हुडा,  सिरसा- 125055 (हरियाणा) फोन : 9354545440

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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English Literature – Poetry ☆ ‘वह…’ श्री संजय भारद्वाज (भावानुवाद) – ‘She…’ ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

(Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

We present an English Version of Shri Sanjay Bhardwaj’s Hindi poem वह.  We extend our heartiest thanks to the learned author Captain Pravin Raghuvanshi Ji (who is very well conversant with Hindi, Sanskrit, English and Urdu languages) for this beautiful translation and his artwork.)

श्री संजय भारद्वाज जी की मूल रचना

? संजय दृष्टि – ‘वह’.. ??

वह जानती है

बोलते  ही ‘देह’,

हर आँख में उभरता है

उसका ही आकार,

इस आकार को, मनुष्य

सिद्ध करने के मिशन में

सदियों से जुटी है वह !

© संजय भारद्वाज 

मोबाइल– 9890122603, संजयउवाच@डाटामेल.भारत, [email protected]

☆☆☆☆☆

English Version by – Captain Pravin Raghuvanshi

? ~ She’… ??

She knows

As soon as you say ‘body’,

Emerges in everyone’s eyes

her figure only,

She’s on a mission

for centuries

To prove this figure,

a human being…!

~Pravin

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 77 ☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस”☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ गजल ☆ ।। खुद का चेहरा भी देखना जरूरी है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

आईना पहले देखो फिर दिखाया करो।

झूठ को हमेशा   झूठ ही  बताया करो।।

[2]

खुद का   चेहरा भी   देखना  जरूरी है।

तब कोई इल्जाम किसी पे लगाया करो।।

[3]

उपर वाले की वह  लाठी  दिखती नहीं है।

हमेशा यह सोचके किसीको सताया करो।।

[4]

जो काम हाथ में लो पूरा करना है जरूरी।

यह समझ कर ही जिम्मेदारी उठाया करो।।

[5]

हर  आदमी का मोल और कीमत समझो।

यूं ही   किसी गरीब को  मत नचाया करो।।

[6]

गलत तरीके से मत करो बचाव किसी का।

सामने सच के झूठ को  मत बचाया करो।।

[7]

हंस फूस में चिंगारी तरह सचआता बाहर।

सात पर्दों में यूं सच   को मत छुपाया करो।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 142 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित बाल साहित्य ‘बाल गीतिका ‘से एक बाल गीत  – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

 ☆ बाल गीतिका से – “माँ, मुझको शाला जाने दो…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

माँ मुझको शाला जाने दो।

पढ़-लिखकर कुछ बन जाने दो ॥

घंटी मुझको बुला रही है।

याद साथियों की आ रही है

मुझे वहाँ अच्छा लगता है।

मन में एक सपना जगता हैं ॥

पढ़ते-लिखते गाते गाना।

खेल-खेल मिल खाते खाना॥ 

दीदी मुझे प्यार करती है।

सबकी देखभाल करती है ॥

नई कहानी कह रोजाना।

सिखलाती हैं चित्र बनाना ॥

फूल भरी सुन्दर फुलवारी ।

आँखों को लगती है प्यारी

सजा साफ सुथरा आहाता ।

सदा मेरे मन को है भाता ॥

तस्वीरों से सजी दिवालें ।

कहती सब संसार सजा लें॥ 

सारा वातावरण सुहाना ।

वहाँ ज्ञान का भरा खजाना॥ 

मैं पढ़-लिख होशियार बनूँगा ।

अनुभव ले सरदार बनूँगा ।

भारत माँ को सुखी बनाने ॥

घर-घर तक खुशियाँ पहुँचाने ॥

मेहनत सोच विचार करूँगा।

जग में सबसे प्यार करूँगा ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ “पहिला पाऊस…” ☆ श्री सुनील देशपांडे ☆

श्री सुनील देशपांडे

? कवितेचा उत्सव ?

☆ “पहिला पाऊस….” ☆ श्री सुनील देशपांडे

पाऊस पहिला,

भिजवून गेला,

थंडी अजून बाकी।

 

मनात शिरली,

स्मृतीत उरली,

आठव अजून बाकी।

 

वर्षा सरली,

वर्षे सरली,

इच्छा अजून बाकी।

 

पुन्हा भिजावे,

धुंद फिरावे,

जोश न आता बाकी।

 

धरती भिजली,

मनेही भिजली,

काय राहिले  बाकी?

 

वृत्ती थिजली,

गात्रे थिजली,

जीवन अजून बाकी।

© श्री सुनील देशपांडे

मो – 9657709640

email : [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल 

?  कवितेचा उत्सव ?

एक थेंब पावसाचा… ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल 

एक थेंब पावसाचा

धरतीच्या अंगावर

रत्नखाण झाली तिची

धन्य सारे खरोखर॥

 

एक थेंब पावसाचा

डोंगराच्या माथ्यावर

स्वर्ग लोकातील गंगा

दरी घेई कडेवर॥

 

एक थेंब पावसाचा

कुसुमाच्या पाकळीत

सव्वा लाखाचा हा हिरा

जणू जपला मुठीत॥

 

एक थेंब पावसाचा

बळीराजाच्या कपोली

डोळ्यातील एक थेंब

उराउरी भेट झाली॥

 

एक थेंब पावसाचा

प्रेमिकांच्या कायेवर

चेतावली तने मने

येई प्रेमाला बहर॥

 

एक थेंब पावसाचा

अडव ,जीरव आता

मानवा कल्याण करी

होसी सृष्टीचा तू त्राता॥

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 163 – बाळ गीत – इंजिन दादा  इंजिन दादा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 163 – बाळ गीत – इंजिन दादा  इंजिन दादा ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

इंजि न दादा इंजिन दादा

थांब  थांब थांब।

सोडू नको धूर असा लांब लांब लांब।।धृ।।

 

कोळसा खाऊन पाणी पिऊन केली फार मजा।

इजिनाचा धूर झाला आमच्या साठी सजा

निरामय आरोग्याला ठेवू नको लांब

इंजिन दादा ….।।१।।

 

देऊन रोज कोळसा ती खाण झाली रिती।

इंधन साठा पुरेल का वाटे आम्हां  भिती।

करून सवरून बनू नको आता भोळा सांब।

इंजिन दादा ….।।२।।

 

तेच निशाण तीच शिट्टी वाजू दे रे छान।

आधुनिक इंधने वाढवतील रे शान।

काळासोबत धावूनिया जावू लांब लांब

इंजिन दादा ….।।३।

 

कर नारे बदल थोडा, युग आले नवे

झुक झुक गाडीतून फिरायला हवे

गेले झेंडे आणि कंदील आले नवे खांब

इंजिन दादा ….।।४।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ पाऊस आणि आठवणी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

? विविधा ?

☆ पाऊस आणि आठवणी… ☆ सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे ☆

पाऊस आणि आठवणींचे काय नाते आहे देव जाणे! पण पाऊस आला की आठवणी येतात आणि आठवणींचा पाऊस मनात कोसळू लागतो! पावसासारख्याच आठवणींच्याही त-हा अनेक आहेत. कधी आठवणी इतक्या येऊन कोसळतात की त्यांची तुलना फक्त कोसळणाऱ्या पावसाशीच होते. कधी कधी त्या त्रासदायक असतात तर कधी आठवणी रिपरिप पडणाऱ्या पावसासारख्या असतात!आठवणी हळूहळू पण सतत येत राहतात, आणि मनाला बेचैन करतात! रिप रिप पडणारा पाऊस जसा सावकाश पण सतत राहतो, तशा या आठवणी सतत येतात आणि मनाच्या चिखलात रुतून बसतात. काही वेळा या आठवणी पावसासारख्याच लहरी असतात! कधी मुसळधार तर कधी तरल, विरळ अशा! कधीतरी अशा आठवणी वळवाच्या पावसासारख्या मृदगंध देणाऱ्या असतात! तापलेल्या मनाला शांत करतात. या आठवणींच्या गारा टप् टप् मोठ्या पडणाऱ्या असतात पण जितक्या वेगाने पडतात तितक्याच लवकर विरघळून जातात! रिमझिम पडणारा पाऊस हा प्रेमाच्या आठवणी जागवतो.त्यांची रिमझिम  माणसाला हवीशी वाटते! त्या आठवणींच्या रिमझिम पावसात माणुस चिंब भिजून जातो. पाऊस आणि आठवणींचा अन्योन्य संबंध आहे असं मला वाटतं! पाऊस येत नाही तेव्हा सारं कसं उजाड, रखरखीत होतं! तसेच आठवणी किंवा भूतकाळ नसेल तर जीवन बेचव होईल. आठवणी या मनाला ओलावा देतात.पण हो, कधी कधी पावसासारख्याच या आठवणी बेताल बनतात. पाऊस कुठेही कोसळतो, पूर येतात तशाच त्रासदायक आठवणी काही वेळा माणसाचा तोल घालवतात .त्याला त्रासदायक ठरतात. अतिरिक्त पावसासारख्या च त्याही नाश करतात.

पाऊस आणि आठवणी दोन्हीही प्रमाणात पाहिजेत, तरच त्याची मजा! कधीकधी ऊन पावसाचा खेळ होतो आणि इंद्रधनुष्य निर्माण होते! तसेच जुन्या आठवणींना उजाळा देताना आपण अगदी आनंदून  जातो.

मनाच्या कोपऱ्यात दडलेल्या आठवणी इंद्रधनुष्यासारख्या सप्तरंगात उजळतात. आठवणींच्या थेंबावर आपल्या मनाचे सूर्यकिरण पडले की त्यावर दिसणारे इंद्रधनुष्य मनाला लोभवते आणि आनंद देते. अशावेळी आपलं मन इतके आनंदित बनते  जसे की पावसाची चाहूल लागली की मोराला आनंद होऊन तो जसा नाचू लागतो! मन मोर नाचू लागतो तेव्हा सुंदर आठवणींचा पाऊस आपल्या मनात भिजवत राहतो. सृष्टीला जशी पावसाची गरज आहे तशीच आपल्यालाही छान आठवणींची गरज असते. कधी मंद बरसत, कधी रिपरिप  तर कधी कोसळत हा आठवणींचा पाऊस आपण झेलतच राहतो…झेलतच रहातो!…….

© सौ. उज्वला सुहास सहस्रबुद्धे

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ अल्लड… – भाग – ३ ☆ श्री दीपक तांबोळी ☆

श्री दीपक तांबोळी

? जीवनरंग ?

☆ अल्लड… – भाग – ३ ☆ श्री दीपक तांबोळी

(मागील भागात आपण पाहिले – मला खेळायला आवडतं आणि ही मोठी माणसं खेळतच नाहीत तर मी काय करु?मला नाईलाजास्तव लहान मुलांमध्ये खेळावं लागतं” … आता इथून पुढे)

प्रणव तिच्याजवळ गेला. तिचा चेहरा वर उचलून त्याने तिचे डोळे पुसले

“वेडाबाई कुठली! असं रडतात का?या मोठ्या माणसांना खरं तर कसं जगावं हे माहितच नसतं, म्हणून जो असा सुंदर जीवन जगतो त्याला ती नावं ठेवत असतात”

हर्षाला गोंधळली.तिला काही कळलं नाही.

“म्हणजे?”तिनं विचारलं

“तू लहान मुलांकडे बघितलंस?ती बघ कशी नेहमी आनंदी असतात.छोट्या छोट्या गोष्टीतही त्यांना आनंद वाटत असतो.एखादं खेळणं,पान,फुलं,पक्षी,चित्रं,चाँकलेट बघून ती हूरळून जातात.आपलं रडणं विसरुन ती लगेच हसायला लागतात.त्यांच्याजवळच्या प्रत्येक गोष्टीत ती आनंद शोधतात बरोबर ना?”

” हो”

” तू तशीच आहेस हर्षू.प्रत्येक गोष्टीत आनंद शोधणारी.आपल्या लग्नाला दहा वर्ष झालीत पण एवढ्या वर्षात मी तुला कधी निराश, उदास असं पाहिलंच नाही. झाली तरी काही क्षणापुरती.माझ्या आजारी आईचं तू सगळं व्यवस्थित केलंस पण कधी तुझ्या चेहऱ्यावर कंटाळा दिसला नाही. तू जे काही करतेस ते सगळं जीव ओतून. तू तुझ्यावरच्या  जबाबदाऱ्यांचाही आनंद घेत असतेस. कितीही कष्ट पडोत तुझ्या चेहऱ्यावरचा उत्साह आणि आनंद कधी मिटला नाही. मला बऱ्याचदा तुझा हेवा वाटतो.तुझ्यासारखं होण्याचा मी बऱ्याचदा प्रयत्न केला. पण नाही जमलं.कदाचित वयाच्या दहाव्या वर्षी वडील वारल्यामुळे अंगावर पडलेल्या जबाबदाऱ्यांमुळे मी खूप  लहानपणीच प्रौढ होऊन गेलो आणि नंतर मला कधी लहान होऊन आयुष्याचा आनंद घेणं जमलंच नाही.चाँकलेट खातांना किंवा कुल्फी,आईस्क्रीम खातांना तुझ्या चेहऱ्यावर जो आनंद असतो तसा आनंद मला कधी होत नाही. आपण स्वित्झर्लंडला गेलो.तिथलं निसर्गसौंदर्य पाहून तू हरखून गेलीस पण मला त्याचं फारसं कौतुक वाटलं नाही. याचं कारण तुझ्यातलं लहान मुल अजून जिवंत आहे हर्षू आणि माझ्यातलं ते कधीच मेलंय. तुझ्यातलं ते लहान मुल तसंच जिवंत राहू दे.अगदी तू म्हातारी होईपर्यंत. कारण सांगू? तू मला तशीच आवडतेस .अल्लड, अवखळ. तुला पाहिलं की माझा थकवा, माझा कंटाळा, माझी उदासीनता कुठल्या कुठे पळून जातात. तुझ्या चेहऱ्यावरच्या त्या बालिश उत्साहाला पाहून माझ्यातही उत्साहाचा संचार होऊ लागतो”

प्रणव क्षणभर थांबला.

“आणि मला सांग. तू कामं तर मोठ्या माणसांसारखीच करतेस ना?तू स्वयंपाक उत्कृष्ट करतेस.घर छान सांभाळतेस.मुलांवर चांगले संस्कार करतेस.कंपनीत नोकरी करत असतांना तू कंपनीची बेस्ट एंप्लॉयी होतीस. तू कशातच कमी नाहीस.मात्र तुझ्यात आणि इतरांत हा फरक आहे की तू हे सगळं आनंदाने करतेस कारण तुझ्यातलं ते लहान उत्साही मुल तुला सतत सक्रीय, आनंदी ठेवतंय. खरं सांगू हर्षू,प्रत्येक माणसाने तुझ्यासारखंच असायला हवं पण मोठेपणाचा आव आणून माणसं जगतात आणि जीवनातल्या आनंदाला पारखी होतात”

त्याच्या तोंडून आपली स्तुती ऐकून हर्षा लाजली.मग ती अवघडली.आजपर्यंत तिला लोकांनी तिच्या बालिशपणावरुन टोमणेच मारले होते पण तिचा धीरगंभीर,अबोल नवरा चक्क तिचे गोडवे गात होता.तिला कसं रिअँक्ट व्हावं ते कळेना.

तेवढ्यात बाहेर कुठंतरी वीज कडाडली आणि त्यापाठोपाठ पावसाने जमीन ओली केल्याचा मंद सुवास सर्वत्र दरवळला.त्या वासाने हर्षा वेडावून गेली.या पहिल्या पावसात भिजायला तिला फार आवडायचं.

“आई पाऊस पडतोय.आम्ही पावसात खेळायला जाऊ?” बाहेरुन केतकीने विचारलं.

“हो.जा”तिला उत्तर देतादेता हर्षाने प्रणवकडे पाहून विचारलं.

“मी जाऊ?”

प्रणवने तिच्याकडे आश्चर्याने पाहिलं.

“कुठे?”

“पावसात भिजायला?”

प्रणवच्या डोक्यात ती काय म्हणतेय ते पटकन शिरलं नाही. शिरलं तेव्हा तो मोठमोठ्याने हसायला लागला.

“काय झालं हसायला?”तिने निरागसपणे त्याला विचारलं.

तो न बोलता हसतच राहिला.

“अं?सांगा ना का हसताय?”

” काही नाही.तू जा”

हर्षा पटकन बाहेर आली.

“चला रे मुलांनो.आपण पावसात खेळू या”

प्रणव बाहेर आला.आपली बायको आणि मुलांना पावसात नाचतांना पाहून त्याला त्यांचा हेवा वाटला.का आपल्याला इतकं प्रौढत्वं यावं की या छोट्या छोट्या क्षणांचा आपल्याला आनंद घेता येवू नये याचं त्याला वैषम्य वाटू लागलं.”बाबा या ना पावसात भिजायला”

केतकी ओरडली.पण प्रणवचं संकोची,प्रौढ झालेलं मन त्याला पुढे जाऊ देत नव्हतं.तेवढ्यात हर्षा पुढे आली.प्रणवचा हात धरुन तिने त्याला अंगणात खेचलं.त्याचे दोन्ही हात धरुन ती त्याला नाचवायचा प्रयत्न करु लागली.तिच्यासारखं चांगलं त्याला नाचता येत नव्हतं पण ती जशी नाचत होती तसा तो नाचण्याचा प्रयत्न करु लागला.मग कसा कुणास ठाऊक त्याला तसं भिजण्यात आणि नाचण्यात खूप आनंद वाटू लागला.

पावसाची सर आली तशी निघून गेली.पण त्या पंधरावीस मिनिटात सगळ्या सृष्टीवर चैतन्य पसरवून गेली.हर्षा मुलांना घेऊन आत गेली.तिच्या पाठोपाठ प्रणवही आत आला.

“मुलांनो बाथरुममध्ये जाऊन कपडे बदलून घ्या”

मुलं बाथरुममध्ये गेल्यावर हर्षा प्रणवसाठी टाँवेल घेऊन आली. ओलेत्या कपड्यात आणि विस्कटलेल्या केसात ती खुप गोड दिसत होती.

“हे घ्या. डोकं पुसून घ्या आणि मुलांचं झालं की तुम्हीही कपडे बदलून घ्या “त्याच्या हातात टाँवेल देत ती म्हणाली.त्याने टाँवेल घेतांना तिचे हात धरले आणि तिला जवळ ओढलं.

“खूप मजा आली आज हर्षू पावसात भिजून.असंच मला शिकवत रहा आयुष्याचा आनंद घ्यायला.शिकवशील ना?”

प्रत्युत्तरात ती लाजून हसली तसं तिला अजून जवळ ओढत तो म्हणाला.

“माझी गोड गोड बायको. मला तू खूप आवडतेस”

 – समाप्त – 

© श्री दीपक तांबोळी

जळगांव

मो – 9503011250

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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