सुश्री निशा नंदिनी भारतीय
(सुदूर उत्तर -पूर्व भारत की प्रख्यात लेखिका/कवियित्री सुश्री निशा नंदिनी जी के साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना की अगली कड़ी में प्रस्तुत है हमारी और अगली पीढ़ी को देश के विभाजन की व्यथा से रूबरू कराती एक अत्यंत मार्मिक कविता “ विभाजन की व्यथा ”। आप प्रत्येक सोमवार सुश्री निशा नंदिनी जी के साहित्य से रूबरू हो सकते हैं।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सामाजिक चेतना #40 ☆
☆ विभाजन की व्यथा ☆
माँ कहती थी हम भाग थे
आधे अधूरे से
लेकर दो बच्चों को साथ
सारे गहने पहन लिए थे।
एक पेटी में बांधा था सामान
बड़ी बहन डेढ़ साल की
और
बड़े भाई चार महीने के थे।
पिता की गाढ़ी कमाई से बसाया
घर-द्वार छूट रहा था।
आँगन में अपने हाथों से रोपे
तुलसी के पौधे को देख
माँ का चेहरा मुरझा गया था।
अपनी प्यारी गाय गौरी को देखकर
उसे प्यार कर वो फूट-फूट कर रोई थी।
बार-बार अपने साथ ले जाने की
जिद्द कर रही थी,
मूर्छित हो गिर रही थी।
तुम समझती क्यों नहीं
हम गौरी को नहीं ले सकते हैं,
पिता के समझाने पर भी
वो नहीं समझ रही थी।
गौरी भी निरीह आँखों से
माँ को रोता देख रही थी,
सालों का बसाया घर
एक पेटी में समाया था।
चार माह के पुत्र का पासपोर्ट नहीं था,
पिता बहुत घबराए हुए थे
सीमा पार करते ही
पुत्र को छीन लिया गया था
माँ ने चीख पुकार लगा रखी थी
बहुत मुश्किल से कुछ ले देकर
मामला निपटा था।
माँ, भाई को गोद में ले
खुशी से चूम रही थी।
बच्चे भूख से बिलख रहे थे
दूध की कौन कहे
पानी भी मुहैया नहीं हो रहा था।
माँ,भाई को छाती से लगाए हुई थी,
पिता एक हाथ से पेटी
और
दूसरे हाथ से बड़ी बहन को गोदी में कसकर पकड़े हुए थे।
ट्रेन में सफर करते हुए माँ पिताजी दोनों ही बहुत डरे हुए थे,
रास्ते भर मारकाट मची थी
लाशों के अंबार लगे थे।
किसी के बूढ़े माँ-बाप नहीं मिल रहे थे,
तो किसी के अन्य परिजन।
सब आपाधापी में आधे-अधूरे से भाग कर
अपने देश की सीमा तक पहुंचना चाहते थे।
उस मंजर को याद कर
माँ-पिताजी का कलेजा हिल जाता था।
हम बच्चों को जितनी बार वो व्यथा सुनाते थे,
उतनी बार आँखों में आँसू छलक आते थे।
नई जगह आकर फिर से घर बसाना आसान न था,
पर देश की आजादी के साथ इस दर्द को भी निभाना था।
दोनों देश लाशों पर राज कर रहे थे।
आजादी का भरपूर जश्न मना रहे थे।
विस्थापित व्यथा से उबरने की कोशिश में तिल-तिल कर जल रहे थे।
© निशा नंदिनी भारतीय
तिनसुकिया, असम
9435533394