हेमन्त बावनकर
(आज मानवता अत्यंत कठिन दौर से गुजर रही है। कई दिनों से ह्रदय अत्यंत विचलित था । अंत में रचनाधर्मिता की जीत हुई और कुछ पंक्तियाँ लिख पाया। आशा ही नहीं पूर्ण विश्वास है कि आपका स्नेह मिलेगा और आप मेरी मनोभावनाओं से सहमत होंगे। आपको यह कविता पसंद आये तो मित्रों में अवश्य साझा करें। मेरे लिए नहीं सम्पूर्ण मानवता के लिए। यह आग्रह है मेरा मानवता से मानवता के लिए । प्रस्तुत है मेरी इसी क्षण लिखी गई समसामयिक कविता “विश्वमारी या महामारी”।)
☆विश्वमारी या महामारी ☆
तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो
विश्वमारी या महामारी
प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र
अंत में हारोगे तो तुम ही न।
चलो मैं मान लेती हूँ,
मैं प्राकृतिक आपदा हूँ।
तुमने मेरा शांत-सौम्य रूप देखा था
और विभीषिका भी, यदा कदा।
कितना डराया था तुम्हें
आँधी-तूफान-चक्रवात से
भूकंप और भूस्खलन से
ओज़ोन छिद्र से
वैश्विक उष्णता से
जलवायु परिवर्तन से
और न जाने कितने सांकेतिक रूपों से
किन्तु,
तुम नहीं माने।
चलो अब तो मान लो
यह मानव निर्मित षडयंत्र ही है
जिसके ज़िम्मेदार भी तुम ही हो
तुमने खिलवाड़ किया है
मुझसे ही नहीं
अपितु
सारी मानवता से।
तुम्हें मैंने दिया था
सारा नश्वर संसार – ब्रह्मांड
और
यह अपूर्व मानव जन्म
सुंदर सौम्य प्राकृतिक दृश्य
शीत, वसंत, पतझड़, ग्रीष्म और वर्षा ऋतुएँ
हरे भरे वन उपवन
जीव-जंतु और सरीसृप
सुंदर मनमोहक झरने
शांत समुद्र तट
और
और भी बहुत कुछ
उपहारस्वरूप
जिनका तुम ले सकते थे ‘आनंद’।
किन्तु, नहीं,
आखिर तुम नहीं माने
तुमने शांत सुरम्य प्रकृति के बजाय
‘वैश्विक ग्राम’ की कल्पना की
किन्तु ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का सिद्धान्त भूल गए।
तुमने मानवता को
कई टुकड़ों में बांटा
रंगभेद, धर्म और जातिवाद के आधार पर।
तुमने प्राथमिकता दी
युद्धों और विश्वयुद्धों को
महाशक्ति बनने की राजनीति को
पर्यावरण से खेलने को
जीवों -सरीसृपों को आहार बनाने को
विनाशक अस्त्र शस्त्रों को
स्वसंहारक जैविक शस्त्रों को
अहिंसा के स्थान पर हिंसा को
प्रेम के स्थान पर नफरत को
तुमने सारी शक्ति झोंक दी
विध्वंस में
गॅस चेम्बर और कॉन्सेंट्रेशन कैम्प
हिरोशिमा-नागासाकी और भोपाल गैस त्रासदी
गवाह हैं इसके।
तुम भूल गए
तुमने कितनी भ्रूण हत्याएं की
प्रत्येक सेकंड में कितने प्यारे बच्चे / मानव
भुखमरी, महामारी, रोग
और
नफरत की हिंसा के शिकार होते हैं।
काश,
तुम सारी शक्ति झोंक सकते
मानवता के उत्थान के लिए
दे सकते दो जून का निवाला
और बना सकते
अपने लिए अस्पताल ही सही।
तुम मुझे कुछ भी कह सकते हो
विश्वमारी या महामारी
प्राकृतिक आपदा या मानव निर्मित षडयंत्र
अंत में हारोगे तो तुम ही न।
आज जब मैंने तुम्हें आईना दिखाया
तो तुम डर गए
अपने घरों में दुबक कर बैठ गए
अब उठो
और लड़ो मुझसे
जिसके तुम्ही ज़िम्मेवार हो
अब भी मौका है
प्रकृति के नियमों का पालन करो
प्रकृति से प्रेम करो
रंगभेद, धर्म और जातिवाद से ऊपर उठकर
मानवता से प्रेम करो
अपने लिए न सही
कम से कम
अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए ही सही
जिसे तुमने ही जन्मा है
जैसे मैंने जन्मा है
तुम्हें – मानवता को
यह सुंदर सौम्य प्रकृति
उपहार है
तुम्हारे लिए
तुम्हारी आने वाली पीढ़ियों के लिए
मानवता के लिए।
© हेमन्त बावनकर, पुणे
यथार्थ चित्रण
अत्यंत मार्मिक ,सुंदर एवम् वास्तविक चित्रण. .
आपने उस सत्य को लिपिबद्ध किया है जिसे जानता हरेक है पर मानता कोई नहीं। मनुष्य की प्रकृति से खिलवाड़ बूमरैंग हो रही है।..संवेदनशील अभिव्यक्ति।
बहुत बढ़िया! आपने वास्तव सामने लाया है। सबने सीख लेनी चाहिए।
वैश्विक ग्राम बनाने के लोभ में वसुधैव कुटुम्बकम को भूल गए।
बहुत सुंदर समसामयिक महत्वपूर्ण कविता, जय हो
आप सबका हार्दिक आभार