डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है उनकी एक अतिसुन्दर समसामयिक रचना मन में थोड़ा धैर्य धरें…..। आज यही जीवन की आवश्यकता भी है। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य # 43 ☆
☆ मन में थोड़ा धैर्य धरें….. ☆
मोहभंग हो रहा स्वयं से
खुद ही खुद से डरे डरे
खुश फहमी है लगी टूटने
रिश्तों में संशय गहरे।।
कितना जीवन, इतना जीवन
नहीं मानता फिर भी ये मन
खाली समय सोच की खेती
फसल कटे, पहले का मंथन
खुशियों पर संक्रमण करे घन
अतिवृष्टि कर घात करे।
मोह भंग हो रहा स्वयं से
खुद ही खुद से डरे डरे।।
कल तक तो सब हरा भरा था
लगता जीवन खरा-खरा था
आयातित यह रक्त विषाणु
बना शत्रु है वसुंधरा का,
संवेदनिक भावनाओं को
समझेंगे कब ये बहरे।
मोह भंग हो रहा स्वयं से
खुद ही खुद से डरे – डरे।।
फैली दुनिया में लाचारी
ये सिलसिला रहेगा जारी
स्वविवेक का हाथ न थामा
रहे यदि हम स्वेच्छाचारी,
कीमत बड़ी चुकानी होगी
नहीं आज यदि हम सुधरे।
मोहभंग हो रहा स्वयं से
खुद ही खुद से डरे – डरे।।
अकथ,अकल्पित हुई हवाएं
बेमौसम मेंढक टर्राये
तर्क – वितर्कों के मेले में
उम्मीदों के दीप जलाएं,
खिले फूल महकेगा आंगन
मन में थोड़ा धैर्य धरें।
मोहभंग हो रहा स्वयं से
खुद ही खुद से डरे डरे।।
© डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश
मो. 989326601