श्रीमति विशाखा मुलमुले
(श्रीमती विशाखा मुलमुले जी हिंदी साहित्य की कविता, गीत एवं लघुकथा विधा की सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी रचनाएँ कई प्रतिष्ठित पत्रिकाओं/ई-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं. आपकी कविताओं का पंजाबी एवं मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। आज प्रस्तुत है स्त्री -शक्ति पर आधारित एक सार्थक एवं भावपूर्ण रचना ‘हाँ! मैं टेढ़ी हूँ ‘। आप प्रत्येक रविवार को श्रीमती विशाखा मुलमुले जी की रचनाएँ “साप्ताहिक स्तम्भ – विशाखा की नज़र से” में पढ़ सकते हैं । )
☆ हाँ ! मैं टेढ़ी हूँ ☆
तुम सूर्य रहे, पुरुष रहे
जलते और जलाते रहे
मैं स्त्री रही, जुगत लगाती रही
मैं पृथ्वी हो रही
अपने को बचाने के जतन में
मैं ज़रा सी टेढ़ी हो गई
मैं दिखती रही भ्रमण करते हुए
तेरे वर्चस्व के इर्दगिर्द
बरस भर में लगा फेरा
अपना समर्पण भी सिद्ध करती रही
पर स्त्री रही तो मनमानी में
घूमती भी रही अपनी धुरी पर
टेढ़ी रही तो फ़ायदे में रही
देखे मैंने कई मौसम
इकलौती रही पनपा मुझमें ही जीवन
तेरे वितान के बाकी ग्रह
हुए क्षुब्ध , वक्र दृष्टि डाले रहे
पर उनकी बातों को धत्ता बता
मैं टेढ़ी रही ! रही आई वक्र !
© विशाखा मुलमुले
पुणे, महाराष्ट्र