डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’
(अग्रज एवं वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी जीवन से जुड़ी घटनाओं और स्मृतियों को इतनी सहजता से लिख देते हैं कि ऐसा लगता ही नहीं है कि हम उनका साहित्य पढ़ रहे हैं। अपितु यह लगता है कि सब कुछ चलचित्र की भांति देख सुन रहे हैं। आप प्रत्येक बुधवार को डॉ सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’जी की रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज के साप्ताहिक स्तम्भ “तन्मय साहित्य ” में प्रस्तुत है आपकी एक समसामयिक रचना फिर कुछ दिन से….। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – तन्मय साहित्य # 47 ☆
☆ फिर कुछ दिन से…. ☆
फिर कुछ दिन से घर जैसा
है, लगने लगा मकान
खिड़की दरवाजों के चेहरों
पर लौटी मुस्कान।
मुस्कानें कुछ अलग तरह की
आशंकित तन मन से
मिला सुयोग साथ रहने का
किंतु दूर जन-जन से,
दिनचर्या लेने देने की
जैसे खड़े दुकान।
फिर कुछ दिन से घर जैसा
है लगने लगा मकान।।
बिन मांगा बिन सोचा सुख
यह साथ साथ रहने का
बाहर के भय को भीतर
हंसते – हंसते, सहने का,
अरसे बाद हुई घर में
इक दूजे से पहचान।
फिर कुछ दिन से घर जैसा
है लगने लगा मकान।।
चहकी उधर चिरैया
गुटर-गुटरगू करे कबूतर
पेड़ों पर हरियल तोतों के
टिटियाते मधुरिम स्वर,
दूर कहीं अमराई से
गूंजी कोयल की तान।
फिर कुछ दिन से घर जैसा
है लगने लगा मकान।।
इस वैश्विक संकट में हम
अपना कर्तव्य निभाएं
सेवाएं दे तन मन धन से
देश को सबल बनाएं,
मांग रहा है हमसे देश
अलग ही कुछ बलिदान
फिर कुछ दिन से घर जैसा
है लगने लगा मकान
खिड़की दरवाजों के चेहरों
पर लौटी मुस्कान।।
सुरेश तन्मय