श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
( ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों / अलंकरणों से पुरस्कृत / अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय समसामयिक रचना “जरा सोचिए”। इस आलेख के माध्यम से श्रीमती छाया सक्सेना जी ने दो महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये हैं। हम राज्य के नागरिक हैं या देश के और हम अपने ही देश में प्रवासी कैसे हो गए ? इस सार्थक एवं विचारणीय रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को नमन ।
आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 18 ☆
☆ जरा सोचिए ☆
आज सोशल मीडिया पर एक पंक्ति पढ़ी- बड़ा गुमान था ये सड़क तुम्हें अपनी लंबाई पर देश के मजदूरों ने तुम्हें पैदल ही माप दिया।
ग्यारह न. की बस का प्रयोग अक्सर बात- चीत में सुविधाभोगी लोग करते हुए दिखते हैं। थोड़ा सा भी पैदल चलने पर पसीना – पसीना हो जाते हैं तो सोचिए ये भी इंसान ही हैं।
लॉक डाउन के दौरान सबसे ज्यादा अगर कोई परेशान हुआ तो वो मजदूर जो सबके लिए घर बनाते थे पर स्वयं बेघर रहे। लंबी यात्रा पर चल दिये बिना सोचे कि कैसे पहुँच पायेंगे। ताजुब होता है कि चुनावी रैलियों में जिनको संख्या बल बढ़ाने हेतु खाना- पानी और 500 रुपये देकर दिनभर घुमाया जाता है ,क्या उनको बिना स्वार्थ भोजन नहीं दिया जा सकता था। अरे भई जल्दी तो चुनाव होना नहीं तो कौन इन्वेस्ट करे इन पर। सामाजिक संस्थाओं से तो मदद मिली पर सब कुछ फ्री पाने का लेखा जोखा कहीं न कहीं भारी पड़ गया। सबसे बड़ा आश्चर्य तो जहाँ एक भी घर से निकले तो उसका पिछवाड़ा लाल कर दिया जा रहा था वहाँ पूरे मजदूर चल दिये कोई रोकने वाला नहीं वो तो सोशल मीडिया पर हड़कम्प मचा तो प्रशासन की नींद खुली और जो जहाँ था वहीं उसे रोका गया व उसके भोजन – पानी, आवास की व्यवस्था हुई। राज्य सरकारें भी जागीं और अपने- अपने नागरिकों की मदद हेतु आगे आयीं।
ऐसे ही समय के लिए सभी नागरिकों का पंजीकरण आवश्यक होता है। इस दौरान एक प्रश्न और उठा कि हम भारत के निवासी हैं या राज्यों के, कोई भी संकट पड़ने पर कौन आगे आयेगा ? प्रवासी कहलाने लगे ये अपने ही देश में।
नगर को महानगर बनाने में सबसे अधिक योगदान मजदूरों का ही होता है। इनसे ही बड़ी- बड़ी बिल्डिंगें, कारखाने व जनसंख्या बढ़ती व पनपती है तो इनकी व्यवस्था करें। लोकतंत्र में संख्या बल ही महत्वपूर्ण होता है। फ्री की योजना सरकार बना सकती है, ये तो देखा पर समय पर फ्री समान देने के समय; खुद को लॉक डाउन करके केवल मीडिया पर फ्री में वितरण करते रहे। अरे भाई सोशल डिस्टेंसिंग भी तो मेन्टेन करनी है सो करो कम गाओ ज्यादा।
ऐसे समय में जब जान की पड़ी थी तभी कुछ लोग अर्थ व्यवस्था की चिंता का रोना लेकर अपना अलग ही राग अलापने लगे । ऐसा लगा कि सबसे बड़े अर्थशास्त्री यही हैं, बस इन दिनों में ही देश आर्थिक मजबूत बन जायेगा। ट्विटर पर आर्थिक चिंतन का एक बिंदु दिया नहीं कि समर्थकों की लाइन लग गयी। अच्छे दिनों में दो खेमों का होना तो अच्छी बात है किंतु संकट के दौर में जब वैश्विक महामारी मुह बाये खड़ी है तब भी सरकारी नीतियों को कोसना तो बिल्कुल वैसे ही है जैसे प्यास लगने पर कुंआ खोदने का विचार करना।
खैर सोच विचार तो चलता ही रहेगा , यही तो मानवता का तकाजा है।
© श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’
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