डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय आलेख रिश्ते नहीं रिसते।  यह आलेख  रिसते हुए रिश्तों  पर एक शोधपरक आलेख है।  टूटते – बिखरते रिश्तों के कारणों का  यह दस्तावेज सिर्फ कारण की विवेचना ही नहीं करता अपितु उन्हें संजोने के उपाय भी बताता है। इस आलेख के कई महत्वपूर्ण कथन हमें विचार करने के लिए उद्वेलित करते हैं। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 49 ☆

☆ रिश्ते नहीं रिसते

इक्कीसवीं सदी में संबंध व रिश्तों की परिभाषा बदल गई है। कोई संबंध पावन रहा नहीं; न ही रही  उसकी अहमियत व मर्यादा। रिश्ते आजकल दरक़ रहे हैं– उस इमारत की भांति, जो खंडहर के रूप में खड़ी तो दिखाई पड़ती है, परंतु उसके गिरने का अंदेशा सदा बना रहता है। यही दशा है– आज के संबंधों की। संबंध अर्थात् सम+बंध, समान रूप से बंधा हुआ अर्थात् दोनों पक्ष के लोग उसकी महत्ता को समान रूप से समझें व स्वीकारें। परंतु आजकल तो संबंध स्वार्थ पर आधारित हैं। वैसे तो कोई हैलो- हाय करना भी पसंद नहीं करता। इसमें दोष हमारी सोच व तीव्रता से जन्मती-पनपती आकांक्षाओं का है; जो सुरसा के मुख की भांति निरंतर बढ़ती चली जा रही हैं और मानव उनकी पूर्ति हेतु जी-जान से स्वयं अपने जीवन को खपा देता है। उस स्थिति में उसे न दिन की परवाह रहती है; न ही रात की। वह तो प्रतिस्पर्द्धा के चलते; दूसरे को पछाड़ आगे बढ़ने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाता है। इस परिस्थिति में वह रिश्ते-नातों को भुला कर: दोस्ती को दांव पर लगा, निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता रहता है और अपने आत्मजों व प्रियजनों से बहुत दूर निकल जाता है…सांसारिक चकाचौंध में वह सबको भुला बैठता है। उसे दिखायी पड़ता है–केवल-मात्र अपना स्वार्थ-सिक्त लक्ष्य; जो पुच्छल तारे की भांति उसके विनाश का कारण बनता है। इस स्थिति में उसके पास पीछे मुड़कर देखने का समय भी नहीं होता।

‘रिश्तों की माला जब टूटती है, तो दोबारा जोड़ने से छोटी हो जाती है, क्योंकि कुछ जज़्बात के मोती बिखर जाते हैं।’ यह कथन कोटिश: सत्य है–इसलिए उन्हें बहुत प्यार व सावधानी से सहेजने व संजोने की दरक़ार है। ‘सावधानी हटी, दुर्घटना घटी।’ सो! रिश्ते कांच की भांति नाज़ुक होते हैं; किसी भी पल दरक़ जाते हैं और रिश्तों में आयी दरार कहीं खाई न बन जाए; उसका ख्याल रखना अत्यंत आवश्यक है। एक फिल्म की ये पंक्तियां, ‘चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों’ व ‘ताल्लुक बोझ बन जाए, तो उसको तोड़ना अच्छा’ इन्हीं भावों को परिपुष्ट करती हैं। हृदय में संशय, संदेह, अविश्वास से अति-विषाक्त हो जाने से पूर्व अजनबी बन जाना बुद्धिमत्ता का प्रतीक है, ताकि संबंधों को पुन: स्थापित करने की संभावना बनी रहे। इसी संदर्भ में मेरे मनो-मस्तिष्क में दस्तक दे रही हैं वे पंक्तियां, ‘दुश्मनी इतनी करो कि पुन: दोस्त बनने की संभावना शेष बनी रहे।’ सो! संभावना जीवन में अपना अहम् दायित्व निभाती है और वह सदैव बनी रहनी चाहिए। रहीम जी का दोहा ‘रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय/ जोरे से पुनि न जुरै, जुरै गांठ परि जाइ’ भी यही संदेश देता है… जैसे धागे के टूटने पर, वह दोबारा जो नहीं जुड़ पाता; उसमें गांठ पड़ना अवश्यंभावी है। उसी प्रकार रिश्तों में भी शक़, आशंका, संशय व ग़लतफ़हमी ऐसी दरारें उत्पन्न कर देते हैं; जिन्हें पाटना अत्यंत दुष्कर होता है।

परंतु आजकल माधुर्यपूर्ण रिश्ते तो गुज़रे ज़माने की बात हो गए हैं। संबंध-सरोकार शेष बचे ही नहीं। हर रिश्ते में अजनबीपन का अहसास व्याप्त है। रिश्ता चाहे पति-पत्नी का हो या भाई-भाई का हो; पिता- पुत्र का हो या मां बेटी का– सब एकांत की त्रासदी झेल रहे हैं; यहां तक कि बच्चे भी अकेलेपन से जूझ रहे हैं। पति-पत्नी में स्नेह, प्रेम, त्याग व समर्पण के अभाव होने का ख़ामियाज़ा सबसे अधिक बच्चे भुगत रहे हैं तथा उनके हृदय में अनगिनत प्रश्न ग़ाहे-बेग़ाहे कुनमुनाते हैं और वे अपने माता-पिता को कटघरे में खड़ा कर देते हैं, जिसे सुन वे स्तब्ध रह जाते हैं। ‘यदि उनके पास उनके पालन-पोषण करने का समय ही नहीं था, तो उन्होंने उन्हें जन्म ही क्यों दिया?’

अक्सर माता-पिता बच्चों को खिलौने व सुख- सुविधाएं प्रदान कर, अपने दायित्वों की इति-श्री समझ लेते हैं; परंतु बच्चों को उनकी दरक़ार नहीं होती, बल्कि उन्हें तो माता-पिता के प्यार-दुलार व सान्निध्य-साहचर्य की आवश्यकता होती है; जिसके अभाव में उन मासूमों के हृदय में आक्रोश की स्थिति पनपने लगती है– जिसका परिणाम हमें बच्चों के नशे के आदी होने व अपराध जगत् की ओर प्रवृत्त होने के रूप में दिखने को मिलता है। इस स्थिति में उनका सर्वांगीण विकास कैसे संभव हो सकता है? मोबाइल, टी•वी• व मीडिया से उनका जुड़ाव व सर्वाधिक प्रतिभागिता सर्वत्र झलकती है; जो उनके जीवन का हिस्सा बन जाती है, जिसके परिणाम- स्वरूप वे मानसिक रोगी बन जाते हैं।

आजकल अहंनिष्ठता के कारण माता-पिता में अलगाव की स्थिति पनप रही है, जिसके कारण सिंगल-पेरेंट का प्रचलन तेज़ी से बढ़ रहा है। सो! बच्चों को माता का स्नेह-दुलार व पिता का सुरक्षा- दायरा नसीब नहीं हो पाता और वे कुंठा-ग्रस्त हो जाते हैं। उनके जीवन से आस्था व विश्वास के भाव नदारद हो जाते हैं और जीवन के प्रति उनका नज़रिया अथवा दृष्टिकोण सदैव नकारात्मक रहता है। सब्र, संतोष, करुणा, सहानुभूति, त्याग व  सहनशीलता से उनका दूर का नाता भी नहीं रहता। वे उसके श्रेय-प्रेय व शुभ-अशुभ पक्षों की ओर ग़ौर नहीं फ़रमाते; न ही निर्णय लेने व उसे कार्यान्वित करने में समय लगाते हैं; जिसका परिणाम हमें उनके प्रतिदिन फ़िरौती, अपहरण, लूटपाट, दुष्कर्म आदि के हादसों में लिप्त होने के रूप में दिखाई पड़ता है।

आज की युवा-पीढ़ी चार्वाक दर्शन से प्रभावित है तथा हर क्षण का तुरंत उपभोग कर लेना चाहती है। वे अगले पल अर्थात् कल व भविष्य की प्रतीक्षा नहीं करते। सो! युवावस्था में पदार्पण करने से पूर्व ही वे मासूम बच्चियों की अस्मत लूटने, एकतरफ़ा प्यार में तेज़ाब फेंकने व सरे-आम गोलियां चलाने से गुरेज़ नहीं करते। दुष्कर्म करने के पश्चात् उसकी दर्दनाक हत्या कर देना भी आजकल सामान्य सी घटना स्वीकारी जाती है, क्योंकि वे अपनी सुरक्षा-हेतु कोई भी सबूत छोड़ना नहीं चाहते। इस स्थिति में बहन, बेटी व मां के संबंध की सार्थकता उनकी दृष्टि में कहां महत्व रखती है? पहले पत्नी को छोड़कर हर महिला को मां, बहन, बेटी के रूप में मान्यता प्रदान की जाती थी और उनके आत्म-सम्मान पर आंच आने की स्थिति में; वे अपने प्राणों की बाज़ी तक लगा देने को तत्पर रहते थे। परंतु आजकल तो दुधमुंही मासूम बच्चियां भी अपने माता-पिता के आंचल तले महफूज़ नहीं हैं… गिद्ध नज़रें हर-पल उनके चारों ओर मंडराती दिखाई पड़ती हैं।

चलिए! प्रकाश डालते हैं– पति-पत्नी के विवाहेतर संबंधों पर– पति-पत्नी और वो अर्थात् पर-स्त्री-गमन आज के समाज का फैशन हो गया है। ‘लिव-इन’ व ‘मी-टू’ के दुष्परिणाम तलाक़ के रूप में हमारे समक्ष हैं, जिसके कारण परिवार टूट रहे हैं। वैसे पैसा भी रिश्तों में दरार उत्पन्न करने में अहम् भूमिका अदा करता है। भाई-भाई, भाई-बहन, पिता-पुत्र व मां-बेटी के पावन संबंध भी दांव पर लगे रहते हैं।अक्सर वे एक-दूसरे की जान लेने पर सदैव आमादा रहते हैं। संतान द्वारा माता-पिता की हत्या के किस्से सामान्य हो गये हैं। पहले संयुक्त परिवार-प्रथा का प्रचलन था। एक कमाता था, दस खाते थे। परंतु आजकल हर इंसान अधिकाधिक धन कमाने में व्यस्त है, परंतु स्थिति सर्वथा भिन्न है। परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक सिमट कर रह गये हैं और संवादहीनता के कारण  पनप रही संवेदनशून्यता की स्थिति के परिणाम-स्वरूप रिश्तों में ग्रहण लग गया है …माता- पिता को वृद्धाश्रमों में शरण लेनी पड़ रही है। वे कमरे के बंद दरवाज़ों व शून्य छत की ओर ताकते; उन आत्मजों की प्रतीक्षा में रत रहते हैं; जिनके लौटने की संभावना नगण्य होती है। अक्सर बच्चों के विदेश-गमन के पश्चात् वे जीवन में अकेले जूझते व संघर्ष करते रहते हैं; जिसका परिणाम दस माह पश्चात् एक फ्लैट में महिला का कंकाल प्राप्त होना है। यह आधुनिक समाज के सभी वर्ग के लोगों को कटघरे में खड़ा कर प्रश्न करता है– ‘क्या बच्चों का माता-पिता के प्रति कोई दायित्व नहीं है?’

वैसे इस अप्रत्याशित व भयावह स्थिति के लिए अपराधी केवल बच्चे नहीं; उनके माता-पिता भी हैं, जो उनके विदेश में होने पर फ़ख्र महसूस करते हैं। परंतु जब बच्चे वहां से लौट कर नहीं आते, तो उनकी जान पर बन आती है। सो! मैं अमुक घटना पर आपकी तवज्जो चाहूंगी; जिसे सुनकर आपके पांव तले से ज़मीन खिसक जाएगी। चंद दिन पहले पिता ने अपने बेटे को उसकी मां की गंभीर बीमारी के बारे में सूचित करते हुए कहा कि वह उसे बहुत याद करती है। एक बार आकर वह उसे मिल जाए। परंतु वह नहीं आया। इतना ही नहीं– उसका अपने भाई से यह आग्रह करना कि भविष्य में मां के निधन पर वह चला जाए और पिता के निधन पर वह चला जाएगा। क्या यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा नहीं है?

आजकल तो लहू का रंग लाल ही नहीं रहा; श्वेत हो गया है। संवेदना-सरोवर सूख चुके हैं। अब उनमें कोई हलचल नहीं रही। संवाद संबंधों की जीवन- रेखा हैं। जब आप बात करना बंद कर देते हैं; अमूल्य संबंध खोने लगते हैं। उन्हें जीवित रखने के लिए आवश्यकता है– विवाद से बचने की और संबंधों को शाश्वत बनाए रखने की…जिसकी शर्त है, झुकना; सहन करना व प्रसन्नता से खुद पराजय स्वीकार कर, दूसरों को विजयी बनाने की बलवती इच्छा होना। सच्चे संबंध जीवन की वास्तविक पूंजी व धरोहर होते हैं, जो विषम परिस्थितियों में भी सहायक सिद्ध होते हैं। इनसे निबाह करने के लिए मानव को अहम् का त्याग करना अनिवार्य होता है, अन्यथा उसी के बोझ से वे टूट जाते हैं। ‘तूफ़ान में किश्तियों का बचना तो संभव है, परंतु अहं से हस्तियों का डूबना अनिवार्य है, निश्चित है।’

सो! आजकल सब संबंध दिखावे के हैं, जो मात्र छलावा हैं। वास्तव में हर शख्स भीतर से अकेला है। यही है, जिंदगी की कशमकश; जिससे जूझता हुआ इंसान आवागमन के चक्र से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता, बल्कि उसे आजीवन सुनामी की आशंका बनी रहती है। वह हर पल इसी आशंका में जीता है कि वे रिश्ते किसी पल भी दरक़ सकते हैं, क्योंकि अविश्वास, संदेह व शंका रूपी दीमक उसे खोखला कर चुकी होती है और वे संबंध नासूर बन आजीवन रिसते रहते हैं। परंतु फिर भी एक आशा; एक उम्मीद अवश्य बनी रहती है।

आइए! पारस्परिक मनोमालिन्य को तज, सहज रूप से जीवन जीएं व अहं का त्याग कर मंगल-कामना करें और ईर्ष्या-द्वेष व स्व-पर से ऊपर उठें। संसार में जो सत्य है; वह सुंदर व कल्याणकारी है। सो! सत्य को सदैव संजो कर रखना व विषम परिस्थितियों में सम बने रहना श्रेयस्कर है।। क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, क्योंकि वह पल-भर में सब रिश्तों में सेंध लगाकर, उन्हें नष्ट कर देता है। सो! दूसरों की भावनाओं का सदैव सम्मान करें व  उनसे वैसा व्यवहार करें; जिसकी अपेक्षा हम उनसे करते हैं। पहले लोग भावुक होते थे; भावना में बह कर रिश्ते निभाते थे। फिर लोग प्रैक्टिकल हुए–भावना का कोई स्थान नहीं रहा; रिश्तों से फायदा उठाने लगे और अब प्रोफेशनल हो गए हैं और वही रिश्ते निभाने लगे हैं; जिनसे अपने स्वार्थ साधे जा सकें। ‘रिश्ते नम्रता से निभाए जा सकते हैं; छल-कपट से तो केवल महाभारत रची जा सकती है।’ इसलिए बुरा मत मानिए–अगर लोग आपको ज़रूरत के समय याद करते हैं, बल्कि गर्व कीजिए, क्योंकि मोमबत्ती की याद तभी आती है; जब अंधेरा होता है। सो! रिश्तों की गहराई को अनुभव कीजिए-समझिए। सहृदय बनिये और स्नेह-सौहार्द बनाए रखिए। रिश्तों में प्रतिदान की अपेक्षा मत रखिए; केवल देना सीखिए अर्थात् समर्पण व त्याग की महत्ता व अहमियत स्वीकारिए, ताकि रिश्ते स्वस्थ बने रहें और उनमें ताज़गी बरकरार रहे। रिश्ते रिसते न रहें। रिश्तों का अहसास बना रहे और वे जीवन को आंदोलित करते रहें; जिससे जीवन-बगिया महकती रहे; लहलहाती रहे और वहां चिर-वसंत का वास हो… मलय वायु के झोंके सभी दिशाओं को आलोड़ित व अलौकिक आनंद से सराबोर करते रहें– यही अनमोल रिश्तों की सार्थकता है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

image_print
0 0 votes
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Sudershan Ratnakar

सही बात है मुक्ता जी। आज रिश्तों में वह गरिमा वह पावनता कहाँ रही है। विचारणीय विषय है। रिश्तों के दरकने की बहुत सारे
कारण है।ये दूर नहीं हुए समाज में भटकाव आ जाएगा। बहुत सुंदर लिखा है आपने।