डॉ कुंवर प्रेमिल
☆ लघुकथा – सफेद भेड़ें काली भेड़ें ☆
रातों रात सबकी सब भेड़ें काली हो गई . जहां भी जातीं वही प्रतीत होता कि काली अंधारी रात कंबल ओढ़ कर आगे खड़ी है.
एक बूढ़ी भेड़ से रहा नहीं गया. उसने एक काली भेड़ को बुलाकर पूछा- “क्यूंरी छोरियों यह क्या गजब हुआ? सफेद झक चांदनी सी तुम सब सफेद भेड़ें रातों रात काली कलूटी बनकर क्यों घूम रही हो भला?”
काली भेड़ बोली- “दादा अम्मां, जब सभी काले धंधो मैं निर्लिप्त हो बाकी बची हुईं को भी समय रहते चेत जाना चाहिए. जितनी वजन दारी होगी, भविष्य मैं उतनी ही चलेगी. सफेद बूढ़ी भेड़ बोली- “तू ठीक कहती है छोरी. मै भी आज सफ़ेद से काली भेड़ बन जाऊँगी. मैं तो जैसे बिल्कुल अकेले ही पड़ गई थी. हाँ नहीं तो….. ”
आज की तारीख में वह सफेद भेड़ भी अपना रंग -रूप बदलने मेकअप रूम चली गई थी.
© डॉ कुँवर प्रेमिल
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अच्छी रचना