हेमन्त बावनकर
(स्वांतःसुखाय लेखन को नियमित स्वरूप देने के प्रयास में इस स्तम्भ के माध्यम से आपसे संवाद भी कर सकूँगा और रचनाएँ भी साझा करने का प्रयास कर सकूँगा। आज प्रस्तुत है एक कविता “मूर्ति उवाच ”। अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दीजिये और पसंद आये तो मित्रों से शेयर भी कीजियेगा । अच्छा लगेगा ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – अभिव्यक्ति # 21 ☆
☆ मूर्ति उवाच ☆
मुझे
कैसे भी कर लो तैयार
ईंट, गारा, प्लास्टर ऑफ पेरिस
या संगमरमर
कीमती पत्थर
या किसी कीमती
धातु को तराशकर
फिर
रख दो किसी चौराहे पर
दर्शनीय पर्यटन स्थल पर
या
विद्या के मंदिर पर
अच्छी तरह सजाकर।
मैं न तो हूँ ईश्वर
न ही नश्वर*
और
न ही कोई आत्मा अमर
किन्तु,
मैं रहूँगा तो मात्र
मूर्ति ही
निर्जीव-निष्प्राण।
इतिहास भी नहीं है अमिट
वास्तव में
इतिहास कुछ होता ही नहीं है
जो इतिहास है
वो इतिहास था
ये युग है
वो युग था
जरूरी नहीं कि
इतिहास
सबको पसंद आएगा
तुममें से कोई आयेगा
और
मेरा इतिहास बदल जाएगा।
मेरा अस्तित्व
इतिहास से जुड़ा है
और
जब भी लोकतन्त्र
भीड़तंत्र में खो जाएगा
इतिहास बदल जाएगा
फिर
तुममें से कोई आएगा
और
मेरा अस्तित्व बदल जाएगा
इतिहास के अंधकार में डूब जाएगा।
फिर
चाहो तो
कर सकते हो पुष्प अर्पण
या
कर सकते हो पुनः तर्पण।
* विचारधारा (नश्वर)
© हेमन्त बावनकर, पुणे
दिल को छू लेने वाली रचना, नये स्तंभ के लिए बधाई