श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
चतुर्दश अध्याय
गुणत्रय विभाग योग
(भगवत्प्राप्ति का उपाय और गुणातीत पुरुष के लक्षण)
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते ।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ।।23।।
किसी भी स्थिति में कोई खुद न दुख का बोध
इनके आवागमन का कहीं न कोई विरोध ।।23।।
भावार्थ : जो साक्षी के सदृश स्थित हुआ गुणों द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और गुण ही गुणों में बरतते (त्रिगुणमयी माया से उत्पन्न हुए अन्तःकरण सहित इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों में विचरना ही ‘गुणों का गुणों में बरतना’ है) हैं- ऐसा समझता हुआ जो सच्चिदानन्दघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहता है एवं उस स्थिति से कभी विचलित नहीं होता॥23॥
He who, seated like one unconcerned, is not moved by the qualities, and who, knowing that the qualities are active, is self-centred and moves not,
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
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मो ७०००३७५७९८