श्री जय प्रकाश पाण्डेय
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है । प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ की अगली कड़ी में उनके द्वारा स्व हरिशंकर परसाईं जी के जीवन के अंतिम इंटरव्यू का अंश। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी ने 27 वर्ष पूर्व स्व परसाईं जी का एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। यह साक्षात्कार उनके जीवन का अंतिम साक्षात्कार मन जाता है। आप प्रत्येक सोमवार ई-अभिव्यिक्ति में श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के सौजन्य से उस लम्बे साक्षात्कार के अंशों को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ जय प्रकाश पाण्डेय का सार्थक साहित्य # 57 ☆
☆ परसाई जी के जीवन का अन्तिम इन्टरव्यू – व्यंग्य चेतना ☆
जय प्रकाश पाण्डेय –
यह माना जाता है कि सामाजिक-राजनैतिक रूप से जागरूक और मानसिक-वैचारिक रूप से परिपक्व भाषा-समाज में ही श्रेष्ठ व्यंग्य लेखन संभव है। बंगला व मलयालम में इसकेे बाबजूद व्यंग्य लेखन की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है, जबकि अपेक्षाकृत अशिक्षित व पिछड़े हिन्दी भाषा समाज में इसकी एक स्वस्थ व जनधर्मी परम्परा कबीर के समय से ही दिखाई पड़ती है। आपकी दृष्टि में इसकेे क्या कारण है ?
हरिशंकर परसाई –
हां, आपका यह कहना ठीक है कि बंगला और मलयालम में व्यंग्य की एक समृद्ध परंपरा नहीं है, और न व्यंग्य है, जहां तक मैं जानता हूं। पर यह कहना कि एक बड़ी परिष्कृत भाषा में ही व्यंग्य बहुत अच्छा होता है या होना चाहिए, इस बात से मैं सहमत नहीं हूं। देखिए लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य विनोद होता है। आपने बुंदेलखंडी के व्यंग्य विनोद अवश्य सुनें होंगे। आपस में लोग बातचीत करते करते व्यंग्य विनोद करते हैं, कितने प्रभावशाली होते हैं, अब वह तो लोकभाषा है, आधुनिक भाषा रही नहीं, आधुनिक भाषा तो खड़ी बोली हिन्दी है।
लोकभाषा में बहुत अच्छा व्यंग्य, बहुत अच्छा विनोद होता है, तो मैं समझता हूं कि भाषा किसी भी प्रकार से इसमें बाधक नहीं है। आवश्यकता है व्यंग्य चेतना की।
किसी भाषा के लेखकों में व्यंग्य चेतना अधिक होगी तो वे व्यंग्य अधिक लिखेंगे। लोकभाषा बुंदेली में या भोजपुरी में लोग बात बात पर व्यंग्य करते हैं, बात बात में विनोद करते हैं, तो उन लोगो की कहने की शैली भी व्यंग्यात्मक हो गई है। यद्यपि लोकभाषा में व्यंग्य अधिक लिखा नहीं गया है पर वे व्यंग्य करते हैं, विनोद करते हैं। हिंदी वैसे नयी भाषा है, बहुत समृद्ध नहीं, पर इसमें कबीरदास की भाषा से तो हिंदी शायद न भी कहीं चूंकि वह बहुत प्रकार के मेल से बनी भाषा है। उन्होंने भाषा को तोड़फोड़ कर ठीक-ठाक कर लिया है, विद्रोही थे वे। कबीर दास में व्यंग्य है। आधुनिक भाषा हिन्दी में व्यंग्य की परंपरा है, भारतेन्दु हरिश्चंद्र के अलावा ‘मतवाला’ जो पत्र निकलता था उसमें उग्र, मतवाला, निराला वगैरह काम करते थे। उसमें बहुत व्यंग्य है। उसकी फाइल उठाकर देखिए उसमें व्यंग्य ही व्यंग्य है। प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त वगैरह व्यंग्य के कालम लिखते थे, जैसे मैं भी व्यंग्य के कोलौम्न कॉलम लिखता हूं। तो परंपरा है ही, उसी परंपरा में नवयुग की चेतना के अनुकूल और अपनी शैली से उसमें और जुड़कर तथा परंपराओं को तोड़कर मैंने व्यंग्य लिखा और हिंदी में व्यंग्य, लिखने वाले बहुत अधिक हैं, इसमें कोई शक नहीं, किसी अन्य भाषा में इतने अधिक नहीं होंगे शायद।
© जय प्रकाश पाण्डेय