श्री सूबेदार पाण्डेय “आत्मानंद”


(आज  “साप्ताहिक स्तम्भ -आत्मानंद  साहित्य “ में प्रस्तुत है  एक धारावाहिक कथा  “स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका ” का द्वितीय  भाग।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आत्मानंद साहित्य – स्वतंत्रता संग्राम के अनाम सिपाही  -लोकनायक रघु काका-2

निम्न‌ कुल में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने अपना एक अलग‌ ही आभामंडल विकसित कर लिया था। इसी लिए वे उच्च समाज के महिला पुरुषों के आदर का पात्र बन कर उभरे थे। मुझे आज भी वो समय‌ याद है जब देश अंग्रेजी शासन की ग़ुलामी से आजादी का आखिरी संघर्ष कर रहा‌ था। महात्मा गांधी की अगुवाई में अहिंसात्मक आंदोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। हज़ारों लाखों भारत माता के अनाम लाल  हँसते हुए फांसी का फंदा चूम शहीद हो चुके थे। इन्ही परिस्थितियों ने रघु काका के हृदय को आंदोलित और  उद्वेलित कर दिया था। वे भी अपनी ढ़ोल‌क ले कूद पड़े थे। दीवानगी के आलम में आजादी के संघर्ष में अपनी भूमिका निभाने तथा अपना योगदान देने। अब उनके गीतों के सुर लय ताल बदले हुए थे। वे अब प्रेम विरह के गीतों के बदले देश प्रेम के गीत गाकर नौजवानों के हृदय में देशभक्ति जगाने लगे थे। अब उनके गीतों में भारत माँ के अंतर की‌ वेदना मुख्रर हो रही थी।

इसी क्रम में एक दिन वे गले में ढोल लटकाये आजादी के दीवानों के दिल में जोश भरते जूलूस की अगुवाई ‌कर रहे थे। उनके देशभक्ति के भाव‌ से  ओत-प्रोत ओजपूर्ण गीत सुनते सुनते जनता के हृदय में देशभक्ति का ज्वार उमड़ पड़ा था। देशवासी भारत माता की जय, अंग्रेजों भारत छोड़ो के नारे लगा रहे थे। तभी अचानक उनके जूलूस का सामना अंग्रेजी गोरी फौजी टुकड़ी से हो गया। अपने अफसर के आदेश पर फौजी टुकड़ी टूट पड़ी थी।  निहत्थे भारतीय आजादी के दीवानों  पर सैनिक घोडे़ दौड़ाते हुए हंटरो तथा बेतों से पीट रहे थे। तभी अचानक उस जूलूस का नजारा बदल गया। भारतीयों के खून की प्यासी फौजी टुकड़ी का अफसर  हाथों से तिरंगा थामे बूढ़े आदमी को जो उस जूलूस का ध्वजवाहक था अपने आक्रोश के चलते  हंटरो से पीटता हुआ  पिल  पड़ा था   उस पर। वह बूढ़ा आदमी दर्द और पीड़ा से बिलबिलाता बेखुदी के आलम में भारत माता की जय के नारे लगाता चीख चिल्ला रहा था। वह अपनी जान देकर भी ध्वज झुकाने तथा हाथ से छोड़ने के लिए तैयार न था  और रघू काका उस बूढ़े का अपमान सह नहीं सके।  फूट पड़ा था उनके हृदय का दबा आक्रोश। उनकी आँखों में खून उतर आया था।

उन्होंने झंडा झुकने नहीं दिया। उस बूढ़े को पीछे धकेलते हुए अपनी पीठ आगे कर दी थी।  आगे बढ़ कर सड़ाक सड़ाक सड़ाक  पीटता जा रहा था अंग्रेज अफसर। तभी रघु काका ने उसका हंटर पकड़ जोर से झटका दे घोड़े से नीचे गिरा दिया था । जो उनके चतुर रणनीति का हिस्सा थी। उन्होंने अपनी ढोल को ही अपना हथियार बना अंग्रेज अफसर के सिर पर दे मारा था।  अचानक इस आक्रमण ने उसको संभलने का मौका नहीं दिया। वह अचानक हमले से घबरा गया। फिर तो जूनूनी अंदाज में पागलों की तरह पिल पड़े थे उस पर  और मारते मारते भुर्ता बना दिया था उसे। उसका रक्त सना चेहरा बड़ा ही वीभत्स तथा विकृत भयानक दीख रहा था। वह चोट से बिलबिलाता गाली देते चीख पड़ा था।  “ओ साला डर्टीमैन टुम अमको मारा। अम टुमकों जिन्डा नई छोरेगा। और फिर तो उस गोरी टुकड़ी के पांव उखड़ ‌गये थें। वह पूरी टुकड़ी जिधर से आई थी उधर ही भाग गई थी और रघु काका ने ‌अपनी‌ हिम्मत से स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक नया अध्याय ‌लिख दिया था। आज की जीत का सेहरा‌ रघु काका के सिर सजा था और उनका सम्मान और कद लोगों के बीच बढ़ गया ‌था। वे लोगों की श्रद्धा का केन्द्र ‌बन बैठे थे।

लेकिन कुछ ही दिन बाद रघु काका अपने ही‌ स्वजनों-बंधुओं के ‌धोखे का शिकार बने थे। वे मुखबिरी व गद्दारी के चलते रात के छापे में पकड़े गये थे।  लेकिन उनके चेहरे पर भय आतंक व पश्चाताप का कोई भाव नहीं थे। वे जब घूरते हुए अंग्रेज अफसर की तरफ दांत पीसते हुए देखते तो उसके शरीर में झुरझुरी छूट जाती। ‌उस दिन उन पर अंग्रेज थानेदार अफसर ने बड़ा ‌ही बर्बर अत्याचार किया था। लेकिन वह रघु के‌ चट्टानी हौसले ‌‌को तोड़ पाने में ‌विफल रहा। वह हर उपाय‌ साम दाम दंड भेद अपना चुका था लेकिन असफल रहा था मुंह खुलवाने में। न्यायालय से रघु काका को लंबी ‌जेल की सजा सुनाई गई थी। उन्हें कारागृह की अंधेरी तन्ह काल कोठरी में डाल दिया ‌गया था। लेकिन वहाँ जुल्म सहते हुए भी उनका जोश जज्बा और जुनून कम नहीं हुआ। उनके जेल जाने पर उनके एकमात्र वारिस बचे पुत्र  राम खेलावन‌ के पालन पोषण की ‌जिम्मेदारी  समाज के वरिष्ठ मुखिया लोगों ने अपने उपर ले लिया था। राम खेलावन ने भी अपनी विपरित परिस्थितियों के नजाकत को समझा था और अपनी पढ़ाई पूरी मेहनत के ‌साथ की तथा उच्च अंकों से परीक्षा ‌पास कर निरंतर प्रगति पथ पर बढ़ते हुए अपने ही जिले के शिक्षा विभाग  में उच्च पद पर आसीन हो गये थे। वे जिधर भी जाते स्वतंत्रता सेनानी के पुत्र होने के नाते उनको भरपूर सम्मान मिलता जिससे उनका हृदय आत्मगौरव के प्रमाद से ग्रस्त हो गया था। वे भुला चुके थे अपने गरीबी के दिनों को।

क्रमशः …. 3

© सुबेदार पांडेय “आत्मानंद”

संपर्क – ग्राम जमसार, सिंधोरा बाज़ार, वाराणसी – 221208, मोबा—6387407266

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