डॉ.  मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक  साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  एक अत्यंत विचारणीय  आलेख मैं शब्द, तुम अर्थ । संभवतः जीवनसाथी के लिए “मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ” से बेहतर परिभाषा हो ही नहीं सकती। इस गंभीर विमर्श  को समझने के लिए विनम्र निवेदन है यह आलेख अवश्य पढ़ें। यह डॉ मुक्ता जी के  जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन।  कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें। )     

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 59 ☆

☆ मैं शब्द, तुम अर्थ 

एक नन्ही सी परिभाषा है, जीवन साथी की ‘मैं शब्द तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ,’ परंतु आधुनिक युग में यह कल्पनातीत है। आजकल तो जीवन-साथी की परिभाषा ही बदल गई है…’जब तक आप एक-दूसरे की आकांक्षाओं पर खरा उतरें; भावनात्मक संबंध बने रहें; मौज-मस्ती से रह सकें’ उचित है, अन्यथा संबंध-निर्वहन की आवश्यकता नहीं, क्योंकि जीवन खुशी व आनंद से जीने का नाम है, ढोने का नाम नहीं। सो! तुरंत संबंध-विच्छेद के लिए आगे बढ़ें क्योंकि ‘तू नहीं और सही’ का आजकल सर्वाधिक प्रचलन है।

प्राचीन काल में विवाह को पति-पत्नी का सात जन्मों तक चलने वाला संबंध स्वीकारा जाता था। परंतु आजकल इसके मायने ही नहीं रहे। वैसे तो आज की युवा-पीढ़ी विवाह रूपी संस्था को नकार कर, ‘लिव-इन’ में रहना अधिक पसंद करती है। जब तक मन चाहे साथ रहो और जब मन भर जाए, अलग हो जाओ। आजकल लोग भरपूर ज़िंदगी जीने में विश्वास रखते हैं। ‘खाओ पीओ, मौज उड़ाओ’ उनके जीवन का लक्ष्य है। चारवॉक दर्शन में उनकी आस्था है। वे प्रतिबंधों में जीना पसंद नहीं करते।

शब्द ब्रह्म है; सृष्टि का सार है। शब्द और अर्थ का शाश्वत व चिरंतन संबंध है, क्योंकि शब्द में ही उसका अर्थ निहित होता है। ‘मैं शब्द, तुम अर्थ/ तुम बिन मैं व्यर्थ’ का जीवन में महत्व है। जिस प्रकार शब्द को अर्थ से अलग नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार  पति-पत्नी को भी एक-दूसरे से अलग करने की कल्पना बेमानी थी, जिसका प्रमाण प्राचीन काल में पत्नी का पति के साथ जौहर के रूप में देखा जाता था। परंतु समय के साथ सती-प्रथा का अंत हुआ, क्योंकि पत्नी को ज़िदा जला देना सामाजिक बुराई थी। परंतु समय ने तेज़ी से करवट ली और संबंधों के रूपाकार में अप्रत्याशित परिवर्तन हुआ। लोग संबंधों को वस्त्रों की भांति बदलने लगे। वे अनचाहे संबंध- निर्वाह को कैंसर के रोग की भांति स्वीकारने लगे। जिस प्रकार एक अंग के कैंसर-पीड़ित होने पर, उसे शरीर से निकाल कर फेंक दिया जाता है, उसी प्रकार यदि जीवन-साथी से विचार-वैषम्य हो, तो उसे जीवन से निकाल बाहर कर देना कारग़र उपाय समझा जाता है। यदि जीवन-साथी से संबंध अच्छे नहीं हैं, तो उन संबंधों को ज़बरदस्ती निभाने की क्या आवश्यकता है? तुरंत संबंध-विच्छेद उसका सर्वश्रेष्ठ व  सर्वोत्तम उपाय है; जिसका प्रमाण है… तलाक़ की संख्या में निरंतर इज़ाफा होना। पहले पति-पत्नी एक-दूसरे के बिना जीवन की कल्पना नहीं कर सकते थे। एक के अभाव में अर्थात् न रहने पर दूसरे को जीवन निष्प्रयोजन अथवा निष्फल लगता था। परंतु आजकल यदि वे एक-दूसरे के साथ रहना पसंद नहीं करते। यदि उनमें विचार-वैषम्य है; वे तुरंत अलग हो जाते हैं।

आधुनिक युग में अहंनिष्ठ मानव आत्मविश्लेषण करना अर्थात् अपने अंतर्मन में झांकना व गुण-दोषों का विश्लेषण करना ही नहीं चाहता; स्वीकारने की उम्मीद रखना तो बहुत दूर की बात है। उसके हृदय में यह बात घर कर जाती है कि वह तो कोई ग़लती कर ही नहीं सकता तथा वह गुणों की खान है। सारे दोष तो दूसरे व्यक्ति अर्थात् सामने वाले में हैं। इसलिए उसे नहीं, प्रतिपक्ष को अपने भीतर सुधार लाने की आवश्यकता है। यदि वह समर्पण कर देता है, तो समस्या स्वतः समाप्त हो जाती है अर्थात् यदि पत्नी-पति के अनुकूल आचरण करने लगती है; कठपुतली की भांति उसके इशारों पर नाचने लगती है, तो दाम्पत्य संबंध सुचारू रूप से कायम रह सकता है, अन्यथा अंजाम आपके समक्ष है।

ज़िंदगी एक फिल्म की तरह है, जिसमें इंटरवल अर्थात् मध्यांतर नहीं होता; पता नहीं कब एंड अर्थात् समाप्त हो जाए। आजकल संबंध भी ऐसे ही हैं… कौन जानता है, कब अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाए। मुझे स्मरण हो रही है ऐसी ही एक घटना, जब विवाहोपरांत चंद घंटों में पति-पत्नी में संबंध- विच्छेद हो गया और पत्नी घर छोड़कर मायके चली गई। यदि आप कारण सुनेंगे, तो हैरान रह जाएंगे। प्रथम रात्रि को बार-बार फोन आने पर, पति का पत्नी से यह कहना कि ‘बहुत फोन आते हैं तुम्हारे’ और पत्नी का इसी बात पर तुनक कर पति से झगड़ा करना; उस पर संकीर्ण मानसिकता का आरोप लगा, सदैव के लिए उसे छोड़कर चले जाना … सोचने पर विवश करता है, ‘क्या वास्तव में संबंध कांच की भांति नाज़ुक नहीं हैं, जो ज़रा-सी ठोकर लगते दरक़ जाते हैं?’ परंतु यहां तो निर्दोष पति को अपना पक्ष रखने का अवसर भी प्रदान नहीं किया गया। बरसों से महिलाएं यह सब सहन कर रही थीं। उन्हें कहां प्राप्त था…अपना पक्ष रखने का अधिकार? पत्नी को तो किसी भी पल जीवन से बे-दखल करने का अधिकार पति को प्राप्त था। महात्मा बुद्ध का यह कथन कि ‘संसार में जैसा व्यवहार आप दूसरों के साथ करते हैं, वही लौट कर आपके पास आता है।’ इसलिए सबसे अच्छा व्यवहार कीजिए।

सो! आधुनिक युग में संविधान द्वारा महिलाओं को समानाधिकार प्राप्त हुए हैं, जो कागज़ की फाइलों में बंद हैं। परंतु कुछ महिलाएं इसका दुरुपयोग कर रही हैं, जिसका प्रमाण आप तलाक़ के बढ़ते  मुकदमों को देखकर लगा सकते हैं। आजकल जीवन लघु फिल्मों की भांति होकर रह गया है, जिसमे मध्यांतर नहीं होता, सीधा अंत हो जाता है अर्थात् समझौते अथवा विकल्प की लेशमात्र भी संभावना नहीं होती।

कुछ लोग किस्मत की तरह होते हैं, जो दुआ से मिलते हैं और कुछ लोग दुआ की तरह होते हैं किस्मत ही बदल देते हैं। इसलिए अच्छे दोस्तों को संभाल कर रखना चाहिए। वे हमारी अनुपस्थिति में भी हमारा पक्षधर होते हैं तथा ढाल बन कर खड़े रहते हैं। वे आप पर विश्वास करते हैं, कभी आपकी निंदा नहीं करते, न ही आपके विरुद्ध आक्षेप सुनते हैं, क्योंकि वे केवल आंखिन देखी पर विश्वास करते हैं।

चाणक्य का यह कथन ‘ रिश्ते तोड़ने नहीं चाहिएं। परंतु जहां खबर न हो, निभाने भी नहीं चाहिए ‘ बहुत सार्थक संदेश देता है। वे संबंध-निर्वहन पर बल देते हुए कहते हैं कि संबंध-विच्छेद कारग़र नहीं है। परंतु जहां संबंधों की अहमियत व स्वीकार्यता ही न हो, उन्हें ढोने का क्या लाभ… उनसे मुक्ति पाना ही हितकर है। जहां ताल्लुक़ बोझ बन जाए, उसे तोड़ना अच्छा, क्योंकि वह आपको आकस्मिक आपदा में डाल सकता है। आजकल सहनशीलता तो मानव जीवन से नदारद है। कोई भी दूसरे की भावनाओं को अहमियत नहीं देना चाहता, केवल स्वयं को सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम समझता है। सो! समन्वय व सामंजस्यता की कल्पना भी कैसे की जा सकती है। जहां समझौता नहीं होगा, वहां साहचर्य व संबंध-निर्वहन कैसे संभव है? आजकल हमारा विश्वास भगवान पर रहा ही नहीं। ‘यदि भरोसा उस भगवान पर है, तो जो तक़दीर में लिखा है, वही पाओगे। यदि भरोसा खुद पर है, तो वही पाओगे, जो चाहोगे।’ आजकल मानव स्वयं को भगवान से भी ऊपर मानता है तथा मनचाहा पाना चाहता है। वह ‘तू नहीं और सही’ में विश्वास कर आगे बढ़ता जाता है और जीवन में एक पल भी सुक़ून से नहीं गुज़ार पाता। सो! उसे सदैव निराशा का सामना करना पड़ता है।

असंतोष अहंनिष्ठ व्यक्ति के जीवन की पूंजी बन जाता है और भौतिक संपदा पाना वह अपने जीवन का लक्ष्य समझता है। धन से वह सुख-सुविधा की वस्तुएं तो खरीद सकता है, परंतु वे क्षणिक सुख प्रदान करती हैं। सब उसकी वाह-वाही करते हैं। परंतु वह आंतरिक सुख-शांति व सुकून से कोसों दूर रहता है। इसलिए मानव को शाश्वत संबंध-निर्वाह करने की शिक्षा दी गई है। अरस्तु के शब्दों में ‘श्रेष्ठ व्यक्ति वही बन सकता है, जो दु:ख और चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा मानकर आगे बढ़ता है।’ सो! जीवन में दु:ख व चुनौतियों को ईश्वर की आज्ञा स्वीकार, निरंतर आगे बढ़िए। जीवन में पराजय को कभी न स्वीकारिए। साहस व धैर्य से उनका सामना कीजिए, क्योंकि समय ठहरता नहीं, निरंतर चलता रहता है। इसलिए आप भी निरंतर आगे बढ़ते रहिए। वैसे आजकल ‘रिश्ते पहाड़ियों की तरह खामोश हैं। जब तक न पुकारें, उधर से आवाज़ ही नहीं आती’ दर्शाता है कि रिश्तों में स्वार्थ के संबंध व्याप रहे हैं और अजनबीपन के अहसास के कारण चहुं ओर मौन व सन्नाटा बढ़ रहा है। इस संवेदनहीन समाज में ‘ मैं शब्द, तुम अर्थ ‘ की कल्पना करना बेमानी है, कल्पनातीत है, हास्यास्पद है।

 

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत।

पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी,  #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com

मो• न•…8588801878

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Sudershan Ratnakar

सार्थक,सटीक आलेख ।