डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तंत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या. )
☆ किसलय की कलम से # 13 ☆
☆ पावस में शिव आराधना तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या ☆
पावस को भारतीय ऋतु-चक्र में महत्त्वपूर्ण माना गया है। पावस में ही श्रावण मास भी आता है, जो व्रत, पर्वों, उपवास तथा स्वास्थ्य के लियेअत्यन्त महत्त्वपूर्ण होता है। श्रवण नक्षत्र के योग के कारण ही ‘श्रावण मास’ कहलाने वाले इस मास और प्रकृति का आपस में अत्यंत मधुर संबंध है। पावस ग्रीष्म की तपन से व्याकुल जीवों को वर्षा और फुहारों से शीतलता प्रदान कर आत्मिक सुख देता है। आँखों के सामने सर्वत्र हरियाली व यत्रतत्र भरा हुआ जल दिखाई देता है। विशेषतः कृषकों के चेहरे हरे-भरे खेतों को देखकर खिल उठते हैं। प्रकृति नवयौवना सी सजने लगती है। पपीहे, मोर, चातक, कोयल व विभिन्न पक्षियों की मधुर आवाजें कानों में रस घोलती हैं। थोड़ा सा मौसम खुलते ही भँवरे व तितलियाँ सबकी आँखों को अनोखा सुख पहुँचाती हैं। हमारे देश में सावन की झड़ी तथा वर्षा की फुहारें जनमानस में विशेष स्थान रखती हैं। जल की उपलब्धता, फसलों की पैदावार व प्राकृतिक हरियाली भी इसी वर्षा पर निर्भर करती है।
पावस व्रत-पर्वों का समय होता है। हरियाली तीज, रक्षाबंधन, नागपंचमी व शिव को समर्पित श्रावण के सभी सोमवार, हसलषष्ठी, संतान सप्तमी आदि अनेक त्यौहार पावस को हर्षोल्लास से युक्त तथा भक्तिमय बना देते हैं। भगवान विष्णु के देवशयनी एकादशी से योगमुद्रा में जाने के पश्चात भगवान शिव ही सृष्टि के पालनकर्ता बन जाते हैं। यही कारण है कि श्रावण में शिव भगवान की सर्वाधिक भक्ति व आराधना की जाती है। इन्हीं दिनों देवी सती ने अपना शरीर त्यागने से पूर्व हर जन्म में शिव जी को ही पति के रूप में पाने का प्रण लिया था। समुद्र-मंथन से निकले विष को भी श्रावण माह में ही शिव जी ग्रहण कर नीलकंठ के नाम से विख्यात हुए। विष की तपन और व्याकुलता कम करने के लिए उस समय सभी ऋषि-मुनियों व देवताओं ने शिवजी को जल अर्पित किया था। तब से आज तक श्रावण में शिव जी को जलाभिषेक से शीतलता प्रदान कर प्रसन्न किया जाता है। कन्यायें योग्य वर के लिए व महिलायें अपने पति की मंगल कामना हेतु व्रत, उपवास व शिव आराधना करती हैं। वैसे भी शिव ध्वनि में ऐसी विराट शक्ति है कि जिसके प्रभाव से प्राणियों के दुख-संकट दूर हो जाते हैं। “शिवमस्तु सर्व जगताम्” अर्थात संपूर्ण विश्व का कल्याण हो। आशय यह है कि जब शिव का मूल ही कल्याण हो तब उनकी भक्ति-आराधना से मनुष्यों का कल्याण तो होना ही है। अतः सनातन धर्मावलंबियों के लिए देवों के देव महादेव अर्थात शिव जी विशेष महत्त्व रखते हैं। ऐसे विशिष्ट देव और भगवान राम के आराध्य शिवजी की पूजा तथा आराधना भी विशिष्ट तरह से ही की जाती है।
मंदिरों व देवस्थानों के अतिरिक्त पार्थिव शिवलिंग का भी विशेष महत्त्व हमारे ग्रंथों में वर्णित है। स्नान करने के उपरांत इष्ट का स्मरण करते हुए गंगाजल अथवा पवित्र जल, भस्म, गाय का गोबर, कोई एक अनाज, उपलब्ध फलों का रस, कनेर के पुष्प, मक्खन, गुड़ एवं स्वच्छ मिट्टी अथवा रेत सहित सभी को किसी बड़े पात्र में लेकर गूँथ लें। तत्पश्चात पवित्र किए गए नियत स्थान पर अक्षत रखकर शिवलिंग का निर्माण करें। अभिषेक हेतु ताम्रपत्र के अतिरिक्त अन्य धातु के पात्रों का उपयोग करें, क्योंकि दुग्ध अथवा पंचामृत ताम्रपात्र में मदिरा तुल्य हो जाते हैं और हम अनजाने में शिव जी को विष का अर्पण कर देते हैं। इसी तरह शिव जी द्वारा श्रापित केतकी के फूल, तुलसी पत्र, हल्दी, सिंदूर आदि शिवलिंग पर न चढ़ायें। दुग्ध, शहद, दही, जल से शिवलिंग का अभिषेक करें। बिल्व पत्रों पर चंदन से ‘ॐ नमः शिवाय’ लिखकर शिवलिंग पर चढ़ायें। शिव जी भोले भंडारी हैं। आप के पास पूजन हेतु जो भी सामग्री उपलब्ध उनका ही उपयोग करें, शेष हेतु अपने भाव निवेदित करने से भी वही फल प्राप्त होता है। अतः जो भी उपलब्ध हो- दूर्वा, हरसिंगार, जुही, कनेर, बेला, चमेली, अलसी के फूल, शमी के पत्ते, बेलपत्र, केसर, चंदन, इत्र, मिश्री, ऋतुफल, चंदन, अबीर, भभूती, गुलाल, ऋतुफल, भाँग, धतूरा, अकौआ, श्वेत मिष्ठान, धूप, दीप, हवन, आरती के साथ पूजन संपन्न करें। पूजन के उपरांत चावल, तिल जौ, गेहूँ, चना आदि गरीबों में बाँटना चाहिए। ऐसा भी कहा गया है कि पारद शिवलिंग की पूजा से समृद्धि व धन-धान्य प्राप्त होता है। काँसे के पात्र में भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिये। शरीर पर तेल न लगायें। दिन में शयन न करें। नंदी (बैल) को हरी घास या कुछ न कुछ अवश्य खिलायें। श्रावण में व्रत न रखने वाले प्राणी स्नानपूर्व कुछ ग्रहण न करें और न ही तामसी भोजन करें। आटे की गोलियाँ मछलियों को खिलाना चाहिए। हरे पेडों को न काटें। हमारे शिव जी इतने भोले हैं कि शिवमूर्ति अथवा शिवलिंग के अभाव में भक्तजन अपने अंगूठे को भी शिवलिंग मानकर उनका स्मरण कर सकते हैं, इसीलिये तो कहा गया है कि ईश्वर भाव के भूखे होते हैं।
भगवान शिव का अभिषेक जल से करने पर ताप-ज्वर, शहद चढ़ाने से क्षय रोग व गौ-दुग्ध से शारीरिक क्षीणता समाप्त होती है। पंचाक्षरी मंत्र ‘ॐ नमः शिवाय’ के जाप से मानसिक शांति प्राप्त होती है।
वैज्ञानिक दृष्टि से श्रावण मास सहित पूरे पावस में उपवास रखने से पाचन संस्थान ठीक से कार्य करता है। स्वच्छता, संतुलित भोजन, सुपाच्य फलाहार, धूप, दीप, हवन, आराधना, ध्यान, जाप आदि निश्चित रूप से शांति व स्वास्थ्यवर्धक होते हैं। व्रत, शिव आराधना, परोपकार व सात्त्विक दिनचर्या जहाँ तनाव एवं रक्तचाप बढ़ने नहीं देती वहीं मानव कठिन परिस्थितियों में विचलित भी नहीं होता। ऐसा करने पर प्राणी स्वयं से मौसमी बीमारियाँ दूर रखते हुए नीरोग रह सकता है, क्योंकि अब यह वैज्ञानिक तौर पर भी सिद्ध हो चुका है कि कुछ मंत्रों के जाप, शंख ध्वनि, तुलसी, पंचामृत, पंचगव्य, हवन, धूप आदि हानिकारक जीवाणुओं और विषाणुओं को नष्टकर हमें अनेक बीमारियों से सुरक्षित रखने में सक्षम हैं।
पावस में प्राकृतिक सौंदर्य बढ़ जाता है। धरा को जलवृष्टि से संतृप्ति मिलती है। पावस प्राणियों में सद्भावना का गुण विकसित करता है। पवित्रता, स्वच्छता तथा संयमित खानपान हमें बीमारियों से बचाते हैं। प्राणियों द्वारा किये जाने वाले व्रत, उपवास और शिव की पूजा-आराधना का विधान संपूर्ण विश्व के कल्याण हेतु ही बना है। यही पावस के श्रावण मास में शिव आराधना का उद्देश्य तथा उत्तम स्वास्थ्य की सहज दिनचर्या भी है।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
दिनांक: 22 जुलाई 2020
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श्री बावनकर जी।