श्री प्रहलाद नारायण माथुर

( श्री प्रह्लाद नारायण माथुर जी अजमेर राजस्थान के निवासी हैं तथा ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी से उप प्रबंधक पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। आपकी दो पुस्तकें  सफर रिश्तों का तथा  मृग तृष्णा  काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी हैं तथा दो पुस्तकें शीघ्र प्रकाश्य । आज से प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा  जिसे आप प्रति बुधवार आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता शब्द की गाथा।) 

 

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☆ साप्ताहिक स्तम्भ – मृग तृष्णा # 12 – मेरे आँसू 

 

मेरे आँसू भी कितने अनमोल थे,

आँखों में आंसुओं के तो जैसे खजाने भरे थे ||

 

हर कहीं हर कभी निकलने को बेताब रहते,

दोनों आँखों से जी भर कर आँसू निकल जाते थे ||

 

खुद के ग़म में तो सभी आँसू बहाते हैं,

हमारे आंसू तो दूसरों के  गम में भी बह निकलते थे ||

 

मौका नहीं छोड़ती आंखे आंसू बहाने के,

आँसू भी दोनों ही आँखों से बेतहाशा निकलते थे  ||

 

लोग जो आज मेरे आस-पास खड़े होकर रो रहे हैं,

उनमें से  कुछ तो जीते जी मेरे मरने  की दुआ करते थे ||

 

कुछ वो लोग भी हैं जो मुझे देख कन्नी काट लेते थे,

रोते  हुए किसी  के भी आज यहां आँसू थम नहीं रहे थे ||

 

एक ही दिन में इतना प्यार लुटा दिया सबने मुझ पर,

जी करता है सबको जी भर के गले लगा लूँ जो मुझ पर रो रहे थे||

 

काश! कल मुझसे लिपट जाते तो आँसुओ से तर कर देते,

गिले शिकवे मिट जाते, मेरे आँसू भी उनके लिए निकलने को तड़प रहे थे ||

 

सबने खूब झझकोरा मेरी खुली आँखे बंद कर दी,

आज आँखों में आंसुओं का अकाल था, आँखों ने आज दगाई कर दी थी ||

 

कमबख्त आँसू भी धड़कन की तरह दगा दे गए,

जिन आँखों में समुन्द्र था वो आज एक बूंद आँसू को तरस रही थी||

 

©  प्रह्लाद नारायण माथुर 

8949706002
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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