डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं। आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा“. )
☆ किसलय की कलम से # 18 ☆
☆ भारतीय राजनीति में अब होगा चुनावी मुद्दों का टोटा☆
मानव जीवन में मुद्दे न हों तो श्रम, बुद्धि और क्रियाशीलता का महत्त्व ही कम हो जाएगा। इंसान इच्छा, उद्देश्य, मतलब या मुद्दे जैसे शब्दों को लेकर जिंदगी भर भागदौड़ करता रहता है, फिर भी उसकी जिजीविषा अधूरी ही रहती है। समाज में मानव अपनी मान-प्रतिष्ठा एवं समृद्धि हेतु अलग-अलग मार्ग चुनता है। नौकरी, उद्योग, धंधे, धर्म, राजनीति, सेवाओं के साथ ही विभिन्न नैतिक अथवा अनैतिक कारोबारों के माध्यम से भी अपनी उद्देश्यों की पूर्ति करता है। वैसे तो मुद्दों का सभी क्षेत्रों में महत्त्व है, लेकिन राजनीति के क्षेत्र में कहा जाता है कि मुद्दों की नींव पर ही राजनीति का अस्तित्व निर्भर करता है। मुद्दों पर ही अक्सर सियासत गर्माती है। मुद्दतों से मुद्दों को लेकर बड़े-बड़े उथल-पुथल होते रहे हैं। धर्म स्थापना के मुद्दे पर ही ऐतिहासिक महाभारत युद्ध हुआ था। बदलते समय व परिवेश में ये मुद्दे भी लगातार बदलते गए। हमारे देखते ही देखते भारतीय राजनीति में अनेकानेक मुद्दे छाए और विलुप्त हुए हैं।
आजादी के पश्चात एक लंबे समय तक आजादी का श्रेय लेने वाली कांग्रेस पार्टी को आजादी के श्रेय का लाभ मिलता रहा। देश के दक्षिण में कुछ समय तक हिंदी थोपने का मुद्दा छाया रहा। नसबंदी, आपातकाल, गरीबी हटाओ, महँगाई जैसे सैकड़ों मुद्दे गिनाए जा सकते हैं, जिनकी आग में राष्ट्रीय, प्रादेशिक अथवा क्षेत्रीय राजनीतिक दल अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। बेचारी जनता है कि इनके छलावे, बहकावे और झूठे आश्वासनों के जाल में बार-बार फँसती चली आ रही है। जिस दल पर विश्वास किया जाता है, वही दल सत्ता प्राप्त कर अधिकांशतः अपने वायदे पूर्ण नहीं करता। जनहित के अनेकों कार्य पूरे ही नहीं होते। हाँ, अब तक इतना जरूर हुआ है कि राजनीति करने वालों की अधिकांश जिजीविषाएँ जरूर पूर्ण होती रही हैं। इसका साक्ष्य यही है कि आज भी देश में अगर सबसे समृद्ध और मान-सम्मान वाला वर्ग बढ़ा है तो वह राजनेताओं का वर्ग है। आजकल तो बाकायदा शिक्षा और व्यावहारिक प्रशिक्षण के उपरांत राजनेता अपनी संतानों को अपने इसी पारंपरिक धंधे अर्थात राजनीति में उतारने लगे हैं। पिछले दो-तीन दशक से विभिन्न राजनीतिक मुद्दे हमारे सामने आए हैं। बेरोजगारी, राष्ट्र विकास, स्वच्छता, कालाबाजारी या नोटबंदी के नाम पर पार्टियाँ हारती और जीतती आ रही हैं, और यह सब इसलिए भी होता आया है कि पार्टियाँ जनता के दिलोदिमाग में स्वयं को सबसे बड़ा जनहितैषी सिद्ध करने में कामयाब हो जाती हैं। नेताओं की लच्छेदार बातों एवं वायदों में यदि 50% भी सत्यता होती तो आज हमारा देश जापान, अमेरिका और चीन के समकक्ष खड़ा होता।
तीन दशक से तो हर चुनावों में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से श्रीराम मंदिर निर्माण का मुद्दा उठते दिखा है। इस मुद्दे के विरोध को भी बहुत हवा दी गई। हर पार्टी के प्रत्याशियों को इसका लाभ भी मिला। मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता की आड़ में देश तक को दाव पर लगाने से कई नेता बाज नहीं आते। आज धारा 370, धारा 35ए, तीन तलाक आदि मुद्दों के चलते भारत कहीं एकजुट तो कहीं बँटा हुआ नजर आया। संसद में स्वीकृति के बाद भले ही कुछ लोगों अथवा कुछ पार्टियों को तिलमिलाहट हुई हो, लेकिन समय की नजाकत को देखते हुए अनेक विरोधी दल अथवा पार्टियाँ इन मुद्दों को फिर से उठाने से बच रही हैं। शायद यही सोच है जो इनको चुनावी अखाड़े में इन मुद्दों को आजमाने की इजाजत नहीं देती। स्वतंत्र भारत का सबसे बड़ा और लंबा चलने वाला मुद्दा अयोध्या में श्रीराम मंदिर के निर्माण का रहा है। यह मुद्दा न ही केवल भारत बल्कि संपूर्ण विश्व में चर्चित हुआ। 6 दिसंबर 1992 से 5 अगस्त 2020 अर्थात श्रीराम मंदिर शिलान्यास तक लगभग 29 वर्ष चले इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मचा दी। कई सरकारें गिरीं या बर्खास्त कर दी गईं। संसद की सत्ता परिवर्तन तक इस मुद्दे का कारण बना। श्रीराम मंदिर मुद्दा से कई लोग शून्य से शिखर पर पहुँच गए, कई सेलिब्रिटी बन गए तो कई खलनायक भी बने। अब जब हिंदुओं के आराध्य श्रीराम मंदिर का निर्माण प्रारंभ हो ही गया है, तब हिंदुओं पर पुनः इस मुद्दे को आजमाने का कोई औचित्य ही नहीं बचा। यदि कृतज्ञता-वोट की भी बात की जाए तो भारतीय जनता पिछले 30 वर्ष से अपने मताधिकार द्वारा कृतज्ञता ज्ञापित कर चुकी है। इसलिए अब इन पार्टियों को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जनता उन्हें पुनः कृतज्ञता के नाम पर वोट देगी। वैसे भी नोटबंदी के बाद महँगाई व कोविड-19 के चलते जनता पहले से ही परेशान है और सच कहा जाए तो जनता अब प्रायोगिक होती जा रही है। राम मंदिर का चुनावी हिसाब-किताब चुकता होने के बाद अब जनता देश में उद्योग, नौकरियाँ और राष्ट्रीय विकास होते देखना चाहती है, जिन पर स्पष्ट, सुदृढ़ और सकारात्मक क्रियान्वयन की भी आवश्यकता है।
इसीलिए अब इतना तो तय है कि भारतीय राजनीति के लिए आने वाले समय में चुनावी मुद्दों का टोटा होगा। हिन्दु विरोधी दलों की बातें उनके ही मतदाता अब सुनने वाले नहीं हैं और न ही अब कृतज्ञता के नाम पर हिन्दु मतदाता वोट देने वाले हैं। कृतज्ञता या विरोध से क्या भला आम जनता का पेट भरेगा? वर्तमान में अब देश के प्रमुख, छोटे या क्षेत्रीय दल सबको एक पारदर्शी सोच, सद्भावना, जनहित और राष्ट्रीय विकास जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों के साथ ईमानदार, कर्मठ और सक्रिय प्रत्याशियों को लेकर चुनावी अखाड़े में उतरना होगा। पुराने अथवा बूढ़े पहलवानों को जिताने के बजाय ऊर्जावान एवं ईमानदार नव युवकों को अवसर दिया जाना चाहिए।
हमारा देश अब अविकसित अवस्था में नहीं है। शिक्षा, जागरूकता, उद्योग, तकनीकि, सैन्य, अंतरिक्ष जैसे विभिन्न क्षेत्रों में बहुत आगे निकल चुका है। लोगों की सोच भी बदली है। अब लोग चार-पाँच दशक पुरानी मानसिकता वाले नहीं 21वीं सदी के प्रायोगिक बन गए हैं। निश्चित रूप से अब आम मतदाताओं को भी अगले चुनाव में बरगलाना टेढ़ी खीर होगा। आज राष्ट्र की स्थिति और राष्ट्र का माहौल बदलता प्रतीत होने लगा है। इसलिए राजनेताओं की कार्यशैली तथा समर्पण भाव में और सुधार की अपेक्षा जनता कर रही है।
आज की परिस्थितियों और जनता की रुचि का बारीकी से अध्ययन किया जाए तो विश्लेषक भी पाएँगे कि राजनीतिक दलों हेतु निश्चित रूप से अब चुनावी मुद्दों का टोटा पड़ने वाला है। इन परिस्थितियों में सत्ता की उम्मीद अथवा विश्वास रखने वाले दलों को चाहिए कि वे अब अत्यन्त सावधानी और दूरदर्शिता के साथ ऐसे चुनावी मुद्दों का चयन करें, जो उनकी मान-प्रतिष्ठा तो बढ़ाएँ ही, राष्ट्र तथा जनमानस को भी समृद्धि व विकास के मार्ग पर आगे ले जा सकें।
© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’
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