☆ तलवार की धार: सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान – श्री सुरेश पटवा ☆

Talwar Ki Dhar (तलवार की धार): सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान (Hindi Edition) by [Suresh Patwa]

अमेज़न लिंक >>>> तलवार की धार: सैद्धान्तिक नेतृत्व की साहसिक दास्तान

संविधान सभा में विचार किया गया था कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यापक लोकहित सुनिश्चित करने हेतु संस्थाओं की स्वायत्तता सबसे महत्वपूर्ण कारक होगी ताकि संस्थाएँ सम्भावित तानाशाही पूर्ण राजनीतिक दबाव और मनमानेपन से बचकर जनहित कारी नीतियाँ बनाकर पेशेवराना तरीक़ों से लागू कर सकें। इसीलिए भारतीय स्टेट बैंक का निर्माण करते समय सम्बंधित अधिनियम में संस्था को स्वायत्त बनाए रखने की व्यवस्था की गई थी।

तलवार साहब की अध्यक्षता में स्टेट बैंक ने स्वायत्तता पूर्वक संचालन से लाभ में दस से बीस प्रतिशत प्रतिवर्ष की वृद्धि दर्ज की थी। उनके कार्यकाल के दौरान शाखाओं की संख्या जो 1921 में इंपीरियल बैंक बनाते समय से 1969 तक 48 वर्षों में मात्र 1800 थी, जो सिर्फ़ 07 सालों (1969-1976) में बढ़कर 4000 हो गई। यह उपलब्धि किसी एक भौगोलिक क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरे देश में हासिल की गई थी। उन्होंने 21 अगस्त 1976 को नागालैंड के मोन में स्टेट बैंक की 4000 वीं शाखा का उद्घाटन किया था। 13 फ़रवरी 1979 को बिहार के सतबारा में 5000 वीं शाखा खुलने के साथ ही स्टेट बैंक शाखाओं के साथ-साथ कार्मिकों की संख्या के मामले में भी दुनिया का सबसे बड़ा बैंकिंग नेटवर्क बन चुका था।

तलवार साहब ने भारतीय दर्शन के रहस्यवादी आध्यात्म की परम्परा को अपने जीवन में उतारकर सिद्धांत आधारित प्रबन्धन तरीक़ों से प्रशासकों की एक ऐसी समर्पित टीम बनाई जिसने स्टेट बैंक को कई मानकों पर विश्व स्तरीय संस्था बनाने में सबसे उत्तम योगदान दिया।

नेतृत्व के सैद्धांतिक तरीक़ों पर अमल करते हुए तलवार साहब का राजनीतिक नेतृत्व से टकराव हुआ। आपातकाल के दौरान उन्होंने ग़ैर-संवैधानिक शक्ति के प्रतीक बने सर्व शक्तिशाली संजय गांधी से मिलने तक से मना करके स्टेट बैंक के स्वायत्त स्वरुप की रक्षा करने में अध्यक्ष पद दाँव पर लगा दिया था।

आज भारत को हरमधारी साधु-संतो की ज़रूरत नहीं है अपितु आध्यात्मिक चेतना से आप्लावित तलवार साहब जैसे निष्काम कर्मयोगी नेतृत्व की आवश्यकता है जो भारतीय संस्थाओं को विश्व स्तरीय प्रतिस्पर्धा में खरी उतरने योग्य बनाने में सक्षम हों।

ऐसे निष्काम कर्मयोगी के कार्य जीवन की कहानी आपके हाथों में है। जो आपको यह बताएगी कि मूल्यों से समझौता किए बग़ैर सफल, सुखद और शांत जीवन यात्रा कैसे तय की जा सकती है।   – श्री सुरेश पटवा 

श्री सुरेश पटवा 

(मनुष्य के जीवन में कभी कुछ ऐसा घटित होता है जो भविष्य की नींव रखता है। संभवतः जब अदरणीय श्री सुरेश पटवा जी वर्षों पूर्व अद्भुत व्यक्तित्व के धनी स्व राज कुमार तलवार जी से पॉण्डिचेरी स्थित स्वामी अरविंद आश्रम में अनायास ही मिले तब उन्होने यह नहीं सोचा होगा कि भविष्य में वे स्व तलवार जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर आधारित पुस्तक “तलवार की धार” की रचना करेंगे।

वे नहीं जानते थे कि वे इस श्रेणी की पुस्तकों में एक इतिहास रच रहे हैं। वे एक ऐसी पुस्तक की रचना कर रहे हैं जो न सिर्फ स्टेट बैंक के वर्तमान और सेवानिवृत्त बैंक कर्मी अपितु, समस्त बैंकिंग समुदाय, राजनीति, अर्थशास्त्र, इतिहास के छात्र एवं प्रबुद्ध पाठक पढ़ना चाहेंगे।

इस अद्वितीय पुस्तक के आगमन पर मुझे श्री सुरेश पटवा जी द्वारा लिखित एक संस्मरण याद आ रहा है जो संभवतः इस पुस्तक की नींव रही होगी। इस अवसर पर आप सबसे साझा करना चाहूँगा।)

ई-अभिव्यक्ति परिवार की ओर से श्री सुरेश पटवा जी को उनकी पुस्तक की अद्वितीय सफलता के लिए अशेष हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं      

गुरु चरण समर्पण

सुरेश को नौकरी लगते समय पता चला कि स्टेट बैंक की नौकरी में हर दो या चार साल में एक बार भारत में तय दूरी तक कहीं भी घोषित स्थान पर घूमने के लिए जाने-आने का रेल किराया मिलता है। सुरेश को किताब पढ़ने और पर्यटन का शौक़ बचपन से था। उसने जब होश सम्भाला तो बुजुर्गों को रामायण, गीता, महाभारत पढ़ते देखकर सोचता था कि यदि इन्होंने बचपन या जवानी में इन शास्त्रों को पढ़ा होता तो सीख जीवन में काम आती। उसने राममंदिर के पंडित जी से रामायण, गीता, महाभारत लेकर पढ़ी तो उसे हिंदू धर्म की आस्तिक अवधारणा और भक्ति साधना के ज्ञान से अधिक उनकी कहानियों की रोचकता और दार्शनिकता से पैदा होती आध्यात्मिकता पसंद आई।

उसने तय किया कि यात्रा अवकाश सुविधा का उपयोग भक्ति-ज्ञान, योग-साधना और ध्यान की जानकारी वर्तमान सिद्ध संस्थाओं से सीधे प्राप्त करने में करेगा। उसने पहले योग विद्यालय मुंगेर जाकर पंद्रह द्विवसीय पतंजलि योग शिविर में योग सीखा उसके बाद सात दिवसीय शिविर हेतु पांडीचेरी स्थित स्वामी अरविंद के दार्शनिक आश्रम गया।  अंत में ध्यान के दस दिवसीय शिविर हेतु विश्व विपाशयना केंद्र इगतपुरी गया।

अरविंद आश्रम पांडीचेरी में उसे एक विलक्षण व्यक्ति के दर्शन हुए। वे सुबह पाँच बजे उठकर दो कमरों की सफ़ाई करते, व्यायाम करते, ध्यान करते और किताबों का अध्ययन करके छः बजे समुन्दर किनारे घूमने निकल जाते। उनके चेहरे की चमक और विद्वता से प्रभावित होकर सुरेश उनके पीछे हो लिया। उन्होंने एक बार मुड़कर देखा कि कोई पीछा कर रहा है। वे थोड़े आगे चलकर रुक गए। सुरेश से पूछा क्या चाहते हो। सुरेश उस समय आश्रम द्वारा अहंकार विषय पर एक छोटी पुस्तक पढ़ रहा था।

उसने कहा “अहंकार के विषय में जानना चाहता हूँ।”

उन्होंने पूछा “तुम अहंकार के बारे में क्या जानते हो।”

सुरेश ने कहा “अहंकार दूसरों से श्रेष्ठ होने का दृढ़ भाव है।”

उन्होंने कहा “स्थूल उत्तर है, परन्तु ठीक है, यहीं से आगे बढ़ते हैं। जब बच्चे को बताया जाता है कि वह दूसरों से अधिक ज्ञानी है, सुंदर है, बलवान है, गोरा है, ऊँचा है, ताकतवर है, धनी है, विद्वान है, इसलिए दूसरों से श्रेष्ठ है। यहीं अहंकार का बीज व्यक्तित्व के धरातल पर अंकुरित होता है। आदमी के मस्तिष्क में रोपित श्रेष्ठताओं का अहम प्रत्येक सफलता से पुष्ट होता जाता है। अहंकार श्रेष्ठता के ऐसे कई अहमों का समुच्चय है। अहंकार स्थायी भाव एवं अकड़ संचारी भाव है। जब अकारण श्रेष्ठता के कीड़े दिमाग़ में घनघनाते हैं तब जो बाहर प्रकट होता है, वह घमंड होता है, क्रोध उसका प्रकटीकरण है।”

उन्होंने कहा “अहंकार व्यक्ति के निर्माण के लिए आवश्यक होता है। अहंकार को शासक का आभूषण कहा गया है। उम्र के चौथे दौर में निर्माण से निर्वाण की यात्रा में अहंकार भाव का तिरोहित होना अनिवार्य है।”

तब तक आसमान का सूर्य दमक कर सर पर चढ़ने लगा था। वे आश्रम लौट आए।

सुरेश उस दिन शाम को भी समुंदर किनारे पहुँचा कि शायद वे सज्जन मिल जाएँ तो कुछ और ज्ञान मिले, लेकिन वे नहीं दिखे। वह पश्चिम में डूबते सूर्य के मंद पड़ते प्रतिबिम्ब को सागर की लहरों पर झिलमिलाता देखता हुआ सोच रहा था।

अहंकार आभूषण कब है? राम का विवेक सम्मत परिमित अहंकार जब वे इसी समुंदर को सुखा डालने की चेतावनी देते हैं:-

“विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीत,

बोले राम सकोप तब, भय बिनु होय न प्रीत।”

दूसरी तरफ़ रावण का अविवेकी अपरिमित अहंकार है, जो दूसरे की पत्नी को बलात उठा लाकर भोग हेतु प्रपंच रचता है। वहाँ अहंकार और वासना मिल गए हैं, जो मनुष्य को अविवेकी क्रोधाग्नि में बदलकर मूढ़ता की स्थिति में पहुँचा उसका यश, धन, यौवन, जीवन सबकुछ हर लेता हैं।

सोचते-सोचते सुरेश को पता ही न चला, तब तक समुंदर की लहरों पर साँझ अपना साया फैला चुकी थी। साँझ की लहरों का मधुर स्वर रात के डरावने कोलाहल में बदलने लगा था। वह आश्रम लौट आया।

अगले दिन सुरेश फिर उनके पीछे हो लिया। उन्होंने सुरेश से परिचय पूछा। सुरेश ने गर्व से कहा की वह स्टेट बैंक में क्लर्क है। उन्होंने उसे ध्यान से देखा। सुरेश ने उनसे उनका नाम पूछा तो वे ख़ामोश रहे। फिर अहंकार के तिरोहित करने पर उन्होंने कहा:- “आपका व्यक्तित्व मकान की तरह सफलता की एक-एक ईंट से खड़ा होता है। एक बार मकान बन गया फिर ईंटों की ज़रूरत नहीं रहती। क्या बने हुए भव्य भवन पर ईंटों का ढ़ेर लगाना विवेक़सम्मत है। यदि आपको अहंकार भाव से मुक्त होना है तो विद्वता, अमीरी, जाति, धर्म, रंग, पद, प्रतिष्ठा की ईंटों को सजगता पूर्वक ध्यान क्रिया से निकालना होगा। यही निर्माण से निर्वाण की यात्रा है।” सुरेश ने उनसे परिचय जानना चाहा, परंतु वे फिर मौन रहे।

शिविर के दौरान जब भी वे दिखते सुरेश को लगता कोई चुम्बकीय शक्ति उसे उनकी तरफ़ खींच रही है। वह उन्हें दूर से निहारते रहता। सात दिन का शिविर पूरा होने पर आठवें दिन सुरेश को ग्रांड ट्रंक एक्सप्रेस पकड़ने हेतु पांडीचेरी से बस द्वारा चेन्नई पहुँचना था।

वह आश्रम के गेट पर बैग लेकर खड़ा था तभी वे सज्जन वहाँ आए, सुरेश से कहा “मैं आर.के.तलवार हूँ।”

सुरेश भौंचक होकर उन्हें नम आँखों से अवाक देखता रहा। काँपते हाथों से उनके चरण छूकर प्रणाम किया, तब तक आटो आ गया, सुरेश उस चेहरे को जहाँ तक दिखा, देखता रहा। अंत में वह चेहरा धुंधला होकर क्षितिज में विलीन हो गया।

उसे पता चला था कि तलवार साहब संजय गांधी की नाराज़गी के चलते स्टेट बैंक से ज़बरिया अवकाश पर भेज दिए गए थे। वे दो कमरों का फ़्लेट किराए पर लेकर पत्नी शक्ति तलवार सहित पांडीचेरी में बस गए थे। उसे क्या पता था कि उस महामानव से ऐसी मुलाक़ात होगी। वह लम्बी रेलयात्रा में समय काटने के लिहाज़ से “कबीर-समग्र” किताब साथ रखे था। कबीर की साखियाँ पढ़ते-पढ़ते एक साखी से आगे नहीं बढ़ सका:-

कबीरा जब पैदा हुए,जग हँसा तुम रोए,

ऐसी करनी करा चल, तू हँसे जग रोए।

पढ़ते-पढ़ते उसकी नींद लग गई, उठकर बाहर देखा एक पट्टी पर पीले रंग से लिखा था “वर्धा” गांधी आश्रम के लिए यहाँ उतरिए। गाँधी-तलवार-गांधी-तलवार, उसके दिमाग़ में गड्डमड्ड हो गए। दोनों सच्चाई, ईमानदारी और सादगी के मूल्यों को संजोए भारतीय आध्यात्मिक जीवन दर्शन के सजग प्रहरी थे।

कहा जाता है कि आदमी के सज्जन से दिखते चेहरे के पीछे सात चेहरे छिपे होते हैं, सबसे ऊपर ईमानदार चेहरा बाक़ी अन्य चेहरों को छिपाए रखता है, बाक़ी चेहरे आजुबाजु से झांकते रहते हैं। बेइमानी, कुटिलता, निर्दयता, धोखेबाज़ी, लालच, खुशामदी और कामुकता के चेहरे पर ईमानदारी का मुखौटा वर्तमान जीवन जीने का तरीक़ा सा बन गया है क्योंकि सिर्फ़ ईमानदारी का चेहरा लेकर आज की दुनिया में जीना न सिर्फ़ दूभर हो चला है बल्कि तलवार की धार पर चलने जैसा है। यदि व्यक्ति का पद स्टेट बैंक के चेयरमेन जैसा बड़ा हो तो ईमानदार आदमी का तलवार की पैनी धार पर नंगे पैर चलने जैसा है। आधुनिक समय में ऐसे एक व्यक्ति हुए हैं, जिनका नाम राज कुमार तलवार था, वे जीवन को दिव्य-सत्ता से संचालित मानकर बाहर और भीतर ईमानदारी, सच्चाई और कर्तव्य परायणता के दिव्य-सत्य के साथ तलवार की धार पर नंगे पाँव चलते रहे, न झुके न टूटे, अपना जीवन जीकर दिव्य-चेतना में विलीन हो गए।

सामान्य आदमी का चेहरा भावों के अनुसार सात रंग बदलता है, ख़ुशी, उदासी, डर, क्रोध, घृणा, आश्चर्य और निन्दा की स्थिति में आँख, मुँह, नाक, कान, माँसपेशियाँ मिलकर अलग-अलग आकृतियाँ बनाते हैं। जो आदमी प्रत्येक घटना को दिव्य-सत्ता का प्रसाद मानकर प्रभाव ग्रहण करता है वह इन भावों से परे हो जाता है उसका चेहरा स्निग्ध होता है, रंग नहीं बदलाता। राज कुमार नाम का वह चेहरा ऐसा ही सौम्य चेहरा था। निर्दयी राजनीतिक सत्ता की प्रताड़नाओं से भी कुरूप नहीं हुआ।

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

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subedar pandey kavi atmanand

अतिसुंदर, शाब्दिक धाराप्रवाह,उत्तम रचना धर्मिता। बधाई अभिनंदन अभिवादन मंगलसुप्रभात आदरणीय श्री।