डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

( डॉ विजय तिवारी ‘ किसलय’ जी संस्कारधानी जबलपुर में साहित्य की बहुआयामी विधाओं में सृजनरत हैं । आपकी छंदबद्ध कवितायें, गजलें, नवगीत, छंदमुक्त कवितायें, क्षणिकाएँ, दोहे, कहानियाँ, लघुकथाएँ, समीक्षायें, आलेख, संस्कृति, कला, पर्यटन, इतिहास विषयक सृजन सामग्री यत्र-तत्र प्रकाशित/प्रसारित होती रहती है। आप साहित्य की लगभग सभी विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी सर्वप्रिय विधा काव्य लेखन है। आप कई विशिष्ट पुरस्कारों /अलंकरणों से पुरस्कृत /अलंकृत हैं।  आप सर्वोत्कृट साहित्यकार ही नहीं अपितु निःस्वार्थ समाजसेवी भी हैं। अब आप प्रति शुक्रवार साहित्यिक स्तम्भ – किसलय की कलम से आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित एक सार्थक एवं विचारणीय आलेख “आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार)

☆ किसलय की कलम से # 21 ☆

☆ आम हिन्दी पाठकों को हिंग्लिश परोसते कुछ अखबार ☆

भूमंडलीकरण या सार्वभौमिकता की बात कोई नई नहीं है। हमारे प्राचीन ग्रंथ ‘वसुधैव कुटुंबकम्” की बात लिख कर इसकी आवश्यकता पहले ही प्रतिपादित कर चुके हैं, लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं है कि आवश्यकता न होते हुए भी हम अपनी संस्कृति ,रीति-रिवाज, परंपराओं, धर्म एवं भाषा तक को दरकिनार कर दूसरों की गोद में बैठ जाएँ। बेहतर तो यह है कि हम स्वयं को ही इतना सक्षम बनाने का प्रयास करें कि हमें छोटी-छोटी बातों के लिए दूसरों का मुँह न ताकना पड़े। इसका दूसरा पहलू यह भी है कि हम केवल और केवल नकलची बनकर नकल न उतारते फिरें।  परिस्थितियों एवं परिवेश की आवश्यकतानुरूप स्वयं को ढालना अच्छी बात है, परंतु बिना सोचे-समझे अंधानुकरण को बेवकूफी भी कहा जाता है। एक छोटा सा उदाहरण है ‘नेक टाई’ का। इसे गले में बाँधने का सिर्फ और सिर्फ यही उद्देश्य है कि ठंडे देशों में गले और गले के आसपास ठंड से बचा जा सके परंतु हमारे यहाँ मई-जून की गर्मी में भी मोटे कोट-पेंट के साथ नेक टाई पहन कर लोग अपनी तथाकथित प्रतिष्ठा बताने से नहीं चूकते। आंग्ल भाषा की उपयोगिता अथवा आवश्यकता हो या न हो कुछ पढ़ेलिखे नासमझ अंग्रेजी झाड़े बिना नहीं रह पाते। हम केवल परस्पर वार्तालाप की बात करें तब क्या दो विभिन्न भाषी एक दूसरे की बात समझ पाएँगे? कदापि नहीं। बस, मैं यही कहना चाहता हूँ कि आजकल हमारे कुछ हिंदी अखबार वालों का मानना है कि वे देवनागरी में इंग्लिश लिखकर अपनी ज्यादा लोकप्रियता अथवा पहुँच बना लेंगे। ऐसा करना क्या, सोचना भी गलत होगा। एक हिंदी के आम पाठक को उसकी अपनी भाषा के अतिरिक्त चीनी, रूसी, जापानी या अंग्रेजी के शब्दों को देवनागरी में लिखकर पढ़ाओगे तो क्या वह आपके द्वारा लिखी बात पूर्णरूपेण समझ सकेगा? नहीं समझेगा न। आप सोचते हैं जो लोग अंग्रेजी समझते हैं उनके लिए आसानी है, तो जिसे अंग्रेजी आती है फिर आपके हिन्दी अखबार क्यों पढ़ेगा। दूसरी बात जिसे हिंदी कम आती है अथवा अहिंदी भाषी है, तब तो ऐसे लोग हिंदी के बजाय अपनी भाषा को ज्यादा पसंद करेंगे, अथवा अंग्रेजी को रोमन में न पढ़कर पूरा अंग्रेजी अखबार ही न खरीदेंगे।

मेरे मत से इन तथाकथित अखबार वालों की भाषा से यदि हिंग्लिश तबका जुड़ता है, जिसे ये हिंग्लिश पाठकों की अतिरिक्त वृद्धि मानते हैं तो उन्हें स्वीकारना पड़ेगा कि उससे कहीं ज्यादा इनके हिन्दी पाठकों में कमी हो रही है। उनके पास अन्य पसंदीदा  अखबारों के विकल्प भी होते हैं। आज के अंतरजालीय युग में जब हर सूचना हमारे पास आप से पहले पहुँच रही है, तब इन तथाकथित अखबारों की प्राथमिकताएँ बची कहाँ हैं। आज के तकनीकी युग एवं खोजी पत्रकारिता के चलते छोटे से छोटा अखबार भी पिछड़ा नहीं है। अब तो ग्रामीण अंचल तक अद्यतन रहते हैं। राष्ट्रभाषा हिन्दी की मर्यादा, सम्मान एवं संवर्धन हमारा कर्तव्य है। हिन्दी के पावन आँचल में किसी गैर भाषा के इस तरह थिगड़े लगाने का प्रयास राष्ट्रभाषा का अपमान और मेरे अनुसार राष्ट्रद्रोह जैसा है। विश्व की किसी भी भाषा, संस्कृति अथवा परंपराओं से घृणा अथवा अनादर हमारी संस्कृति में नहीं है। हमारे नीति शास्त्रों में ‘अति सर्वत्र वर्जयेत्’ भी लिखा है। आज हिन्दी की विकृति पर तुले हुए लोग हठधर्मिता की पराकाष्ठा पार करते नजर आ रहे हैं। इनकी अपने देश, अपनी संस्कृति एवं अपनी राष्ट्रभाषा संबंधी प्रतिबद्धता भी संशय के कटघरे में खड़ी प्रतीत होने लगी है। आज आप किसी भी पाठक से पूछ लीजिए, वह आज लिखी जा रही विकृत भाषा एवं अव्यवहारिक संस्कृति से स्वयं को क्षुब्ध बतलायेगा। अब तो सुबह-सुबह अखबार पढ़ कर मन में कड़वाहट सी भर जाती है। अप्रिय भाषा एवं अवांछित समाचारों की बाढ़ सी दिखाई देती है, वहीं अखबारों की यह भी मनमानी चलती है कि हम अपने घर, अपने समूह या विज्ञापन का चाहे जितना बड़ा भाग प्रकाशित करें, मेरी मर्जी। पाठक के दर्द की किसी को चिंता नहीं रहती। सरकार भी इनकी नकेल नहीं कस पाती। सरकारी, बड़े व्यवसायियों एवं नेताओं के विज्ञापनों की बड़ी कमाई से अखबार बड़े उद्योगों में तब्दील हो गए हैं। हम चाहे जब अखबार के मुख्य अथवा नगर पृष्ठ तक में एक अदद पूरी खबर के लिए तरस जाते हैं, फिर नगर, देश-प्रदेश एवं समाज की बात तो बहुत दूर है। समाचार पत्रों से स्थानीय साहित्य भी जैसे लुप्त होता जा रहा है। आज दरकार है आदर्श भाषा की, आदर्श सोच की और आदर्श अखबारों की। साथ ही देश तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व की। मैं मानता हूँ कि समाज सुधार का ठेका अखबारों ने नहीं ले रखा है,  किंतु यह भी सत्य है कि, ये तथाकथित अखबार क्या मानक गरिमा का ध्यान रख पाते हैं।

अंत में पुनः मेरा मानना है कि आज जब हर छोटे-बड़े शहरों में पहले जैसे एक-दो नहीं पचासों अखबार निकलते हैं, तब ऐसे में अपनी व्यावसायिक तथा निजी सोच पर नियंत्रण कर ये विशिष्ट अखबार हम असंगठित पाठकों को मनमाना परोसने से परहेज करें। राष्ट्रभाषा हिंदी को हिंग्लिश बनने से बचाने के प्रयास करना हम सभी का नैतिक कर्त्तव्य है, इसे अमल में लाने का विनम्र अनुरोध है।

© डॉ विजय तिवारी ‘किसलय’

पता : ‘विसुलोक‘ 2429, मधुवन कालोनी, उखरी रोड, विवेकानंद वार्ड, जबलपुर – 482002 मध्यप्रदेश, भारत
संपर्क : 9425325353
ईमेल : [email protected]

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

image_print
5 1 vote
Article Rating

Please share your Post !

Shares
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Hemant Bawankar

सार्थक एवं विचारणीय रचना