श्री अजीत सिंह
( हमारे आग्रह पर श्री अजीत सिंह जी ने अपने जीवन का एक संस्मरण हमारे पाठकों के लिए साझा किया है। यह संस्मरण ही नहीं अपितु हमारी विरासत है। उनके ही शब्दों में – “इन मौखिक कहानियों को रिकॉर्ड करने और अगली पीढ़ियों तक पहुंचाने की ज़रूरत है। वर्ना ये खूबसूरत कहानियां यूं ही खो जाएंगी। ये हमारी जड़ों की कहानियां हैं। ये जुड़ाव और संघर्ष की कहानियां हैं जो हमें और हमारी संतानों को सम्बल देती रहेंगी। इन कहानियों में गुज़रे वक़्त का समाज शास्त्र है। यह हमारा विरसा है, लोक इतिहास है। कहानियां आपस में उलझी सी हैं पर एक दूसरे को तार्किक बल देती हैं। इन में कुछ आंखों देखी हैं और कुछ सुनी सुनाई पर आपस में जुड़ी हुई। लोक इतिहास ऐसा ही होता है।” – श्री अजीत सिंह जी, पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन
ई -अभिव्यक्ति के पाठकों के साथ इस अविस्मरणीय संस्मरण को साझा करने के लिए हम आदरणीय श्री अजीत सिंह जी के हृदय से आभारी हैं। )
श्री अजीत सिंह जी को ई- अभिव्यक्ति परिवार की ओर से उनके 75 वें जन्मदिवस पर अशेष हार्दिक शुभकामनाएं
☆ संस्मरण ☆ जन्मदिवस विशेष – मेरे गांव की कहानी, एक नई सी, एक पुरानी ☆ श्री अजीत सिंह ☆
उसका नाम शेरा था। वह पाकिस्तान से आया था अपने, और मेरे, पैतृक गांव हरसिंहपुरा में जो हरियाणा के करनाल ज़िले में स्थित है। वह करीबन 20 साल की उम्र में पाकिस्तान चला गया था सन् 1947 में मारकाट के दौरान। जी हां, जिसे किताबों में स्वतंत्रता काल कहा जाता है, हरसिंहपुरा के लोग उसे आज भी मारकाट के नाम से पुकारते हैं।
वह अनपढ़ आदमी था पर उसे वीज़ा देवबंद में हो रही किसी इस्लामिक कॉन्फ्रेंस के डेलीगेट के तौर पर मिला था। वह वहां के थाने में हाज़री देकर पैतृक गांव में अपने बचपन के संगी साथियों से मिलने पहुंचा था कोई तीस साल बाद। सिर के बाल भी सफेद होने लगे थे उसके और चेहरा मोहरा भी बदल गया था। गांव पहुंचा तो सबसे पहले उसे बारू नाई ने बातचीत के बाद पहचाना। आखिरकार दोनों हम उम्र जो थे और एक दूसरे के खिलाफ कबड्डी खेलते रहे थे।
शेरा ने गांव की पहचान तालाब पर खड़े बड़ और पीपल के पेड़ों से की थी। गांव के घर उसे बदले बदले नज़र आ रहे थे। बारु नाई उसे पूरे गांव में घुमा के लाया। शेरा कहने लगा, गलियां तो वही हैं पर घर सारे ही बदल गए हैं।
बात चली तो तो शेरा ने बताया कि असल में वह मारकाट से पहले की अपनी ज़मीन की जमाबंदी की नकल लेने आया था ताकि उसके सहारे वह पाकिस्तान में उसे अलॉट हुई ज़मीन पर उठे झगड़े को निपटा सके।
फिर शेरा ने एक रोचक बात बताई कि सन् 47 तक हरसिंहपुरा और साथ लगते चार गांवों में खेती की जमीन का आधा हिस्सा त्यागी बिरादरी के पास था, चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़-मराठा बिरादरी के किसानों के पास था। अन्य जातियों के पास खेती की ज़मीनें नहीं थी।
पर केवल तीन जातियों में ऐसा बटवारा किस आधार पर हुआ?
इसका जवाब मेरे पूछने मेरे पिता ने दिया। जवाब क्या था, एक और रोचक कहानी थी, लगभग दो सौ साल पुरानी।
करनाल ज़िले में, जी टी रोड और यमुना नदी के बीच खादर कहे जाने वाले इलाक़े में आज भी दो गांव हैं पूंडरी और बरसत।
इन गांवों की सरहद पर एक कुआं हुआ करता था जिसमें एक दिन किसी व्यक्ति की लाश पाई गई। थानेदार ने दोनों गांवों के नम्बरदारों को बुला लिया और कहा कि वे क़ातिल का पता कर उसे सिपाहियों के हवाले करें। बरसत के नंबरदार ने कहा कि वह कुआं उनके गांव की सीमा में नहीं है। अब ज़िम्मेदारी पूंडरी के त्यागी नंबरदार पर आ गई। कातिल का पता नहीं चला तो सिपाही नंबरदार को ही मुजरिम मानकर ले गए। उसे सज़ा हुई और साथ में उसे मुसलमान बना दिया गया। ऐसी ही सज़ाएं होती थीं उस वक्त। नंबरदार का एक छोटा भाई भी था पर उसकी कुछ समय बाद मृत्यु हो गई। भाइयों में प्यार था पर भतीजे ताऊ को पसंद नहीं करते थे। चिढ़ाते भी थे।
एक बार ताऊ ने एक छप्पर तैयार किया और उसे उठा कर लकड़ी की बल्लियों पर रखने के लिए भतीजों से मदद मांगी। वे यह कहते हुए इनकार कर गए की अल्लाह मियां रखवाएंगे! वे ताऊ का मज़ाक उड़ा रहे थे। ताऊ और उसका इकलौता बेटा बिना मदद के छप्पर नहीं उठा सकते थे।
मुसलमान बुज़ुर्ग नंबरदार ताऊ इसी दुविधा में दुखी मन से बैठा था कि तीन बैलगाड़ियों में सवार कुछ लोग वहां आए । पिताजी ने बताया कि वे सन् 1761 में हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई में हार के बाद लुकते छिपते घूम रहे मराठा सैनिक या उनकी अगली पीढ़ी के वंशज थे जो हमारे पूर्वज थे। बुज़ुर्ग के अनुरोध पर उन्होंने उसका छप्पर रखवा दिया। बुज़ुर्ग के भतीजे दूर से घूरते रहे पर पास नहीं आए।
पानी पीकर आराम करने लगे तो मुसलमान बुज़ुर्ग ने पूछा कहां जाओगे। मराठा सरदार ने कहा कि बस कहीं ठिकाना जमाने की कोशिश में हैं। भतीजों की बढ़ती जा रही छेड़छाड़ से तंग बुज़ुर्ग ने कहा कि तुम यहीं ठहर जाओ , मेरे पास। बेटे की तरह रखूंगा। मेरी आधी ज़मीन मेरे बेटे की और आधी तुम्हारी होगी। उसके साथ भाइयों की तरह रहना। बुज़ुर्ग मुसलमान ने अपना वायदा निभाया । पूंडरी गांव की आबादी बढ़ी तो एक के पांच गांव बन गए पर सभी में आम तौर पर ज़मीन की मलकीयत उसी अनुपात में रही, आधी त्यागी बिरादरी के पास , चौथाई मुसलमानों के पास और चौथाई रोड़- मराठा जाति के लोगों के पास।
सन् 1947 तक भी मुसलमानों और मराठों का भाईचारा कायम रहा। हमारे गांव में मारकाट भी नहीं हुई जबकि दूसरे गांवों में बहुत खून खराबा हुआ। यहां तक कि मेरे पिता ने अपने करीबी दोस्त मजीद चाचा को पाकिस्तान जाने नहीं दिया। करीब दस साल बाद वे पाकिस्तान गए क्योंकि उनके भाई कमालुद्दीन ने उनके नाम भी ज़मीन अलॉट करा ली थी।
शेरा गांव में दस दिन रहा। पटवारी और तहसील के चक्कर काटता रहा। पुराना रिकॉर्ड करनाल की तहसील में मिला। पटवारी ने बिना रिश्वत के ही काम कर दिया। शेरा का खाना गांव में अलग अलग घरों में हुआ। जाते वक़्त लोगों ने उसे खर्च के लिए 400 रुपए इकठ्ठा कर के दिए। मेरी मां ने चाचा मजीद की पोती के लिए एक सूट दिया।
मित्रो 5 नवंबर को मेरा जन्म दिन होता है। पिछली बार 74वें जन्मदिन पर मेरे गांव की यह कहानी अनायास ही याद आ गई थी। मेरे बच्चों और उनके बच्चों को यह कहानी बड़ी रोचक लगी। इस शर्त पर कि वे आगे अपने बच्चों और उनके बच्चों तक इस कहानी को पहुंचाएंगे, मैंने इस कहानी को शब्द रूप दे दिया।
आशीर्वाद दें मित्रो, आज मेरा 75 वाँ जन्मदिन है।
© श्री अजीत सिंह
पूर्व समाचार निदेशक, दूरदर्शन
संपर्क: 9466647037
≈ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈