श्री संजय भारद्वाज
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। )
☆ संजय दृष्टि ☆ विलुप्त ☆
आती-जाती
रहती हैं पीढ़ियाँ
जादुई होती हैं
उम्र की सीढ़ियाँ,
जैसे ही अगली
नज़र आती है
पिछली तपाक से
विलुप्त हो जाती है,
आरोह की सतत
दृश्य संभावना में
अवरोह की अदृश्य
आशंका खो जाती है,
जब फूलने लगे साँस
नीचे अथाह अँधेरा हो
पैर ऊपर उठाने को
बचा न साहस मेरा हो,
चलने-फिरने से भी
देह दूर भागती रहे
पर भूख-प्यास तब भी
बिना लांघा लगाती डेरा हो,
हे आयु के दाता! उससे
पहले प्रयाण करा देना
अगले जन्मों के हिसाब में
बची हुई सीढ़ियाँ चढ़ा देना!
मैं जिया अपनी तरह
मरुँ भी अपनी तरह
आश्रित कराने से पहले
मुझे विलुप्त करा देना!
© संजय भारद्वाज
मोबाइल– 9890122603
ईश्वर ऐसा अंत सबको दे।
आदि से अंत तक गौरवमयी जीवन – स्वावलंबी निराश्रित जीवन , पराश्रित जीवन से विलुप्ति अच्छी – रचनाकार की सोच को नमन