डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक अतिसुन्दर लघुकथा ‘ऐसे थे दादू’। एक अतिसुन्दर शब्दचित्र। लघुकथा पढ़ने मात्र से पात्र ‘दादू ‘ की आकृति साकार हो जाती है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को इसअतिसुन्दर लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 56 ☆
☆ लघुकथा – ऐसे थे दादू ☆
दादू की फोटो और शोक सम्वेदना के संदेश कॉलेज के व्हाटसएप समूह पर दिख रहे थे, उन्हें पढते- पढते मेरे कानों में आवाज गूंज रही थी – नमस्कार बाई साहेब और इसी के साथ दादू का चेहरा मेरी आँखों के सामने आ गया- बडी – बडी आँखें, सिर पर अस्त–व्यस्त दिखते घुंघराले बाल। मुँह में तंबाखू भरा रहता और चेहरे की झुर्रियां उसकी उम्र गिना सकती थीं। दादू हमारे कॉलेज का एक बुजुर्ग सफाई कर्मचारी जो हमेशा सफाई करता ही दिखाई देता था। आप कहेंगे कि सफाई कर्मचारी है तो साफ- सफाई ही करेगा ना ? इसमें बडी बात क्या है ? बडी बात है दादू का मेहनती स्वभाव। जो उम्र आराम से घर में बैठने की थी उसमें वह निरंतर काम कर रहा था। दादू के रहते कॉलेज के रास्ते हमेशा साफ – सुथरे ही दिखाई देते। कभी – कभी जो सामने दिख जाता उससे वह पूछता – कोई कमी तो नहीं है साहब ? सारे पत्ते साफ कर दिए हैं। पगार लेता हूँ तो काम में कमी क्यों करना ? आजकल के छोकरे काम नहीं करना चाहते बस पगार चाहिए भरपूर। काम पूरा होने के बाद ही वह कॉलेज परिसर में कहीं बैठा हुआ दिखता या डंडेवाली लंबी झाडू कंधे पर रखकर चाय पीने कैंटीन की ओर जाता हुआ। दादू के कंधे अब झुकने लगे थे, झाडू कंधे पर रखकर जब वह चलता तो लगता झाडू के बोझ से गर्दन झुकी जा रही है। रास्ते में चलते समय बीच –बीच में चेहरा उठाकर ऊपर देखता, सामने किसी टीचर के दिखने पर बडे अदब से हाथ उठाकर नमस्कार करता। उसकी मेहनत के कायल हम उसे अक्सर चाय पिलाया करते थे। कभी- कभी वह खुद ही कह देता – बाई साहेब बहुत दिन से चाय नहीं पिलाई आपने। मैं संकेत समझ जाती और उसे चाय – नाश्ता करवा देती।
दादू के बारे में एक विद्यार्थी ने बडी रोचक घटना बताई – कॉलेज के एक कार्यक्रम के लिए दादू ने काफी देर काम किया था। मैंने उस विद्यार्थी के साथ दादू को नाश्ता करने के लिए कैंटीन भेजा। कैंटीन में जाने के बाद दादू खाने की चीजें मंगाता ही जा रहा था समोसा, ब्रेड वडा और भी ना जाने क्या – क्या। विद्यार्थी परेशान कि पता नहीं कितने पैसे देने होंगे, मैडम को क्या जबाब दूंगा। भरपेट नाश्ता करने के बाद दादू ने पूरा बिल अदा कर दिया और साथ आए विद्यार्थी से बोला – बेटा ! बस पचास रुपए दे दो, नाश्ता उससे ज्यादा का थोडे ही ना होता है, पर क्या करें आज सुबह से कुछ खाया नहीं था तो भूख लगी थी। ऐसे थे दादू।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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सुंदर रचना