श्री हरिप्रकाश राठी
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरिप्रकाश राठी जी ने यूनियन बैंक ऑफ़ इण्डिया से स्वसेवनिवृत्ति के पश्चात स्वयं को साहित्य सेवा में समर्पित कर दिया और अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई। श्री राठी जी अपनी साहित्य सेवा के लिए अब तक कई संस्थाओं द्वारा सम्मानित किए जा चुके हैं। इसके अंतर्गत ‘कथाबिंब’ पत्रिका द्वारा कमलेश्वर स्मृति श्रेष्ठ कथा सृजन पुरस्कार 2018, पंजाब कला साहित्य अकादमी द्वारा विशिष्ट साहित्यकार सम्मान, विक्रमशीला विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर जैमिनी अकादमी, हरियाणा द्वारा उत्कृष्ट कथा सृजन हेतु राजस्थान रत्न, राष्ट्रकिंकर नई दिल्ली द्वारा संस्कृति सम्मान, मौनतीर्थ फाउंडेशन उज्जैन द्वारा मानसश्री सम्मान, वीर दुर्गादास राठौड़ सम्मान, जोधुपर मेहरानगढ़ से निराला साहित्य एवं संस्कृति संस्थान बस्ती (यूपी) द्वारा राष्ट्रीय साहित्य गौरव सम्मान, पूर्वोत्तर हिंदी अकादमी एवं यूनेस्को द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपकी एक सार्थक कहानी ‘ प्रतिबिम्ब’।)
☆ कथा कहानी ☆ प्रतिबिम्ब ☆ श्री हरिप्रकाश राठी ☆
आसमान की छाती पर विचरने वाला अकेला चांद किससे बतियाता है? वह क्या इतना एकांतप्रिय हो गया है कि उसे किसी का संग नहीं सुहाता? यह भी तो हो सकता है कि ऐसा होना उसकी मजबूरी हो, उसके जैसा अन्य चांद तो विधाता ने रचा ही नहीं। क्या इसीलिए हर रात धरती पर स्वच्छ पानी में तैरते स्वयं के प्रतिबिंबों को वह साथ-साथ लिये घूमता है? क्या पता वे ही उसके मित्र एवं सुहृद हों एवं चांदनी की जुबां से वह गुपचुप उनसे बतियाता हो?
आसमान के चांद की तरह मैं भी इन दिनों बहुत एकांतप्रिय हो गया हूं। मुझे कोई सुहाता ही नहीं। चिड़चिड़ापन स्वभाव में उतर आया है। जिसे देखो काटने को दौड़ता हूं। कभी अखबार वाले, कभी तरकारी वाले तो कभी दूध वाले जिस पर भी मेरा वश चले डपटता रहता हूं। बस कोई मेरे हत्थे चढ़ जाए। ऑफिस के कर्मचारी तो मुझसे दूर ही रहते हैं मानो मैं कोई भेंटी मारने वाला मेढ़ा हूं। हर वक्त अजीब तरह के ख्याल आते रहते हैं। जी में आता है सबकी एैसी-तैसी कर दूं। कभी-कभी तो सोचता हूं मेरे दांत राक्षस जितने बड़े हो जाएं और मैं जिसे चाहूं दांतों के बीच रखकर पीस दूं। मेरे भीतर का पशु अपने दोनों सींग आगे कर खड़ा हो गया है, कोई सामने तो आए, सींग न घुसेड़ दूं तो कहना। सुना है ऑफिस के कुछ लोग मुझे ‘हिड़किया’ कहते हैं। कहते होंगे, मेरी बला से। हिम्मत हो तो सामने आए। ऐसी चटनी बनाऊंगा कि निलम्बन पत्र हाथ में लिये यहां-वहां रोते फिरेंगे। आखिर बॉस हूं मैं उन सबका। वे क्या जाने रात दिन काले करके मैंने प्रशासनिक परिक्षाएं उत्तीर्ण की हैं।
ये बीवियां भी जाने क्यों मैके चली जाती हैं? पांच-दस दिन की बात तो समझ में आती है पर दो-दो महीने घर से पीहर जाकर वे करती क्या हैं? बच्चों की समर वेकेशन क्या आ जाती है, पिल्लों को बगल में दबाओ और उड़ो पीहर। पीछे भले खसम रोता रहे। पीहर में क्या कारू का खजाना रखा है? जाने इन बावरियों को वहां क्या रस आता है? यहां चार कमरे कम पड़ते हैं, वहां एक कमरे में सब भाई-बहन घुस लेंगे। यहां के गाड़ी-घोड़े नहीं सुहाते वहां बाप की साइकल के पीछे कैरियर पर बैठकर रबड़ लेंगी। जब देखो एक ही राग, तुम्हारे मां-बाप से मिलने भी तो हर वर्ष गांव जाते हैं, फिर हमारे मां-बाप से क्यों न मिलें। बड़े-बुजर्गों के प्रति हमारा भी कोई धर्म है कि नहीं। मैंने जब कहा कि इन सब कामों के लिए तुम्हारा भाई जो है तो जुबान और लड़ाती है, फिर तुम्हारी बहनें गांव मां-बाप से मिलने क्यों आती हैं? यूं औरत की सारी अकल चोटी में होती है पर तर्क करती है तो लगता है यह चोटी नहीं तर्क की गठरी है।
इन दिनों ऑफिस से आकर आरामकुर्सी पर अकेला बैठा रहता हूँ। अब कोई कितना पढ़े! अखबार का अक्षर-अक्षर चाट लेता हूँ। खाना होटल से आ जाता है, खेलने-खुलने की मेरी प्रारंभ से ही आदत नहीं थी। मित्र मेरे स्वभाव की वज़ह से बनते नहीं। बस मुझे तो मेरा परिवार ही अच्छा लगता है। शाम को ऑफिस से घर आता हूं तो लगता है सुख एवं सुकून की सेज पर आ गया हूं। पत्नी से, बच्चों से बतियाने में मुझे स्वर्गिक प्रसन्नता मिलती है।
अकेले हो तो कोई मिलने भी नहीं आता और आते हैं तो ऐसे खूसट जिन्हें देखते ही आग लग जाती है। इन दिनों बगीचे में आरामकुर्सी पर बैठता हूं तो ऐसा ही एक बुड्ढ़ा मिलने आ जाता है। घर में ऐसे घुसता है जैसे मकान उसके बाप का हो। मुझे वे लोग जरा-भी नहीं सुहाते जो बिना अपाईंटमेन्ट दूसरों के घर धमक लेते हैं जैसे दूसरों के पास कोई काम धाम ही नहीं है और वे ठाले बैठे हों। इस बुड्ढे को भी किसी की परवाह नहीं। एक बार तो मन में आया आडे़ हाथों लूं , पर जाने उसकी आंखांे में कैसा सम्मोहन है, हिम्मत ही नहीं होती। इतना ही नहीं बिना अभिवादन किये मेरे सामने वाली कुर्सी पर आकर साधिकार बैठ जाता है। जाने क्यूं इस देश में बुजुर्गो के प्रति इतना सम्मान है? बुजुर्ग खूसट हो, बिलावज़ह मीन-मेख निकालता हो, बच्चों को परेशान करता हो, बस इन्हें झेलते जाओ। शुक्र है कि यह बुड्ढा आता तभी है जब मैं अकेला होता हूं। बीवी मैके गई उसके दूसरे-तीसरे दिन से लगातार आ रहा है। कल भी दो घण्टे बतिया कर गया है। बाप रे बाप! कितने प्रश्न, कितने सुझाव, कितनी समस्याएं एवं कितनी चिंताएं है इनके पास? देश-समाज इनके कंधों पर ही है!
कल कह रहा था, ‘कोठारीजी, क्या हो गया है देश की नई पीढ़ी को। बड़े-बुजुर्गों की परवाह ही नहीं। अदब-लिहाज सब भूल गए हैं, जाने किस धुन में खोये रहते हैं। जवानी तो इन्हीं को चढ़ी हैं। पहले तो कोई जवान ही नहीं हुआ। ऐसे व्यवहार करते हैं जैसे ये कभी बुड्ढ़े नहीं होंगे। बरखुरदार उम्र किसी को बख़्शती है क्या? बच्चों को दुख-दर्द बताते हैं तो कहते हैं बैंक से रुपये निकालकर तीर्थ कर आओ। बीमारी का कहते है तो उत्तर मिलता है, ‘सुनते-सुनते हमारे कान पक गए, सामने तीन डॉक्टर हैं, बताकर क्यों नहीं आते? फीस हमसे ले जाओ। हर बात रुपयों से ढकने की कोशिश करते हैं। अरे जवानो! रुपये तो हमारे पास भी है, हम तो किसी बहाने तुम्हारा संग चाहते हैं। दो घड़ी हमारे पास भी बैठा करो। पर ऐसी बातें इनको नहीं सुहाती। फुरसत कहां है इनके पास! बड़ी-बड़ी कंपनियों में काम करते हैं, मोटी पगार लाते हैं, सारा समय तो कंपनियों एवं बॉस की सेवा में लग जाता है। मां-बाप मरे इनकी बला से। हां, हर शनिवार एवं इतवार मित्रों के संग पिकनिक-पार्टियों पर जाने की इनको अवश्य फुरसत है। मां-बाप के अलावा सबके लिए समय है इनके पास।’ कहते-कहते बुड्ढा हांफने लगा। इस दरम्यान उसने तीन बार नकली बत्तीसी भी ठीक की।
मैं चुपचाप सुनता रहा। जी में तो आया उसके प्रश्न का करारा जवाब दूं, ‘आप कम हैं क्या? घड़ी-घड़ी नई पीढ़ी को कोसते रहते हैं। कंपनियां मोटी पगार यूं ही देती है क्या? सारा खून तो वहीं चुस जाता है। बची-कुची ताकत तुम्हारी तीखी नजरों को देखकर निकल जाती है। कुछ कहें तो पेंशन एवं जमा पूंजी की धौंस बताते हो। बस हर बार कांच दिखाते हो, देते कुछ भी नहीं। अरे, तिजोरियों में बंद रकम को हम क्या चाटें? जब देखो एक ही आलाप, मरने पर तुम्हारे ही काम आएगी। हम क्या छाती पर बांधकर ले जाएंगे? अब आपको कैसे समझाएं जवानी रीतने पर इस धन का हम करेंगे क्या? खुद सड़ोगे और औलादों को भी सड़ाओगे। ऊपर से यह शिकायत भी कि हमारे पास बैठते नहीं। अरे किसको पड़ी है तुम खूसटों के पास बैठने की। हर बार वही परम्पराओं का भैरवी आलाप। हमारे जमाने में यह था, वह था। इतना भी नहीं समझते कि अब जमाना बदल गया है, हम भी बदलें, बस हर समय नुक्ताचीं करवालो।’ खुंदक में जो जी मैं आया, कह गया।
आज फिर चले आए हैं जनाब। फिर सुनो इनके उपदेश! पैंतीस साल का युवा कब तक सत्तर साल के बुड्ढे को झेले? आज मैंने तय कर लिया है प्रश्नों का पहला तीर मैं ही डालूंगा। कभी हमारे बारे में भी तो सोचे। इन्हें क्या पता अकेले कैसे जी रहा हूँ। सुबह चाय बनाते हुये हाथ और जल गया। वे कुछ बोलने वाले ही थे कि मैं तपाक से बोला, ‘औरतों में तमीज जरा भी नहीं होती। कोई तरीका है महीनों-महीनों पीहर जाकर बैठने का! बस धूनी रमाती रहेेंगी। इतना भी नहीं सोचती बेचारे पतियों पर क्या गुजरेगी, कैसे अकेले रहते होंगे, मरे इनकी बला से। बस बुड्ढे़ मां-बापों की सेवा करनी है। सास-श्वसुर है कि मुंह फाड़े राक्षस। बस चले तो जंवाई को दांतों से पीस दें।’ अभी मैं इसी तात्कालिक समस्या से पीड़ित था। जो भीतर था, बाहर उडेल दिया।
बुड्ढा कुछ देर तो मुझे चुपचाप देखता रहा फिर बोला, ‘इतना गुस्सा क्यों होते हो? बुड्ढे सास-श्वसुर क्या हमेशा के लिए रहेंगे? उन्हें भी कुछ पल रहने दो बेटी-नातियों के साथ। बुढ़ापे में यही पल तो सुकून देते हैं।’
‘अरे, उनके बुढ़ापे को सुधारने के लिए मैं जवानी पेल दूं? दस साल से गाये जा रहे हैं अब कितने दिन बचे है, हमारी तो उम्र की उल्टी गिनती चालू हो गई है। बस भय बताते रहते हैं। उम्र तो इनकी ऐसे ठहर गई है जैसे गड्ढे में पानी।’ आज मैंने भी करारा जवाब दिया। आखिर कोई कब तक सहन करें।
‘बहुत अधीर हो तुम! कभी तुम भी तो बुड्ढे मां-बाप बनोगे? तुम भी तो अपने बेटी-नातियों की राह तकोगे? तुम्हारी बेटी को तुम्हारे दामाद ने रोक लिया तो? खुद पर पड़ेगी तब समझ में आएगा। तुम भी तो कभी बीमार पड़ोगे, तुम्हारा शरीर भी तो कभी जवाब देगा। उस समय तुम्हें सहारा देने की बजाय कोई सड़-मरने को छोड़ देगा, तब तुम्हें समझ में आएगा कि बुड्ढों को बड़ा घर, धन-दौलत, अच्छे डॉक्टर एवं अस्पताल नहीं चाहिए। उन्हें तो सिर्फ कुछ क्षण चाहिए अपने बच्चों के साथ बिताने के लिए। यही उनकी निधि है। उनकी बीमारी का भी यही इलाज है।’ कहते-कहते बुड्ढे की आंखें गीली हो गई। मैं कुछ कहता उसके पहले ही वे उठे, अपने चोगे के लटकते सिरे को ऊपर कर आंखों की कोर पोंछी एवं चुपचाप चले गए।
मैं चाहकर भी उन्हें नहीं रोक पाया। यहां तक कि मैं कुर्सी से उठ भी नहीं पाया। किसी ने मेरा स्तंभन कर दिया। जाते-जाते उनके पांव डगमगा रहे थे।
क्षणभर के लिए मुझे लगा बुढ़ापे में मेरी भी चाल ऐसी ही हो जाएगी, मेरे चेहरे पर उनकी तरह झुर्रियां उतर आएंगी एवं मैं भी उनकी ही तरह खूसट, परम्परावादी एवं असहाय हो जाऊंगा।
न जाने क्यों आज मुझे उनकी शक्ल मेरी शक्ल से मिलती-जुलती लगी? मैं उन्हें रोकता तब तक वे उठकर चले गए।
मैं सकपका गया। खामख्वाह पंगा लिया। कल आ तो रहे हैं बीवी-बच्चे। अकारण अपनी कुण्ठा एक बुजुर्ग के मत्थे मढ़ दी। अब वो शायद ही आए।
मैंने ठीक ही सोचा था। बीवी-बच्चों को आए आज दस रोज हो गए हैं। इस दरम्यान बुड्ढा न तो कहीं दिखाई दिया न ही फिर आया।
वह आता भी कैसे? कुर्सी के उस पार मैं ही तो बुड्ढा बनकर बैठता था, अपने एकाकीपन का साथी ढूंढ़ने के लिए, स्वयं द्वारा स्वयं के प्रतिरूप से सवाल-जवाब करने के लिए, ठीक वैसे ही जैसे आसमान का अकेला चांद हर रात अपने प्रतिबिंबों से बिना कुछ बोले बतियाता है!
© श्री हरिप्रकाश राठी
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