श्री सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है।
हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला का अंतिम भाग। )
☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 2 ☆
उस समय स्लीमनाबाद के आसपास के क्षेत्र में मार्गों से यात्रा करने वाले लोगों को गायब कर दिया जाता है। उनका कभी पता नहीं चल पाता था। लोग दशहत में थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी भी इस रहस्य से हैरान थे। कंपनी ने विलियम स्लीमैन को गायब हो रहे लोगों के रहस्य का पता लगाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। इंग्लेंड से आए कर्नल स्लीमैन ने भारत में 1806 में बंगाल आर्मी ज्वाइन की थी। 1814-16 में नेपाल युद्ध में सेवाएं दीं और फिर 1820 में सिविल सेवा में आए। इसके बाद उन्हें जबलपुर में गवर्नर लॉर्ड विलियम का सहायक बनाया। इसी दौरान उन्होंने बनारस से नागपुर तक सक्रिय ठगों और पिंडारियों के उन्मूलन के लिए स्लीमनाबाद में अपना कैंप लगाया। ठगी प्रथा के उन्मूलन के बाद यहां उन्होंने मालगुजार गोविंद से 56 एकड़ जमीन लेकर स्लीमनाबाद बसाया था। अपने कैंप और भ्रमण के दौरान स्लीमैन को पता चला कि 200 सदस्यों का एक ऐसा गिरोह है जो लूटपाट के लिये हत्या करता है। इसी वजह से लोग घर नहीं लौट पाते और उनके गायब होने की चर्चा फैल जाती है। लूट और हत्या की वारदातों को अंजाम देने वालों का मुखिया वास्तव में ‘बेरहाम ठग’ है। बेरहाम मुख्यमार्गों और जंगलों पर अपने साथियों के साथ घोड़ों पर घूमता था। इस पतासाजी के बाद कंपनी ने विलियम स्लीमैन’ को ठगों के खिलाफ कार्यवाही इंचार्ज बना कर जबलपुर में रख दिया।
बहरहाल, तब जबलपुर के कमिश्नर मि. मलोनी हुआ करते थे। इन्हीं के नाम पर अब एक मोहल्ला मिलौनीगंज है। इनके एक सहायक जब कुछ लंबे समय के लिए छुट्टी पर गए तो उन्होंने सहायता के लिए नरसिंहपुर से स्लीमैन को बुलवा लिया। जहाँ कमिश्नर कार्यालय था, वहीं पास के मैदान में एक बहुत बड़ी शहादत हुई थी। 1857 के गदर के ठीक बाद यहाँ तत्कालीन रेजिमेंट के कमांडेंट क्लार्क ने गोंड राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह को तोप के मुँह में बाँधकर उड़ा दिया था। क्लार्क दुष्ट, क्रूर और आतताई था। गदर के बाद अंग्रेजों ने भारतीयों पर और भी बहुत से जुल्म ढाए। पर जैसे काबुल में सब गधे नहीं होते, कुछ अंग्रेज भले भी थे। इन्हीं गिनती के लोगों में एक स्लीमैन भी थे। मि. मलौनी की सहायता करते हुए एक दिन स्लीमैन ने कमिश्नर कार्यालय की खिड़की से जो नजारा देखा, वही आने वाले दिनों में ठग और ठगी के साथ उनके बहुत बड़े काम का सबब बना। यही वह काम था जो इलाहाबाद में उन्हें बेचैन किए हुए था। आगे वे इस काम में इतने लिप्त हो गए कि उनके मित्र उन्हें विनोद में ‘ठगी स्लीमेन’ कहकर पुकारने लगे थे।
इस कहानी में एक फ़िल्मी मोड़ है। उन दिनों जबलपुर के आस-पास गन्ने की खेती नहीं होती थी। थोड़े पतले और लंबे ईख होते हैं। गर्मियों के दिन किसी अप्रैल महीने में स्लीमेन पहली बार भारत से बाहर ऑस्ट्रेलिया गए और सुदूर ताहिती द्वीप से गन्ने की रोपण-सामग्री ले आए। इसकी बढ़त में कुछ दिक्कत हुई तो मॉरीशस को खंगाला। एक व्यापारिक समझौते के तहत वहाँ से 19 साल की लड़की एमेली वांछित सामग्री लेकर आई। गन्ने बहुत मीठे थे और एमेली बहुत सुंदर थीं, दोस्ती हुई, फिर मोहब्बत भी। जैसे मुरब्बा बनाने पर शीरे की मिठास धीरे-धीरे आँवले को भेदती है, एमेली के प्रेम की मिठास स्लीमैन को पगाती गई। सौदा गन्ने का भी हुआ और दिलों का भी। जबलपुर के आस-पास गन्ने के खेत नज़र आने लगे और जबलपुर के क्राइस्ट चर्च में विवाह के बाद स्लीमेन और एमेली साथ-साथ। दोनों में उम्र का बड़ा फासला था, पर आगे वैचारिक धरातल पर एमेली हमेशा विलियम के साथ खड़ी दिखाई पड़ीं। यह जिक्र बेहद जरूरी है कि विलियम के काम में एमेली का भी योगदान बराबरी का रहा।
कमिश्नर कार्यालय के पास ही तीन दिनों से मैली-कुचैली वेशभूषा में ग्रामीण लोगों एक काफ़िला ठहरा हुआ था। उन्हें संदेह में रोका गया था और कुछ न मिलने पर आगे निकलने के लिए कमिश्नर की मंजूरी बस मिलने ही वाली थी। तभी स्लीमैन ने देखा कि सरकारी वर्दी में एक अर्दली काफिले के किसी यात्री से बात कर रहा है। अर्दली ने गोरे हाकिम को उनकी निगरानी करते हुए देख लिया। वह घबराया-सा आया और स्लीमैन के पैरों में गिर पड़ा। कभी उन्होंने ही उसे नरसिंहपुर में नौकरी पर रखा था। उसने कहा कि वह सुधर गया है। स्लीमैन ने कुछ न जानते हुए भी अभिनय करते हुए कहा कि नहीं, तुम अब भी वैसे ही हो। धमकाया गया। राज खुला तो पता चला कि वह काफिला ठगों का गिरोह है, लेकिन तब तक कमिश्नर की अनुमति से उनकी रवानगी हो गई थी। काफिले को फिर से जबलपुर के पास माढ़ोताल नाम की जगह में घेरा गया। वापसी हुई। गिरोह के सरगना दुर्गा को फाँसी की धमकी दी गई, जो अर्दली कल्याण सिंह का भाई था। मनोवैज्ञानिक प्रपंच रचा गया। आखिरकार दुर्गा टूट गया और उसने कबूल किया कि वे सिवनी के रास्ते नागपुर से आ रहे हैं और लखनादौन के पास उन्होंने 5-6 लोगों की हत्याएँ कर उनका माल-असबाब लूट लिया है। स्लीमेन रात को ही पुलिस-दल के साथ रवाना हुए। दो लाशें ‘बिल’ से निकाली गईं और उन्हें सम्मान कमिश्नर निवास के आगे धर दिया गया।
दुर्गा और कल्याण से ठगों की मैथडालॉजी के बारे में हैरतअंगेज जानकारियां हासिल हुईं। स्लीमैन को अब पता चला कि दिल्ली-आगरा के रास्ते लोग कहाँ गायब हो जाते थे। अमीर अली फिरंगिया, बहराम वगैरह तब के नामी ठग सरदार थे। गिरोह काफिलों में चलता था। काफिले में कई तरह के हुनर वाले लोग होते। तब सामान्य यात्री-व्यापारी वगैरह भी अकेले नहीं चलते थे। इन्हें भरमाया जाता। “ठगों” का डर दिखाकर या बड़े काफिले में बड़ी सुरक्षा की बात कहकर भरोसे में लिया जाता। फिर मौका देखकर पीले रुमाल से इनकी मुश्कें कस दी जातीं और लाशों को ‘बिल’ में दफ़्न कर दिया जाता। जब यात्रियों का पूरा काफिला ही शिकार बन गया हो तो शिकायत कौन करे और गवाही कौन दे? घर-परिवार के लोग सोचते कि वे हिंस्र-पशुओं के शिकार बन गए होंगे।
ठगी पर काम करने के साथ-साथ स्लीमैन भारतीय रंग-ढंग में रमते जा रहे थे। अवकाश के दिन वे घोड़े पर बैठकर जबलपुर के आस-पास के इलाकों में घूमने के लिए निकल जाते। हाट-बाजार, मेला-मड़ई घूमते। ठेठ देहात के लोगों के साथ अड्डेबाजी जमाते। विवाह के कई सालों बात तक भी कोई संतान नहीं थी। पास के एक गाँव कोहकाटोला में एक बुजर्ग ने उनसे मंदिर में मन्नत मांगने को कहा। स्लीमेन ने कहा कि सिर्फ आपकी भावनाओं के सम्मान के लिए मैं ऐसा कर लेता हूँ। एमेली भी साथ थीं। अगले बरस उन्होंने एक बेटे को जन्म दिया। स्लीमेन ने मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। घी के दिए जलाने के लिए सरकारी खजाने से राशि की मंजूरी दी। एक विशालकाय कांसे का दीप भी लगवाया जो अब भी इस मंदिर में अपनी रोशनी बिखेरता है।
स्लीमैन ने ठगों के गिरोह और उनके तौर-तरीकों को पकड़ तो लिया था, पर व्यावहारिक दिक्कत उन पर मुकदमे चलाने की थी। फिर देश भर में ठगों के कई गिरोह थे। अलग-अलग जागीरें, अलग-अलग स्टेट। एक जगह वारदात की और आगे बढ़ गए। गवाह मिलते न थे। आखिरकार स्लीमैन ने कम्पनी सेक्रेटरी को पत्र लिखा। लार्ड विलियम बैंटिक और डलहौजी तक बात पहुँची। देश में पहली बार जबलपुर में “ठग एंड डकैती सुप्रेशन डिपार्टमेंट” की स्थापना हुई। आगे चलकर यही विभाग सीआईडी के महकमे में तब्दील हुआ। स्लीमेन को बहुत से अधिकार दिए गए। वे देश में कहीं भी जाकर ठगों की धर-पकड़ कर सकते थे और उनके मुकदमे जबलपुर में ही चलाए जा सकते थे। गवाह आना नहीं चाहते थे सो मौके पर जाकर ही गवाही दर्ज करने का चलन शुरू किया। साक्ष्य जुटाने के लिए गिरोह में से ही कई लोगों को वायदा माफ गवाह बनाया।
स्लीमैन ने ठगों को कटनी की तरफ़ से घेरना शुरू किया तो ठग नर्मदा घाटी में शेर, शकर, दुधी नदी पार करके फ़तहपुर, शोभापुर, मकड़ाई रियासतों में घुसकर ठगी करने लगे। स्लीमैन ने उन्हें होशंगाबाद से घेरना शुरू किया और सोहागपुर को ठगी उन्मूलन का केंद्र बनाकर उन्हें जबलपुर और सोहागपुर के बीच समाप्त किया था। करीब 10 साल की कड़ी मशक्कत के बाद बेरहाम पकड़ा गया और तब सारी चीजों का खुलासा हुआ। ठगों में से कुछ को जबलपुर के वर्तमान क्राईस्टचर्च स्कूल के पास के इमली के पेडों पर और कुछ को स्लीनाबाद में फांसी पर लटका दिया।
जबलपुर से करीब 75 किमी दूर कटनी जिले के कस्बे स्लीमनाबाद को कर्नल हेनरी विलियम स्लीमन के नाम से ही बसाया गया है। कर्नल स्लीमैन ने ही 1400 ठगों का फांसी दी थी और उनकी सहायता करने वाले कई ठगों और उनके बच्चों को समाज की मुख्यधारा में जोडकऱ उनका पुनर्वास भी कराया था। स्लीमनाबाद में आज भी कर्नल स्लीमन का स्मारक है।
जबलपुर में एक “गुरंदी बाजार” बाज़ार है। इसका भी एक जबरदस्त इतिहास है। अंग्रेजों द्वारा ठगी प्रथा खात्मे के बाद बचे हुए ठग गुरंदे कहलाए। जिंदा बचे ठगों और उनके बच्चों व परिवार का पुनर्वास गुरंदी बाजार में किया गया। इसलिए इसे गुरंदी बाजार कहा जाने लगा। गुरंदी में हर वह चीज मिला करती थी, जिसका किसी और जगह मिलना नामुमकिन होता था। इसी प्रकार कुछ परिवार सोहागपुर के नज़दीक बस गए, उस गाँव का नाम गुरंदे के बसने से गुंदरई हुआ। इस प्रकार सुरेश को गुरंदे, गुरंदा, गुरंदी और गुंदरई का मतलब पता चला।
पकड़े गए लोगों में से कोई एक फीसदी को ही संगीन सजाएँ हुई। बाकी के अपराध छोटे थे। कुछ बेकसूर पाए गए। कुछ वायदा माफ गवाह थे। इनके पुनर्वास का प्रश्न था क्योंकि वे भले ही ठगी के काम में लगे हों, पर वो एक काम तो था ही। जबलपुर के घमापुर इलाके में मिट्टी की जेल जैसी बनाई गई। हकीकतन यह एक खुली जेल थी और देश में इस तरह की सम्भवतः नवीन अवधारणा थी। फ़िल्म “दो आँखें बारह हाथ” में कुछ इस तरह का विचार दिखाई पड़ता है। यहाँ लोग खेती करने लगे। दस्तकारी के काम और प्रशिक्षण के लिए कलेक्ट्रेट के पास वाली जगह चुनी गई। इसे दरीखाना कहा जाता था और आजकल यहाँ होम गार्ड्स के कमांडेंट का कार्यालय है। यहाँ बनाई गई एक विशालकाय दरी को महारानी को तोहफे के रूप में भेजा गया और यह आज भी विंडसर में वाटरलू चैंबर में मौजूद है।
सुरेश को उसके साथ हुई लूट से सम्बंधित सारी बातों का उत्तर ज्ञात हो गया था। उसने रीको घड़ी ठग के वंशज के पास रहने दी कि शायद उसका अच्छा समय आ जाए। फिर उसने स्लीमैन की जीवनी का सिलसिलेवार क्रम बिठाया, जो इस प्रकार था।
स्लीमैन का जन्म इंग्लैंड के क़स्बे स्ट्रैटन, कॉर्नवाल में हुआ था। वे तुर्क और सेंट टुडी के एक्साइज के पर्यवेक्षक फिलिप स्लीमैन के आठ बच्चों में से पाँचवें नम्बर के थे। 1809 में स्लीमैन बंगाल सेना में शामिल हो गए और बाद में 1814 और 1816 के बीच नेपाल युद्ध में सेवा की। 1820 में उन्हें प्रशासनिक सेवा के लिए चुना गया और सौगोर (सागर) और नेरबुड्डा (नर्मदा) क्षेत्रों में गवर्नर-जनरल के एजेंट के लिए कनिष्ठ सहायक बन गए। 1822 में उन्हें नरसिंहपुर जिले के प्रभारी के रूप में रखा गया था, और बाद में उनके जीवन के सबसे श्रमसाध्य भूमिका में उनके दो वर्षों का वर्णन किया जाएगा। वह 1825 में कैप्टन के पद पर आसीन थे, और 1828 में जुब्बलपुर जिले का प्रभार संभाला। 1831 में उन्हें एक सहयोगी के लम्बी छुट्टी पर जाने के कारण सागर जिले में स्थानांतरित कर दिया। अपने सहयोगी की वापसी पर, स्लीमैन 1835 तक सागर में मजिस्ट्रेट कर्तव्यों का निर्वाह करते रहे। अंग्रेज़ी उनकी मातृभाषा थी परंतु उन्होंने हिंदी-उर्दू में धाराप्रवाह बोलने, लिखने और पढ़ने का कौशल विकसित किया एवं कई अन्य भारतीय भाषाओं के काम के ज्ञान का विकास किया। बाद में अपने जीवन में, स्लीमैन को “उर्दू और फारसी में अवध के नबाव को संबोधित करने वाला एकमात्र ब्रिटिश अधिकारी बताया गया था।” अवध पर 800 पृष्ठों की उनकी रिपोर्ट को अभी भी सबसे सटीक और व्यापक अध्ययनों में से एक माना जाता है।
स्लीमैन एशिया में डायनासोर जीवाश्मों के सबसे पहले खोजकर्ता बन गए जब 1828 में, नर्मदा घाटी क्षेत्र में एक कप्तान के रूप में सेवा करते हुए, उन्होंने कई बेसाल्टिक संरचनाओं पर ध्यान दिया, जिन्हें उन्होंने “पानी के ऊपर उठी चट्टानों” के रूप में पहचाना। उन्होंने जबलपुर के पास लमहेंटा बारा सिमला हिल्स में चारों ओर खुदाई करके कई झुलसे हुए वृक्षों का पता लगाया, साथ ही साथ कुछ खंडित डायनासोर जीवाश्म नमूनों को भी देखा। इसके बाद, उन्होंने इन नमूनों को लंदन और कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय को भेज दिया। 1877 में रिचर्ड लिडेकेकर द्वारा जीनस को टाइटेनोसॉरस इंडिकस नाम दिया गया। स्लीमैन ने उन जंगली बच्चों के बारे में लिखा, जिन्हें भेड़ियों ने छह मामलों में अपने बच्चों के साथ पाला था। इसने कई लोगों की कल्पना को दिशा दी और अंततः द जंगल बुक में रुडयार्ड किपलिंग के मोगली चरित्र को प्रेरित किया।
स्लीमैन ने 1843 से 1849 तक ग्वालियर में और 1849 से 1856 तक लखनऊ में रेजिडेंट के रूप में काम किया। लॉर्ड डलहौजी द्वारा अवध के अधिग्रहण का उन्होंने विरोध किया गया था, लेकिन उनकी सलाह की अवहेलना की गई थी। स्लीमैन का मानना था कि ब्रिटिश अधिकारियों को भारत के केवल उन क्षेत्रों को अधिग्रहित करना चाहिए जो हिंसा, अन्यायपूर्ण नेतृत्व या खराब बुनियादी ढांचे से त्रस्त थे।
स्लीमैन ने अपना लगभग पूरा जीवन ही भारत में बिताया। भारतीय न होकर भी भारत से उन्हें बेपनाह मोहब्बत थी। अपने कामों के जरिए वे कुछ मूर्त चीजें भी यहाँ छोड़ गए ताकि इस वतन से नाता हमेशा बना रहे। नर्मदा के झाँसीघाट से गंगा किनारे मिर्जापुर तक उन्होंने सड़क के दोनों किनारों पर ठगों के जरिए पेड़ लगवाए। इन पेड़ों के तने अब खूब मोटे हैं। ठगों द्वारा लगाए जाने के बावजूद ये कोई ठगी नहीं करते और आज भी राहगीरों को खूब घनी छाँव देते हैं। विलियम आखिरी समय में रुग्ण हो गए थे। अपने देश वापस लौटना चाहते थे। नहीं लौट सके। समंदर की राह में ही उन्होंने प्राण त्याग दिए। शव को जल में विसर्जित कर दिया गया। समंदर की लहरों ने उनके अवशेषों को भारत के ही किसी तट पर ला पटका होगा।
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल, मध्य प्रदेश